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वॉन गॉग ने कहा था : जानवरों का जीवन ही मेरा जीवन है

प्रिय भाई,

मुझे एहसास है कि माता-पिता स्वाभाविक रूप से (सोच-समझकर न सही) मेरे बारे में क्या सोचते हैं। वे मुझे घर में रखने से भी झिझकते हैं, जैसे कि मैं कोई बेढब कुत्ता हूँ; जो उनके घर में गंदे पंजों को लिए थरथराता चला आता है, जो सबके रास्ते में अड़ता है, जो सब पर भौंकता है। सीधे-सीधे कहूँ तो एक जंगली जानवर।

बेहतर! पर यह जंगली जानवर एक इंसान भी है। यह भले ही कुत्ता हो, पर इसके पास एक इंसानी दिल भी है और उससे भी ज़्यादा नाज़ुक बात यह कि इसे एहसास हो जाता है कि लोग इसके बारे में क्या सोचते हैं—जो एक आम कुत्ते को नहीं होता। मैं यह मानकर कि मैं एक तरह का कुत्ता हूँ, उन्हें—जैसे वे हैं वैसे ही—स्वीकार करता हूँ।

विन्सेंट वॉन गॉग, अपने भाई थियो वॉन गॉग को लिखे एक ख़त में, 346 (डी), 15 दिसंबर 1883

मैं कुत्तों को न तो पसंद करता हूँ, न नापसंद। उनसे एक दूरी बनाकर रखता हूँ। वे भी अपने इर्द-गिर्द एक घेरा बनाकर चलते हैं। उनको देख लेता हूँ—क्या कर रहे हैं! कैसे कर रहे हैं! कभी-कभार। भई! तुम अपनी दुनिया में ख़ुश रहो, मुझे अपनी में रहने दो।

अपनी दुनिया में ख़ुश रहते हुए, मैंने परसों एक दोस्त से सुना कि हम (इंसान) पहले से अधिक सभ्य हो गए हैं और लगातार हो रहे हैं। मैंने उससे कहा, “ओ अच्छा! ऐसा है?” और सोचा कि दोस्त! तुम भी अपनी सभ्य दुनिया में ख़ुश रहो।

पर बात यह कि ‘बस’ इंसान सभ्य हो रहे हैं। धरती या धरती के अन्य जीव नहीं! और इस तथाकथित सभ्य होने के क्रम में हमारे आड़े जो आ रहा है, उसे हम एक तरफ़ करते जा रहे हैं। मुझे सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले पर ज़रा-सी भी हैरानी नहीं हुई। यह तथाकथित सभ्य समाज के सभ्य होने का क्रम है। 

वॉन गॉग मुझे पसंद हैं (क्योंकि इन्हीं के बारे में मैं थोड़ा बहुत जानता हूँ)। उनके भाई अपने समाज के सभ्य और सफल शख़्स थे। उनका सारा ख़र्च भी उठाते थे और गॉग बस पेंटिंग बनाते रहते। कभी इधर बसेरा, कभी उधर। जब उन्होंने ऊपर दिया गया पत्र लिखा, वह नुएनेन में अपने माता-पिता के पास कुछ समय के लिए रहने गए थे। वॉन गॉग के पिता उन्हें कोई ख़ास पसंद नहीं करते थे। उनके पिता भी एक सभ्य समाज के सभ्य आदमी थे, जबकि यह लड़का हर रोज़ पीठ पर अपना सामान टाँगकर जाने किधर निकल जाता था। कमाता-धमाता कुछ न था। पहले पिता और दादा की तरह चर्च के काम में लगना चाहता, मगर फिर वह सब भी छोड़ दिया।

इस पत्र में वॉन गॉग अपने को कुत्ता बताते हैं। कहते हैं कि मैं वो कुत्ता—जो भौंकता है, काटता है। आगे कहते हैं कि इस कुत्ते से माता-पिता के घर में आने की ग़लती हुई है। उम्मीद है कि वे इसे भुला देंगे और यह कुत्ता दुबारा ऐसी ग़लती नहीं करेगा।

बात यहीं नहीं रुकती। सभ्य इंसान होता तो शायद रुक जाती है, मगर अगले पत्र का एक हिस्सा पढ़िए :

इन दिनों मैं उनकी बातों के बारे में बहुत सोचता हूँ। मैंने पाया है कि मैं एक कुत्ता हूँ। शायद थोड़ा बढ़ा-चढ़ाकर बोल रहा हूँ। शायद हक़ीक़त उतनी सीधी-सपाट न हो। कम नाटकीय और थोड़ी अलग हो। पर मुझे यक़ीन है कि मोटा-माटी तौर पर मेरा किरदार और चाल-चलन वैसा ही है।

