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कवियों के क़िस्से वाया AI

साहित्य सम्मेलन का छोटा-सा हॉल खचाखच भरा हुआ था। मंच पर हिंदी साहित्य के दो दिग्गज विराजमान थे—सूर्यकांत त्रिपाठी निराला और तत्कालीन नई पीढ़ी के लेखक निर्मल वर्मा। सामने बैठे श्रोताओं की आँखों में चमक थी—आज कुछ विशेष होने वाला था।

चाय का दौर चल ही रहा था कि चर्चा कुछ हल्की-फुल्की हो गई। साहित्य के गूढ़ विमर्श से हटकर बातें अब निजी नामों की तरफ़ मुड़ गईं। तभी अचानक, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ने मुस्कुराते हुए निर्मल वर्मा पर व्यंग्य कसा—“क्या बात है निर्मल बाबू, आपने नाम में ‘निर्-निर्’ क्यों जोड़ रखा है? लगता है मेरे ही नाम से प्रभावित हो!”

यह सुनकर सभागार में हल्की-सी हँसी गूँज उठी। पर निर्मल वर्मा भी कोई कम न थे। चेहरे पर हल्की मुस्कान लिए तुरंत जवाब दिया—“आपके नाम में भी ‘निर्’ है, तो क्या आप ही एकमात्र ‘निर्’ के अधिकारी हैं?”

भीड़ के बीच कुछ फुसफुसाहट और दबी-दबी हँसी सुनाई दी। मगर यह तो केवल शुरुआत थी। वह मौजूद सभी लोग सूर्यकांत त्रिपाठी निराला के स्वभाव से परिचित थे—तीखे, बिंदास और बेमिसाल। उन्होंने गिलास मेज़ पर रखते हुए थोड़ा झल्लाकर कहा—“मेरे नाम से ‘निर्’ हटा दो तो ‘आला’ बचता है—ऊँचा, उत्कृष्ट! और तुम्हारे नाम से ‘निर्’ निकल जाए, तो क्या बचेगा? सिर्फ़…?”

अबकी बार ठहाका हॉल में गूँज गया। कुछ लोग हँसी रोकते-रोकते लोटपोट होने लगे। निर्मल वर्मा थोड़ी देर चुप रहे, जैसे शब्द टटोल रहे हों, फिर शांत लहजे में बोले—“आप सही कह रहे हैं निराला जी... मगर हर नाम की अपनी गरिमा होती है। ‘मल’ भी धरती को उपजाऊ बनाता है। और अगर ‘आला’ सिर्फ़ ऊँचाई का प्रतीक हो, तो वह अकेले बहुत कुछ नहीं कर पाता।”

हॉल फिर से ताली और मुस्कान से भर गया। यह केवल दो नामों की नहीं, दो युगों की, दो दृष्टियों की भिड़ंत थी—एक तेज़, व्यंग्यपूर्ण तो दूसरी सौम्य, गहरी। दोनों ही अपनी जगह सही, दोनों ही अपने अंदाज़ में अद्वितीय।

उस शाम सम्मेलन में सिर्फ़ साहित्य नहीं गूँजा—नामों की हल्की नोंक-झोंक में भी वह रस घुला, जो केवल महान् लेखकों की संगति में ही संभव होता है।



कवि-सम्मेलन की शाम थी। श्रोताओं से भरा सभागार शब्दों की लहरों में डूबता-उतरता चला जा रहा था। एक के बाद एक अलग-अलग तरह के कवियों का आना-जाना लगा हुआ था—कोई वीर रस में दहाड़ता, तो कोई शृंगार में बहकता। लेकिन सबकी नज़रें थीं उस व्यक्ति पर, जो अब तक चुपचाप मंच के कोने में बैठा था—गंभीर, स्थिर और विचार में डूबा—आचार्य रामचंद्र शुक्ल।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल जिनकी आलोचना जितनी तेज़ थी, उतनी ही उनकी उपस्थिति भी। वह मंच पर चढ़ते नहीं थे, लेकिन जब चढ़ते तो जैसे सभा अपने आप सीधी हो जाती थी। जैसे ही संयोजक ने उनके कविता-पाठ की घोषणा की, सभा में सन्नाटा छा गया। लोग ध्यान-मुद्रा से बैठ गए। 

आचार्य शुक्ल सस्वर कविता-पाठ नहीं करते थे। मंच पर बैठे कुछ आधुनिक कवियों के मन को यह स्वरहीनता चुभ रही थी। उनमें से ही एक कवि ने—जिनकी कविता पाठ की शैली कम और अभिनय अधिक लगती थी—आचार्य रामचंद्र शुक्ल को कुछ इस अंदाज़ में बुलाया—“अब आप असुर (स्वर-रहित) की कविता सुनिए।”

लोगों ने बात पकड़ी। कुछ हँसे, कुछ चौंके। संयोजक सकपका गया, लेकिन आचार्य रामचंद्र शुक्ल शांत रहे।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल का पाठ वैसा ही था, जैसे नदी चुपचाप पहाड़ों के नीचे बहती हो। न उठान, न गिरावट। केवल विचार। न कोई नाद, न कोई नाट्य। उन्होंने संयत स्वर में कविता पढ़ी। शब्दों में शक्ति थी, भाव में सघनता। 

पाठ पूरा हुआ। फिर वही संयोजक उनके कान के पास आया, मानो अगला कवि बुलाने की अनुमति माँग रहा हो। आचार्य शुक्ल के बाद ही उन सज्जन कवि को भी कविता-पाठ करना था। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने सिर हिलाया और ख़ुद ही माइक थाम लिया और सहजता से उनके कविता-पाठ की सूचना दी—“आप लोगों ने असुर की कविता तो सुन ली, अब आप ससुर (स्वर-सहित) की कविता सुनिए।”

सभा में जैसे बम फट गया। हँसी का शोर, तालियों की गड़गड़ाहट। मंच पर बैठे कवियों के चेहरों पर दबी मुस्कान तैर गई। वह सज्जन कवि पहले तो ठिठके, फिर मुस्कराकर सिर झुका लिया—मानो स्वीकार कर रहे हों कि वह मंच के ‘ससुर’ ही सही, लेकिन आचार्य की चुटकी के आगे बेटे जैसे ही हैं।

उस दिन लोगों ने सीखा कि चुप्पी की भी एक भाषा होती है और व्यंग्य की धार बिना ऊँचे स्वर के भी असरदार हो सकती है। सभा आगे बढ़ी, कविताएँ गूँजती रहीं—लेकिन हर तालियों के बीच वो एक पंक्ति गूँजती रही : “आप लोगों ने असुर की कविता तो सुन ली, अब आप ससुर की कविता सुनिए।”

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