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वाल्मीकि

वाल्मीकि के उद्धरण

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धर्म से अर्थ प्राप्त होता है। धर्म के सुख का उदय होता है। धर्म से ही मनुष्य सब कुछ पाता है। इस संसार में धर्म ही सार है।

जैसे पके फलों को गिरने के अतिरिक्त कोई भय नहीं है, उसी प्रकार जिसने जन्म लिया है, उस मनुष्य को मृत्यु के अतिरिक्त कोई भय नहीं है।

विपत्तिकाल में, पीड़ा के अवसरों पर, युद्धों में, स्वयंवर में, यज्ञ में अथवा विवाह के अवसर पर स्त्रियों का दिखाई देना उनके लिए दोष की बात नहीं है।

मित्र बनना सरल है, मैत्री—पालन दुष्कर है। चित्तों की अस्थिरता के कारण अल्प मतभेद होने पर भी मित्रता टूट जाती है।

यदि गुरु (बड़ा) भी घमंड में आकर कर्त्तव्याकर्त्तव्य का ज्ञान खो बैठे और कुमार्ग पर चलने लगे तो उसे भी दंड देना आवश्यक हो जाता है।

धर्म ही लोक में सर्वश्रेष्ठ है। धर्म में सत्य प्रतिष्ठित है।

दया करना सबसे बड़ा धर्म है।

निश्चय ही पति नारी के लिए आभूषणों की अपेक्षा भी अधिक शोभा का हेतु है।

सुखदायक साधन से सुख के हेतुभूत धर्म की प्राप्ति नहीं होती।

धर्म संपूर्ण जगत् को धारण करता है, इसीलिए उसका नाम धर्म है। धर्म ने ही समस्त प्रजा को धारण कर रखा है क्योंकि वही चराचर प्राणियों सहित सारी त्रिलोकी का आधार है।

नीच श्रेणी की स्त्रियों का आचरण देखकर तुम संपूर्ण स्त्री जाति पर ही संदेह करते हो।

बड़ा भाई, पिता तथा जो विद्या देता है, वह गुरु—ये तीनों धर्म-मार्ग पर स्थित रहने वाले पुरुषों के लिए पिता के तुल्य माननीय हैं।

धनी हो या दरिद्र, दुःखी हो या सुखी, निर्दोष हो या सदोष (जैसा भी हो), मित्र परम गति है।

काल का किसी के साथ बंधुत्व, मित्रता अथवा जाति-बिरादरी का संबंध नहीं है। उसे वश में करने का कोई उपाय नहीं है और उस पर किसी का पराक्रम नहीं चल सकता। कारणस्वरूप काल जीव के भी वश में नहीं है।

हे निशाचर! जैसे विषमिश्रित अन्न का परिणाम तुरंत ही भोगना पड़ता है, उसी प्रकार लोक में किए गए पापकर्मों का फल भी शीघ्र ही मिलता है।

जो रात बीत गई है, वह फिर नहीं लौटती, जैसे जल से भरे हुए समुद्र की ओर यमुना जाती ही है, उधर से लौटती नहीं।

अपनी शक्ति के अनुसार उत्तम खाद्य पदार्थ देने, अच्छे बिछौने पर सुलाने, उबटन आदि लगाने, सदा प्रिय बोलने तथा पालन-पोषण करने और सर्वदा स्नेहपूर्ण व्यवहार के द्वारा माता-पिता पुत्र के प्रति जो उपकार करते हैं, उसका बदला सरलता से नहीं चुकाया जा सकता।

जो कर्म के फल का विचार कर केवल कर्म की ओर दौड़ता हैं, वह उसका फल मिलने के समय उसी प्रकार शोक करता है जैसे ढाक का वृक्ष सींचने वाला करता है।

जो कार्य करने से तो धर्म होता हो और कीर्ति बढ़ती हो और अक्षय, यश ही प्राप्त होता हो, उल्टे शरीर को कष्ट होता हो, उस कर्म का अनुष्ठान कौन करेगा?