कल के पत्र में जिस झबरू शीपडॉग के बारे में मैंने बताने की कोशिश की थी, वह मेरा ही किरदार है और अगर कोई सीधी-सरल-सी बात कहे तो जानवरों का जीवन ही मेरा जीवन है। हो सकता है कि यह तुमको बढ़ी-चढ़ी बात लगे, पर मैं इस पर क़ायम रहूँगा।

व्यक्तित्व को अलग रखकर, मान लो मैं किन्हीं अनजान लोगों की बात कर रहा हूँ—तुम्हारी, मेरी और पिताजी की नहीं, बस देखने समझने भर के लिए। आँखें बंद करके पिछली गर्मियों को याद करो। मैं दो भाइयों को हेग शहर में चलते हुए देख सकता हूँ। (इन्हें अनजान मानने। मैं, तुम या पिताजी कोई नहीं था वहाँ।)

उनमें से एक कहता है—“मैं रोज़-ब-रोज़ पिताजी के जैसा होता जा रहा हूँ—मुझे समाज में अपनी एक पहचान, एक तरह का दबदबा (जो तुम्हारे और पिताजी के मामले में साफ़ नज़र आता है) क़ायम रखना पड़ता है। मुझे इस काम में लगे रहना पड़ता है। मुझे नहीं लगता कि मैं पेंटर बन पाऊँगा।

और दूसरा कहता है—“मैं रोज़-ब-रोज़ पिताजी से बिल्कुल अलग होता जा रहा हूँ। एक कुत्ते में तब्दील हो रहा हूँ। मुझे तो अब ऐसे लगने लगा है कि भविष्य मुझे और अधिक भौंडा और भद्दा बना देगा। ग़रीबी ही मेरे हिस्से आएगी, लेकिन जो भी हो, कुत्ता रहूँ या आदमी, मैं एक पेंटर ही बनूँगा। सीधे-सीधे कहूँ तो एक भावनाओं से भरा आदमी।”

[347 (डी), 17 दिसंबर 1882]

वॉन गॉग की माने तो वह एक कलाकार थे—एक कलाकार, एक कुत्ता। कुत्ता वह भी गली का। तथाकथित असभ्य। भौंकने वाला—वह अलग बात कि गली के कुत्तों के भौंकने से ज़्यादा लोगों पर असर नहीं पड़ता। उन्हें बस वह कुत्ता बुरे लगने लगता है, काटने वाला और गंदा।

हालाँकि सारे कलाकार गली के कुत्ते नहीं होते। कुछ पालतू भी होते हैं। उनके मालिक उनकी बातें भी सुनते हैं। उन्हें अच्छा खाना मिलता है। वे साफ़-सुथरे रहते हैं। पर वे कितने कुत्ते (कलाकार) रह जाते हैं, इस पर आप ख़ुद सोच लीजिए।

भई! अब किसी दिन सरकार या कोर्ट, कलाकारों को हटवाकर कहीं अलग-थलग दुनिया में फेंक दे तो मुझे कोई आश्चर्य नहीं होगा। यह सभ्य होने का क्रम है। 

ख़ैर! मैं अपने उस दोस्त के रूम से अपने रूम पर आ ही रहा था कि मुझे नाली में बैठा एक कुत्ता दिख गया और आपको विश्वास करना ही पड़ेगा, मैं आजकल बहुत बातें भूल जाता हूँ, कविताएँ तो वैसे भी कभी याद नहीं रहती, पर उस समय जाने कहाँ से एक पंक्ति आ टपकी बूँद की तरह : 

न आराम शब को न राहत सवेरे 
ग़लाज़त में घर नालियों में बसेरे

फ़ैज़ साहब की ‘कुत्ते’ नज़्म। रूम पर आते ही एक बार फिर से पूरी पढ़ी और अपनी सीमित समझ में मुझे यही समझ आया कि नज़्म कुत्तों पर है और कुत्तों की जगह हम मज़दूरों, ग़रीबों और पीड़ितों को भी रख सकते हैं। 

नज़्म के दो मिसरे :

मज़लूम मख़्लूक़ गर सर उठाए
तो इंसान सब सर-कशी भूल जाए

इंसान शब्द पर ग़ौर कीजिए जो कि कुत्ते, मज़दूर, ग़रीब और पीड़ित नहीं हैं। ये लोग न इंसान है, न सभ्य। एक वक़्त आएगा, जब तथाकथित इंसान सब कामों के लिए मशीनें बना लेंगे और तब ऐसे लोगों की ज़रूरत ख़त्म हो जाएगी। फ़ालतू नज़र आएँगे। तब हो सकता है कि इंसान और सभ्य बनने के लिए इन सबको भी हटा दे। सड़कों के किनारों, फ़ुटपाथों पर न कुत्ते नज़र आएँगे, न भिखारी, न मज़दूर-मख़्लूक़। क्योंकि सभ्य इंसानों के सौदर्यबोध में ये चीज़ें फिट नहीं होंगी।

