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हजारीप्रसाद द्विवेदी

1907 - 1979 | बलिया, उत्तर प्रदेश

समादृत समालोचक, निबंधकार, उपन्यासकार और साहित्य-इतिहासकार। साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित।

समादृत समालोचक, निबंधकार, उपन्यासकार और साहित्य-इतिहासकार। साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित।

हजारीप्रसाद द्विवेदी के उद्धरण

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ब्रह्मांड कितना बड़ा है, यह बड़ा सवाल नहीं है, मनुष्य की बुद्धि कितनी बड़ी है, यही बड़ा सवाल है।

रूप व्यक्ति-सत्य है, नाम समाज सत्य।

स्त्री के दुःख इतने गंभीर होते हैं कि उसके शब्द उसका दशमांश भी नहीं कह सकते।

दीपावली प्रकाश का पर्व है। इस दिन जिस लक्ष्मी की पूजा होती है। वह गरुड़वाहिनी है— शक्ति, सेवा और गतिशीलत उसके मुख्य गुण हैं।

नारी की सफलता पुरुष को बाँधने में है, सार्थकता उसे मुक्ति देने में।

दीपावली का पर्व आद्या शक्ति के विभिन्न रूपों के स्मरण का दिन है।

पुरुष स्त्री को शक्ति समझकर ही पूर्ण हो सकता है; पर स्त्री स्त्री की शक्ति समझकर अधूरी रह जाती है।

वस्तुतः कल्मष भी मनुष्य का अपना सत्य है। उसे स्वीकार करके ही वह सार्थक हो सकता है। दबाने से वह मनुष्य को नष्ट कर देता है।

भगवती महामाया का निद्रा-रूप बड़ा शामक होता है। वह शरीर और मन की थकान पर सुधालेप करता है। वह जीवनी शक्ति को सहलावा देता है और प्राणों को नए सिरे से ताज़गी देता है।

जहाँ कहीं अपने आपको उत्सर्ग करने की, अपने आपको खपा देने की भावना प्रधान है, वहीं नारी है। जहाँ कहीं दुःख-सुख की लाख-लाख धाराओं में अपने को दलित द्राक्षा के समान निचोड़ कर दूसरे को तृप्त करने की भावना प्रबल है, वहीं 'नारीतत्त्व' है या शास्त्रीय भाषा में कहना हो, तो 'शक्तित्त्व' है। नारी निषेध-रूपा है। वह आनंद भोग के लिए नहीं आती, आनंद लुटाने के लिए आती है।

दीनता उस मानसिक दुर्बलता को कहते हैं जो मनुष्य को दूसरे की दया पर जीने का प्रलोभन देती है।

जितने बँधे-बँधाए नियम और आचार हैं उनमें धर्म के अटता नहीं।

शायद दुनिया भर के लोगों की कमज़ोरी का पता लगाने की अपेक्षा अपनी कमज़ोरी का पता लगा लेना ज़्यादा विश्वसनीय होता है।

मेरा मन कहता है इन धार्मिक संघटनों में और कुछ चाहे हो, धर्म नहीं है। धर्म मुक्तिदाता है। धार्मिक संगठन बंधन है। धर्म प्रेरणा है, धार्मिक संगठन गतिरोध है। धर्म कोई संस्था नहीं है, वह मानवात्मा की पुकार है।

स्त्रियों की शील-रक्षा का भार पुरुषों पर है।

देवता बड़ा होता है, छोटा, शक्तिशाली होता है, अशक्त। वह उतना ही बड़ा होता है जितना बड़ा उसे उपासक बनाना चाहता है।

धोखा देने वाला धोखा खाता है, प्रवंचना का परिणाम हार होता है, दूसरों के रास्ते में गड्ढा खोदने वाले को कुआँ तैयार मिलता है।

लज्जा प्रकाश ग्रहण करने में नहीं होती, अंधानुकरण में होती है। अविवेकपूर्ण ढंग से जो भी सामने पड़ गया उसे सिर-माथे चढ़ा लेना, अंध-भाव से अनुकरण करना, जातिगत हीनता का परिणाम है। जहाँ मनुष्य विवेक को ताक़ पर रखकर सब कुछ ही अंध भाव से नकल करता है, वहाँ उसका मानसिक दैन्य और सांस्कृतिक दारिद्रय प्रकट होता है, किंतु जहाँ वह सोच-समझकर ग्रहण करता है और अपनी त्रुटियों को कम करने का प्रयत्न करता है, वहाँ वह अपने जीवंत स्वभाव का परिचय देता है।

कार्य-क्षेत्र में स्वार्थों की संघर्षस्थली में महान् आदर्शों की रक्षा करना कठिन काम है।

वह लोक कितना नीरस और भोंडा होता होगा जहाँ विरह वेदना के आँसू निकलते ही नहीं और प्रिय-वियोग की कल्पना से जहाँ हृदय में ऐसी टीस पैदा ही नहीं होती, जिसे शब्दों में व्यक्त किया जा सके।

जो वास्तव है उसे दबाना, जो अवास्तव है उसका आचरण करना- यही तो अभिनय है।

निर्णायक को पाँच दोषों से बचना चाहिए—राग, लोभ, भय, द्वेष और एकांत में वादियों की बातें सुनना।

