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महात्मा गांधी

1869 - 1948 | गुजरात

भारत के राष्ट्रपिता। 'बापू' और 'महात्मा' के रूप में समादृत। सत्य, अहिंसा और सांप्रदायिक सद्भावना के वैश्विक प्रकाश-स्तंभ।

भारत के राष्ट्रपिता। 'बापू' और 'महात्मा' के रूप में समादृत। सत्य, अहिंसा और सांप्रदायिक सद्भावना के वैश्विक प्रकाश-स्तंभ।

महात्मा गांधी के उद्धरण

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अंतःकरण के विषयों में, बहुमत के नियम का कोई स्थान नहीं है।

काम करने पर भी उसका बोझ लगे, यह अनासक्ति का रूप है।

बग़ैर अनासक्ति के मनुष्य सत्य का पालन कर सकता है, अहिंसा का।

जो मनुष्य यह मेरा और वह तेरा मानता है, वह अनासक्त नहीं हो सकता।

एक व्यक्ति द्वारा दूसरे व्यक्ति का धर्म परिवर्तन करने को मैं उचित नहीं मानता। मेरी कोशिश किसी दूसरे के धार्मिक विश्वास को हिलाने की या उनकी नींव खोदने की नहीं, बल्कि उसे अपने धर्म का एक अच्छा अनुयायी बनाने की होनी चाहिए। इसका तात्पर्य है सभी धर्मों की सच्चाई में विश्वास और इस कारण उन सबके प्रति आदरभाव का होना। इसका यह बी मतलब है कि हममें सच्ची विनयशीलता होनी चाहिए, इस तथ्य की ल्वीकृति होनी चाहिए कि चूँकि सभी धर्मों को हाड़-माँस के अपूर्ण माध्यम से दिव्य-ज्ञान प्राप्त हुआ है, इसलिए सभी धर्मों में कम या ज़्यादा मात्रा में मानवीय अपूर्णताएँ मौजूद हैं।

धर्म कुछ संकुचित संप्रदाय नहीं है, केवल बाह्याचार नहीं है। विशाल, व्यापक धर्म है ईश्वरत्व के विषय में हमारी अचल श्रद्धा, पुनर्जन्म में अविरल श्रद्धा, सत्य और अहिंसा में हमारी संपूर्ण श्रद्धा।

मैं समझा दूँ कि धर्म से मेरा क्या मतलब है। मेरा मतलब हिंदू धर्म से नहीं है जिसकी मैं बेशक और सब धर्म से ज़्यादा क़ीमत आँकता हूँ। मेरा मतलब उस मूल धर्म से है जो हिंदू धर्म से कहीं कहीं उच्चतर है, जो मनुष्य के स्वभाव तक का परिवर्तन कर देता है, जो हमें अंतर के सत्य से अटूट रूप से बाँध देता है और जो निरंतर अधिक शुद्ध और पवित्र बनाता रहता है। वह मनुष्य की प्रकृति का ऐसा स्थायी तत्त्व है जो अपनी संपूर्ण अभिव्यक्ति के लिए कोई भी क़ीमत चुकाने को तैयार रहता है और उसे तब तक बिल्कुल बेचैन बनाए रखता है जब तक उसे अपने स्वरूप का ज्ञान नहीं हो जाता, अपने स्त्रष्टा के और अपने बीच का सच्चा संबंध समझ में नहीं जाता।

मैं सब धर्मो को सच मानता हूँ। मगर ऐसा एक भी धर्म नहीं है जो संपूर्णता का दावा कर सके। क्योंकि धर्म तो हमें मनुष्य जैसी अपूर्ण सत्ता द्वारा मिलता है, अकेला ईश्वर ही संपूर्ण है। अतएव हिंदू होने के कारण अपने लिए हिंदू धर्म को सर्वश्रेष्ठ मानते हुए भी मैं यह नहीं कह सकता कि हिंदू धर्म सबके लिए सर्वश्रेष्ठ है; और इस बात को तो स्वप्न में भी आशा नहीं रखता कि सारी दुनिया हिंदू धर्म को अपनाए। आपकी भी यदि अपने ग़ैर-ईसाई भाइयों की सेवा करनी है तो आप उनकी सेवा करनी है तो आप उनकी सेवा उन्हें ईसाई बनाकर नहीं, बल्कि उनके धर्म की त्रुटियों को दूर करने में और उसे शुद्ध बनाने में उनकी सहायता करके भी कर सकते हैं।