मुझे तो उस दिन भी कोई आश्चर्य न होगा। 

ख़ैर! मुझे क्या। मुझे तो ख़ुश रहना है और मुझे ख़ुशी मिलती है कला और कलाकारों में। पर यहाँ बात कुत्तों के आस-पास भी घूमनी चाहिए। जैसे कुत्ते घूमते हैं हमारे आस-पास, ठीक वैसे ही। 

कुछ-कुछ ध्यान है कि किसी कहानी के अंत में एक कुत्ता मर जाता है। 

‘पूस की रात’—अतिप्रसिद्ध कहानी। उसमें एक जबरा नाम का कुत्ता होता है, जो कहानी के अंत में ठंड के कारण शायद या लगभग मर जाता है।

कुत्ता तो मंटो की कहानी ‘टैटवाल का कुत्ता’ में भी मर जाता है। इधर से गोली—धायँ! उधर से गोली—धायँ! और आख़िरी पंक्ति कि वही मौत मरा जो कुत्ते की होती है!

कुत्ते मंटो की दूसरी कहानियों में थरथराते हुए चले आते हैं—मसलन ‘हतक’ कहानी में सौगंधी जब लुच्चे मर्द की नीचता से तंग आकर, उसे धुतकार कर भगा देती है, तो एक छोटा कुत्ता सौगंधी के पास बैठा रहता है। वह उसे गोद में लिटाकर सो जाती है। प्यारे-गंदे मंटो भी क्या असभ्य आदमी थे! गंदी गलियों में फिरते, गंदे कुत्तों को देखते। याद आता है कि उन पर भी किसी कोर्ट में केस चला था। वाह!

अपनी बात को एक दो बात बताकर ख़त्म करता हूँ। भई! लंबा लिखने से डर लगता है। कोई न पढ़े तो! घटियापन आ जाए तो!

एडवर्ड मंच एक अच्छे पेंटर तो थी ही, थोड़े से कुत्ता-प्रेमी भी थे। उनका एक छोटा प्यारा कुत्ता था, जिसकी उन्होंने तस्वीरें भी बनाई—Fips. पर क़िस्सा उनके कुत्ते प्रेम का नहीं झगड़े का है। एकेली में जहाँ वह 1916 से रहने लगे थे, वहाँ उनके एक पड़ोसी के पास एक कुत्ता था—रोले नाम का। उसने मंच और वहाँ आने वाले एक दूधिया को काट लिया था। मंच को लगता कि वह बहुत ख़तरनाक कुत्ता है। वह पड़ोसी के घर के आगे से गुज़रने में भी घबराते। जब बात ज़्यादा बढ़ गई तो मंच ने पड़ोसी पर पुलिस केस कर दिया। पुलिस केस लंबा खिंचा। पड़ोसी अपने कुत्ते पर प्रतिबंध लगाता, मगर मंच को लगता कि अब भी कुत्ता उन्हें परेशान करता है। मंच इतने परेशान हो गए थे कि उन्होंने एक ख़त में उस घर को छोड़ने की बात तक कह दी थी। उन्होंने उस कुत्ते के कई लिथोग्राफ़ भी बनाए, जो बाद में प्रदर्शित किए गए।

...और भी बहुत से कलाकार कुत्तों के शौक़ीन रहे हैं। पाब्लो पिकासो, वर्जीनिया वुल्फ़, मैरी ओलिवर... इन सबके पास कुत्ते थे और भी होंगे जिनके बारे में मुझे या औरों को भी कुछ अता-पता नहीं।

आख़िरी बात यह कि कलाकारों और कुत्तों के आस-पास घूमते समय मैं डेविड हॉकली तक जा पहुँचा। मुझे कला की इतनी समझ नहीं है, पर इस वक़्त कला को आत्मपरक कहकर कहना चाहूँगा कि उनकी पेंटिंग्स देखकर मुझे गुदगुदी हो रही है। मैं उछल रहा हूँ। जी कर रहा है कि उस पेंटिंग के भीतर घुस जाऊँ और मेरी ख़ुशी यह जानकर और बढ़ गई कि वह अभी तक ज़िंदा है। मिलने का सवाल तो नहीं उठता पर इस बात पर ख़ुश तो हो ही सकता हूँ कि वह ज़िंदा है। जब तक हैं शायद क्या पता देख लूँ, मिल लूँ उनसे!

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