तुम झूठ से शायद घृणा करते हो, मैं भी करता हूँ; परंतु जो समाजव्यवस्था झूठ को प्रश्रय देने के लिए ही तैयार की गई हैं, उसे मानकर अगर कोई कल्याण-कार्य करना चाहो, तो तुम्हें झूठ का ही आश्रय लेना पड़ेगा।

अजनबीपन प्रेम के अभाव का द्योतक है; संन्यास भविष्य की उज्ज्वलता के विषय में निराशा का परिणाम है। और अनास्था समाज के प्रतिष्ठित कहे जाने वाले लोगों के आचरणों के भोग-परायण होने का फल है। इसमें आशा का केवल एक ही स्थान है—वह है साधारण जनता का स्वस्थ मनोबल।

जो आदमी दूसरों के भावों का आदर करना नहीं जानता, उसे दूसरे से भी सद्भावना की आशा नहीं करनी चाहिए।

अन्याय करके पछताने की आदत बुरी नहीं है।

कोई भीतरी महान् वस्तु ऐसी अवश्य है जिसके होने से मनुष्य को जितेंद्रियता प्राप्त होती है या प्राप्त करने की इच्छा होती है।

नए युग को अत्यंत संक्षेप में बताना हो तो कहेंगे यह युग मानवता का युग है।

पार्वती और गंगा हमारे अस्तित्व का ही मेरुदंड है। हमारे भीतर और बाहर जो कुछ उत्तम है, जो कुछ सुंदर है, जो कुछ पवित्र है, उसको प्रतीक रूप में पार्वती और गंगा व्यक्त करती हैं।

छोटेपन में अहंकार का दर्प इतना प्रचंड होता है कि वह अपने को ही खंडित करता रहता है।

वस्तुतः जिनके भीतर आचरण की दृढ़ता रहती है, वे हो विचार में निर्भीक और स्पष्ट हुआ करते हैं।

आंतरिक प्रवृत्तियों का मंगलमय सामंजस्य बाहर मनोरथ-सौंदर्य के रूप में प्रकट होता है।

आँसू में जीवन तरंगित होता रहता है।

काम-क्रोध आदि मनःशक्तियाँ जिन्हें 'शत्रु' कहा जाता है, सुनियन्त्रित होकर परम सहायक मित्र बन जाती हैं।

वह लोक कितना नीरस और भोंडा होता होगा जहाँ विरह-वेदना के आँसू निकलते ही नहीं और प्रिय-वियोग की कल्पना से जहाँ ह्रदय में ऐसी टीस पैदा ही नहीं होती, जिसे शब्दों में व्यक्त किया जा सके।

जो एक बार विवेकभ्रष्ट होता है, उसका शतमुख विनिपात होता है।

घृणा और द्वेष जो बढ़ता है वह शीघ्र ही पतन के गह्वर में गिर पड़ता है।

तुम झूठ से शायद घृणा करते हो, मैं भी करता हूँ; परंतु जो समाजव्यवस्था झूठ को आश्रय देने के लिए ही तैयार की गई है, उसे मानकर अगर कोई कल्याण-कार्य करना चाहो, तो तुम्हें झूठ का ही आश्रय लेना पड़ेगा।

  • संबंधित विषय : झूठ
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जिन विषयों के गंभीर अध्ययन से मनुष्य का मस्तिष्क परिष्कृत और ह्रदय सुसंस्कृत होता है, उसमें श्रम लगता है और उसके लिए बाज़ार आसानी से नहीं मिलता।

व्यक्ति का आत्मबल उसकी जड़-पूजा से अवरुद्ध हो जाता है। जिसके पास ये जड़-बंधन जितने ही कम होते हैं, वह उतना ही जल्दी सत्यपरायण हो जाता है।

उपनिषदों के उद्धरण भी जब हम अँग्रेज़ी में उद्धृत करते हैं, तो अपने ज्ञान का दिवाला प्रकट करते हैं।

आँसू में जीवन तरंगित होता रहता है।

देश की जनता के साथ देश के शिक्षितों के व्यवधान का एक प्रमुख कारण विदेशी भाषा का माध्यम है।

छोटेपन में अहंकार का दर्प इतना प्रचंड होता है कि वह अपने को ही खंडित करता रहता है।

लज्जा प्रकाश ग्रहण करने में नहीं होती, अंधानुकरण में होती है। अविवेकपूर्ण ढंग से जो भी सामने पड़ गया उसे सिर-माथे चढ़ा लेना, अंध-भाव से अनुकरण करना, जातिगत हीनता का परिणाम है। जहाँ मनुष्य विवेक को ताक़ पर रखकर सब कुछ की अंध भाव से नक़ल करता है, वहाँ उसका मानसिक दैन्य और सांस्कृतिक दारिद्र्य प्रकट होता है, किंतु जहाँ वह सोच-समझकर ग्रहण करता है और अपनी त्रुटियों को कम करने का प्रयत्न करता है, वहाँ वह अपने जीवंत स्वभाव का परिचय देता है।

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