जिनके हृदय में उत्साह होता है, वे पुरुष कठिन से कठिन कार्य पड़ने पर हिम्मत नहीं हारते।

दिन-रात लगातार बीत रहे हैं और इस संसार में सभी प्राणियों की आयु का उसी प्रकार शीघ्र नाश कर रहे हैं, जैसे सूर्य की किरणें ग्रीष्म ऋतु में जल का शीघ्र नाश करती हैं।

झूठ बोलने वाले मनुष्य से सब लोग उसी तरह डरते हैं, जैसे साँप से।

जो बल पराक्रम से संपन्न तथा पहले ही उपकार करने वाले कार्यार्थी पुरुषों को आशा देकर पीछे उसे तोड़ देता है, वह संसार के सभी पुरुषों में नीच है।

निश्चय ही बिना काल आए मरना असंभव है।

जिनकी जड़ खोखली हो गई हो, वे वृक्ष जैसे अधिक काल तक खड़े नहीं रह सकते, उसी प्रकार पाप कर्म करने वाले लोकनिंदित क्रूर पुरुष ऐश्वर्य को पाकर भी चिरकाल तक उसमें प्रतिष्ठित नहीं रह पाते।

जगत में नियति ही सब का कारण है। नियति ही समस्त कर्मों का साधन है। नियति ही समस्त प्राणियों को विभिन्न कर्मों में नियुक्त करने का कारण है।

शरीर में झुर्रियाँ पड़ गईं, सिर के बाल सफ़ेद हो गए फिर जरावस्था से जीर्ण हुआ मनुष्य कौन सा उपाय करके मृत्यु से बचने में समर्थ हो सकता है?

काल भी काल का उल्लंघन नहीं कर सकता। काल कभी क्षीण नहीं होता।

हे निषाद! तुझे कभी शांति मिले, क्योंकि तूने काम से मोहित क्रौंच के इस जोड़े में से एक की हत्या कर दी।

इस मानव जीवन और परतंत्रता को धिक्कार है जहाँ अपनी इच्छा के अनुसार प्राणों का परित्याग भी नहीं किया जा सकता।

पिता की सेवा अथवा उनकी आज्ञा का पालन करने से बढ़कर कोई धर्माचरण नहीं है।

पतिव्रताओं के आँसू इस पृथ्वी पर व्यर्थ नहीं गिरते।

मनस्वी पुरुषों का कहना है कि विजय का मूल अच्छी मंत्रणा है।

उत्साह ही प्राणियों को सब कामों में सदा प्रवृत्त करता है।

जैसे अमृत की संप्राप्ति, जैसे जलहीन स्थान पर वर्षा, जैसे निःसंतान मनुष्य को सदृश पत्नी से पुत्रजन्म, जैसे नष्ट संपत्ति की पुनः प्राप्ति, जैसे हर्ष का अतिरेक, उसी प्रकार मैं आपका आगमन मानता हूँ। हे महामुनि ! आपका स्वागत है।

मनुष्य स्वयं जो अन्न खाता है, वही अन्न उसके देवता भी ग्रहण करते हैं।

श्रेष्ठ पुरुष को चाहिए कि कोई पापी हो या पुण्यात्मा अथवा वे वध के योग्य अपराध करने वाले ही क्यों हों, उन सब पर दया करें, क्योंकि ऐसा कोई भी प्राणी नहीं है जिससे कभी अपराध होता ही हो।

जिस प्रकार कमल के पत्ते पर गिरी हुई जल की बूँद उसमें स्थिर नहीं रहती है, उसी प्रकार अनार्यों (नीचों) के साथ मित्रता स्थिर नहीं होती है।

अपनी प्रतिज्ञा की रक्षा करनी चाहिए।

प्रतिज्ञा का पालन ही महानता का लक्षण है।

कोई अपने आकार को कितना भी छिपाए, उसके भीतर का भाव कभी छिप नहीं सकता। बाहर का आकार पुरुषों के आंतरिक भाव को बलात् प्रकट कर देता है।

हे राजन्! पराई स्त्री के संसर्ग से बढ़कर दूसरा कोई महान पाप नहीं है।

उत्साह ही श्री का मूल कारण है। उत्साह ही परम सुख है।

कुल्हाड़ी से आम को काट कर नीम का सेवन कौन करेगा?

सभी संग्रहों का अंत क्षय है। सभी समुन्नतियों का अंत पतन है। सभी संयोगों का अंत वियोग है और जीवन का अंत मरण है।

सज्जन अपने चारित्र्य से ही विभूषित होते हैं।

जो कायर है, जिसमें पराक्रम का नाम नहीं है, वही भाग्य का भरोसा करता है।

मद्य पीने से अर्थ, धर्म और काम—तीनों नष्ट हो जाते हैं।

जिसके विषय में कभी कुछ सोचा जा सकता हो, वही देव का विधान है।

शुभ चाहने वाले के द्वारा भविष्य के लिए उपाय किया ही जाना चाहिए।

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