देश-प्रेम हो और भाषा-प्रेम की चिंता हो, यह असंभव है।

जिस देश में आपने जन्म लिया है, उसके प्रति कर्त्तव्य पालन करने से बढ़कर संसार में कोई दूसरा काम है ही नहीं।

स्त्री तो एक मूर्तिमान बलिदान है। वह जब सच्ची भावना से किसी काम का बीड़ा उठाती है तो पहाड़ों को भी हिला देती है।

अफ़वाह सुनना नहीं, सुनना तो मानना नहीं।

स्त्री अहिंसा की मूर्ति है। अहिंसा का अर्थ है अनंत प्रेम और उसका अर्थ है कष्ट सहने की अनंत शक्ति।

आज के ज़माने में ऐसा होता है कि बहुत सी बातें क़ानून के अनुकूल होने पर भी न्यायबुद्धि के प्रतिकूल होती हैं। इसलिए न्याय के रास्ते धन कमाना ही ठीक हो, तो मनुष्य का सबसे पहला काम न्याय-बुद्धि को सीखना है।

हर व्यक्ति को जो चीज़ हृदयंगम हो गई है, वह उसके लिए धर्म है। धर्म बुद्धिगम्य वस्तु नहीं, हृदयगम्य है। इस लिए धर्म मूर्ख लोगों के लिए भी है।

धर्म परिवर्तन करने के बारे में मैं यह नहीं कहना चाहता कि यह कभी उचित हो ही नहीं सकता। हमें दूसरों को अपना धर्म बदलने के लिए निमंत्रण नहीं देना चाहिए। मेरा धर्म सच्चा है और दूसरे सब धर्म झूठे हैं, इस तरह की जो मान्यता इन निमंत्रणों के पीछे रहती है, उसे मैं दोषपूर्ण मानता हूँ। लेकिन जहाँ ज़बरदस्ती से या ग़लतफ़हमी से किसी ने अपना धर्म छोड़ दिया हो, वहाँ उस में जाने में बाधा नहीं होनी चाहिए। इतना ही नहीं उसे प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए। इसे धर्म-परिवर्तन नहीं कहा जा सकता।

सती स्त्रियों, अपने दुःख को तुम संभाल कर रखना। वह दुःख नहीं, सुख है। तुम्हारा नाम लेकर बहुतेरे पार उतर गए हैं और उतरेंगे।

हमें अंग्रेज़ी की आवश्यकता है, किंतु अपनी भाषा का नाश करने के लिए नहीं।

सीता जैसी पत्नीत्व का आदर्श है, वैसे ही वह कौमार्य का भी आदर्श है। पर मेरा आदर्श तो है कि स्त्रियाँ विवाहित होते हुए भी कुमारिका का जीवन बिताएँ। सीता और पार्वती आदि इन दोनों आदर्शों तक पहुँच चुकी थीं।

सब धर्म ईश्वर की देन हैं, परंतु उनमें मानव की अपूर्णता की पुट है, क्योंकि वे मनुष्य की बुद्धि और भाषा के माध्यम से गुज़रते हैं।

अपने दोष हम देखना नहीं चाहते हैं, दूसरों के देखने में हमें मज़ा आता है। बहुत दुःख तो इसी आदत में से पैदा होता है।

तुम्हारी जेब में एक पैसा है, वह कहाँ से और कैसे आया है, वह अपने से पूछो। उस कहानी से बहुत सीखोगे।

धर्म का पालन ज़ोर ज़बरदस्ती से नहीं हो सकता धर्म का पालन करने के लिए मरना होगा। संसार में ऐसा कोई धर्म पैदा नहीं हुआ, जिसमें मरना पड़ा हो। मरने का रहस्य सीखने के बाद ही धर्म में ताक़त पैदा होती है धर्म के वृक्ष को मरने वाले ही सींचते हैं।

भविष्य परमेश्वर के हाथ में है, सरकार के हाथ में नहीं है।

आजकल और बातों की तरह धर्म-परिवर्तन ने भी व्यापार का रूप ले लिया हैं।

जाति का धर्म से कोई संबंध नहीं है।

मुझे अपना धर्म झूठा लगे तो मुझे उसका त्याग कर चाहिए। दूसरे धर्म में जो कुछ अच्छा लगे, उसे मैं अपने धर्म में ले सकता हूँ लेना चाहिए। मेरा धर्म अपूर्ण लगे तो उसे पूर्ण बनाना मेरा फ़र्ज़ है। उसमें दोष दिखाई दें तो उन्हें दूर करना भी फ़र्ज़ है।

