

वह न तो स्त्री है, न पुरुष है और न नपुंसक ही है। न सत् है, न असत् है और न सदसत् उभयरूप ही है। ब्रह्मज्ञानी पुरुष ही उसका साक्षात्कार करते हैं। उसका कभी क्षय नहीं होता, इसलिए वह अविनाशी परब्रह्म परमात्मा अक्षर कहलाता है। यह समझ लो।

दुष्ट पुरुषों का बल है हिंसा। राजाओं का बल है दंड देना। स्त्रियों का बल है सेवा और गुणवानों का बल है क्षमा।

संभवतः विवेकवादियों की आदर्श-भावना के कारण, इस शब्द में केवल स्त्री-पुरुष-संबंध के अर्थ का ही भाव होने लगा। किंतु काम में जिस व्यापक भावना का समावेश है, वह इन सब भावों को आवृत्त कर लेती है।

कर्तव्यनिष्ठ पुरुष कभी निराश नहीं होता।
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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere