तिरुवल्लुवर के उद्धरण

शत्रु में दोष देखकर बुद्धिमान झट वहीं क्रोध को व्यक्त नहीं करते हैं, अपितु समय को देखकर उस ज्वाला को मन में ही समाए रखते हैं।
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आतिथ्य का निर्वाह न करने की मूढ़ता ही धनी की दरिद्रता है। यह बुद्धिहीनों में ही होती है।

मुँह टेढ़ा करके देखने मात्र से अतिथि का आनंद उड़ जाता है।

अनेक विद्याओं का अध्ययन करके भी जो समाज के साथ मिलकर आचरणयुक्त जीवन व्यतीत करना नहीं जानते, वे अज्ञानी ही समझे जाएँगे।
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संबंधित विषय : अज्ञान
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नेत्रों से प्रेम-रोग को अभिव्यक्त करके (पृथक न होने की) याचना करने में स्त्री का स्त्रीत्व-विशेष माना जाता है। ढिढोरा पीटने वाले मेरे जैसे नेत्र जिनके हों, उनके हृदय की गुप्त बातों को समझना दूसरों के लिए कठिन नहीं है।

श्रेष्ठ व्यक्ति का सम्मान करके उन्हें अपना बना लेना दुर्लभ पदार्थों से भी अधिक दुर्लभ है।
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घर की दीवारों में स्त्री को मर्यादित रखना किस काम का? वास्तविक मर्यादा तो उसका सतीत्व ही है।


स्नेह से उत्पन्न दया नामक शिशु, धन नामक धाय से पोषित होता है।
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संबंधित विषय : बचपन
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दूसरों के दोषों के समान अपना दोष देखने लगे तो जीवमात्र को कोई दुःख कभी नहीं हो सकता।
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संबंधित विषय : दुख
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नम्र व्यवहार सबके लिए अच्छा है, पर उस में भी धनवानों के लिए तो अमूल्य धन के समान होता है।
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ईर्ष्या, लोभ, क्रोध एवं कठोर वचन—इन चार सदा बचते रहना ही वस्तुतः धर्म है।

अभावों में अभाव है बुद्धि का अभाव। दूसरे अभावों को संसार अभाव नहीं मानता।
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नम्रता एवं मधुर वचन ही मनुष्य के आभूषण हैं।अन्य वस्तुतः आभूषण नहीं हैं।
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संबंधित विषय : मनुष्य
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जो देता है और भोगता नहीं है, उसके पास करोड़ों क्यों न संग्रहीत हों, सब व्यर्थ ही है।
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जो स्वयं भी न भोगे और उपयुक्त व्यक्ति को भी कुछ न दे, वह विशाल संपत्ति के लिए एक व्याधि है।
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दूसरों के दोषों का ही जो बखान करता है, उसके दोषों की आलोचना दूसरे करेंगे, और वह निंदित होगा।
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संबंधित विषय : निंदा
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धन में अस्थिरता का स्वभाव होता है। वह प्राप्त हो तो तुरंत स्थिर धर्मों को संपन्न करना चाहिए।
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रोगों के आगार शरीर में किरायेदार के समान उपस्थित प्राण के लिए, मानो अभी तक कोई शाश्वत स्थान ही प्राप्त नहीं हुआ।
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धन अधिक होने पर नम्रता धारण करो, वह ज़रा कम पड़ने पर अपना सिर ऊँचा बनाए रखो।
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संबंधित विषय : धन
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न तो धर्म से श्रेष्ठ कोई वस्तु है, और न उसका विस्मरण जैसा कोई पतन।
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संबंधित विषय : धर्म
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घर व गृहस्थी का मूल उद्देश्य ही आतिथ्य व परोपकार है।

लिखते समय नेत्र लेखनी को जैसे नहीं देखते, वैसे ही प्रियतम को देखते ही उनके दोष में नहीं देखती।
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संबंधित विषय : आँख
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इच्छा रखनी ही है तो पुनः जन्म न लेने की इच्छा रखनी चाहिए।

वे ही संसार सागर से तरेंगे जो ईश्वर के श्री चरणों में स्थिर रहेंगे, अन्यथा तरना असंभव ही है।

प्रियतम न आवे तो निद्रा नहीं आती, और अगर आ भी जाए तब भी नहीं आती। इनके मध्य में मेरे ये नेत्र असह्य दुःख से पीड़ित हैं।
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अपने माँस की वृद्धि के लिए दूसरे प्राणी के शरीर का भक्षण करने वाला दयावान कैसे हो सकता है?

संसार का अस्तित्व वर्षा पर आधारित होने के कारण वही संसार की सुधा कहलाने योग्य है।

पिता के प्रति पुत्र का प्रत्युपकार लोगों से यह कहलाना ही है कि न मालूम इसके पिता ने ऐसे पुत्र की प्राप्ति के लिए कैसा तप किया।
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दरिद्रों में दरिद्र वह है जो अतिथि का सत्कार न करे।
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संबंधित विषय : अतिथि
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उनको देखते समय उनके दोष नहीं दिखते, और उनको देखते समय उनके निर्दोष व्यवहार नहीं दिखते।
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चाहे सूखी रोटी ही क्यों न हो; परिश्रम के स्वार्जित भोजन से मधुर और कुछ नहीं होता।
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संबंधित विषय : संघर्ष
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उस अनुपम परम पुरुष के पदों में पहुँचे बिना मन की चिंता कभी नहीं मिट सकती।
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पुष्प से भी मृदुल होता है प्रेम। बिरले ही उसकी वास्तविकता को समझकर उससे लाभांवित होते हैं।
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संबंधित विषय : प्रेम
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जीवमात्र के लिए उपयुक्त भोजपदार्थों की सृष्टि करके वर्षा स्वयं भी उनके लिए भोजन बन जाती है।
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दयार्द्रता से रहित नेत्र वस्तुतः नेत्र कैसे हो सकते हैं।
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संबंधित विषय : आँख
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सदाचरण, सहयोग, एवं सनिश्चय—इन तीनों गुणों में सिद्ध होना दूत के लिए आवश्यक है।
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कर्म की दृढ़ता वस्तुतः व्यक्ति की मानसिक दृढ़ता ही है। शेष सब पृथक ही ठहरते हैं।
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वंचना से धन का संग्रह कर उसकी रक्षा करना, कच्चे घड़े में जल भर कर उसकी रक्षा करने के समान होता है।
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दीर्घसूत्रता, विस्मरण, आलस्य व निद्रा—ये चारों विनाशोन्मुख व्यक्ति की प्रिय नावें हैं।
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संबंधित विषय : व्यक्ति
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दरिद्रता के दुःख को याचना से दूर करने के अज्ञान से बढ़कर अज्ञान और कोई नहीं है।

यदि पूछा जाए कि दरिद्रता के समान दुखद वस्तु क्या है तो कहना होगा कि दरिद्रता के समान दुखद वस्तु दरिद्रता ही है।
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