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अश्वघोष

80 AD - 150 AD | अयोध्या, उत्तर प्रदेश

अश्वघोष के उद्धरण

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अतिथि कैसा भी हो, उसका आतिथ्य करना श्रेष्ठ धर्म है।

दुखों में अज्ञान-दुःख सबसे बड़ा दुःख है।

दुःख के प्रतिकार से थोड़ा दुःख रहने पर भी मनुष्य सुख की कल्पना कर लेता है।

इस प्रकार संसार में धन पाकर जो लोग उसे मित्रों और धर्म में लगाते हैं, उनके धन सारवान हैं, नष्ट होने पर अंत में वे धन ताप नहीं पैदा करते।

तृष्णावान् व्यक्ति का मन धन-संपत्ति में और मूर्ख का काम-सुख में रमता है। जो सज्जन है वह ज्ञान द्वारा भोग-इच्छा को जीतकर शांति में रमता है।

बुढ़ापा, रोग और मृत्यु इस संसार का महाभय है। ऐसा कोई देश नहीं है जहाँ लोगों को यह भय नहीं होता हो।

भय, प्रीति और शोक में मनुष्य निद्रा से पीड़ित नहीं होता है।

यह स्नेहमयपाश ज्ञान और रूखेपन के बिना नहीं तोड़ा जा सकता है।

मन से अब्रह्मचारी रहते हुए तुम्हारा यह ब्रह्मचर्य कैसा?

नियम में स्थिर रहकर मर जाना अच्छा है, कि नियम से फिसल कर जीवन धारण करना।

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