यह याद रखना चाहिए कि व्यभिचारी पुरुष हमेशा कायर होता है। वह पवित्र स्त्री का तेज़ सह नहीं सकता। उसके गरजने से वह काँपने लगता है।

धार्मिक और आध्यात्मिक जीवन की सुगंध गुलाब के फूल से अधिक मधुर और सूक्ष्म होती है।

धर्म की शिक्षा लौकिक विषयों की तरह नहीं दी जाती, हृदय की भाषा में दी जाती है।

प्रथम हृदय है, और फिर बुद्धि। प्रथम सिद्धांत और फिर प्रमाण। प्रथम स्फुरणा और फिर उसके अनुकूल तर्क। प्रथम कर्म और फिर बुद्धि। इसीलिए बुद्धि कर्मानुसारिणी कही गई है। मनुष्य जो भी करता है, या करना चाहता है उसका समर्थन करने के लिए प्रमाण भी ढूँढ़ निकालता है।

डरने वाला व्यक्ति स्वयं ही डरता है, उसको कोई डराता नहीं है।

यदि एक आदमी को अध्यात्मिक लाभ होता है तो उसके साथ-साथ सारी दुनिया को भी होता है; और अगर एक मनुष्य गिरता है तो उस हद तक समस्त जग का पतन होता है।

धर्महीन जीवन का दूसरा नाम सिद्धांतहीन जीवन है, और बिना सिद्धांत का जीवन बिना पतवार की नौका के समान है।

मनुष्य जब एक नियम तोड़ता है तो दूसरे अपने आप टूट जाते हैं।

सब धर्म ईश्वरदत्त हैं, पर मनुष्य कल्पित होने के कारण, मनुष्य के द्वारा उनका प्रचार होने के कारण वे अपूर्ण हैं। ईश्वरदत्त धर्म अगम्य है। उसे भाषा में मनुष्य प्रकट करता है, उसका अर्थ भी मनुष्य लगाता है। धर्म का मूल एक है, जैसे वृक्ष का, पर उसके पत्ते असंख्य है।

मैं ऐसे किसी समय की कल्पना नहीं कर सकता जब पृथ्वी पर व्यवहार में एक ही धर्म होगा।

मैं देश-प्रेम को अपने धर्म का ही एक हिस्सा समझता हूँ। उसमें सारा धर्म नहीं आता, यह बात सही है। लेकिन देशप्रेम के बिना धर्म का पालन पूरा हुआ कहा नहीं जा सकता।

आदमी को अपने को धोखा देने की शक्ति इतनी है कि वह दूसरों को धोखा देने की शक्ति से बहुत अधिक है। इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण हरेक समझदार आदमी है।

हिंदू धर्म के नाम से प्रचलित ग्रंथों में जो कुछ लिखा गया है वह सबके सब धर्मवचन हैं, ऐसा नहीं है, और हिंदू जनता को यह अब मानना चाहिए, ऐसा भी नहीं है।

जो कमज़ोर होता है वही सदा रोष करता है और द्वेष करता है। हाथी चींटी से द्वेष नहीं करता। चींटी, चींटी से द्वेष करती है।

वास्तव में जितने मनुष्य हैं, उतने ही धर्म हैं।

जनता को यह सिखाना कि वह किसी भी क़ीमत पर धनवान बने, उसे विपरीत बुद्धि सिखाने जैसा है।

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शुद्ध धर्म अचल है, रूढ़ि धर्म समयानुसार बदला जा सकता है।

दूसरों के दोष ही देखना, अपने गुणों को दखने से भी नीच है।

मज़हब भाषा और लिपि की सीमा से बाहर है।

व्यवहार में जो काम दे, वह धर्म कैसे हो सकता है

ईश्वर का सबसे अच्छा नाम दरिद्रनारायण है।

मैं यह नहीं मानता कि धर्म का राजनीति से कोई वास्ता नहीं है। धर्मरहित राजनीति शव के समान है, जिसे दफ़ना देना ही उचित है।

हृदय में देवासुर संग्राम चलता ही रहता है। कब असुर भरमाता है और कब देव रास्ता बताता है, यह सदा नहीं जान सकते। इसलिए धर्म सिखाता है कि जो को जगाना चाहता है उसे यम नियमादि रूपी तलवार धार पर चलना पड़ेगा।

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