हजारीप्रसाद द्विवेदी के उद्धरण

ब्रह्मांड कितना बड़ा है, यह बड़ा सवाल नहीं है, मनुष्य की बुद्धि कितनी बड़ी है, यही बड़ा सवाल है।
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रूप व्यक्ति-सत्य है, नाम समाज सत्य।



पुरुष स्त्री को शक्ति समझकर ही पूर्ण हो सकता है; पर स्त्री स्त्री की शक्ति समझकर अधूरी रह जाती है।
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दीपावली प्रकाश का पर्व है। इस दिन जिस लक्ष्मी की पूजा होती है। वह गरुड़वाहिनी है— शक्ति, सेवा और गतिशीलत उसके मुख्य गुण हैं।
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वस्तुतः कल्मष भी मनुष्य का अपना सत्य है। उसे स्वीकार करके ही वह सार्थक हो सकता है। दबाने से वह मनुष्य को नष्ट कर देता है।
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भगवती महामाया का निद्रा-रूप बड़ा शामक होता है। वह शरीर और मन की थकान पर सुधालेप करता है। वह जीवनी शक्ति को सहलावा देता है और प्राणों को नए सिरे से ताज़गी देता है।

जहाँ कहीं अपने आपको उत्सर्ग करने की, अपने आपको खपा देने की भावना प्रधान है, वहीं नारी है। जहाँ कहीं दुःख-सुख की लाख-लाख धाराओं में अपने को दलित द्राक्षा के समान निचोड़ कर दूसरे को तृप्त करने की भावना प्रबल है, वहीं 'नारीतत्त्व' है या शास्त्रीय भाषा में कहना हो, तो 'शक्तित्त्व' है। नारी निषेध-रूपा है। वह आनंद भोग के लिए नहीं आती, आनंद लुटाने के लिए आती है।

दीनता उस मानसिक दुर्बलता को कहते हैं जो मनुष्य को दूसरे की दया पर जीने का प्रलोभन देती है।
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संबंधित विषय : मनुष्य
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शायद दुनिया भर के लोगों की कमज़ोरी का पता लगाने की अपेक्षा अपनी कमज़ोरी का पता लगा लेना ज़्यादा विश्वसनीय होता है।
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मेरा मन कहता है इन धार्मिक संघटनों में और कुछ चाहे हो, धर्म नहीं है। धर्म मुक्तिदाता है। धार्मिक संगठन बंधन है। धर्म प्रेरणा है, धार्मिक संगठन गतिरोध है। धर्म कोई संस्था नहीं है, वह मानवात्मा की पुकार है।
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संबंधित विषय : धर्म
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देवता न बड़ा होता है, न छोटा, न शक्तिशाली होता है, न अशक्त। वह उतना ही बड़ा होता है जितना बड़ा उसे उपासक बनाना चाहता है।
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संबंधित विषय : शक्ति
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धोखा देने वाला धोखा खाता है, प्रवंचना का परिणाम हार होता है, दूसरों के रास्ते में गड्ढा खोदने वाले को कुआँ तैयार मिलता है।
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संबंधित विषय : धोखा
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लज्जा प्रकाश ग्रहण करने में नहीं होती, अंधानुकरण में होती है। अविवेकपूर्ण ढंग से जो भी सामने पड़ गया उसे सिर-माथे चढ़ा लेना, अंध-भाव से अनुकरण करना, जातिगत हीनता का परिणाम है। जहाँ मनुष्य विवेक को ताक़ पर रखकर सब कुछ ही अंध भाव से नकल करता है, वहाँ उसका मानसिक दैन्य और सांस्कृतिक दारिद्रय प्रकट होता है, किंतु जहाँ वह सोच-समझकर ग्रहण करता है और अपनी त्रुटियों को कम करने का प्रयत्न करता है, वहाँ वह अपने जीवंत स्वभाव का परिचय देता है।
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कार्य-क्षेत्र में स्वार्थों की संघर्षस्थली में महान् आदर्शों की रक्षा करना कठिन काम है।
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समूचे जनसमूह में भाषा और भाव की एकता और सौहार्द का होना अच्छा है। इसके लिए तर्कशास्त्रियों की नहीं, ऐसे सेवाभावी व्यक्तियों की आवश्यकता है, जो समस्त बाधाओं और विघ्नों को शिरसा स्वीकार करके काम करने में जुट जाते हैं। वे ही लोग साहित्य का भी निर्माण करते हैं और इतिहास का भी।

सबको अपने किए का फल भोगना पड़ता है—व्यक्ति को भी, जाति को भी, देश को भी।

भेद और विरोध ऊपरी हैं। भीतर मनुष्य एक है। इस एक को दृढ़ता के साथ पहचानने का यत्न कीजिए। जो लोग भेद-भाव को पकड़कर ही अपना रास्ता निकालना चाहते हैं, वे ग़लती करते हैं। विरोध रहे तो उन्हें आगे भी बने ही रहना चाहिए, यह कोई काम की बात नहीं हुई। हमें नए सिरे से सब कुछ गढ़ना है, तोड़ना नहीं है। टूटे को जोड़ना है।

कुलीनता पूर्वजन्म के कर्मों का फल है, चारित्र्य इस जन्म के कर्मों का प्रकाशक है।

वह लोक कितना नीरस और भोंडा होता होगा जहाँ विरह वेदना के आँसू निकलते ही नहीं और प्रिय-वियोग की कल्पना से जहाँ हृदय में ऐसी टीस पैदा ही नहीं होती, जिसे शब्दों में व्यक्त न किया जा सके।

जो आदमी दूसरों के भावों का आदर करना नहीं जानता, उसे दूसरे से भी सद्भावना की आशा नहीं करनी चाहिए।
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असुरों के गृह में जाने से लक्ष्मी धर्षिता नहीं होती। चरित्रहीनों के बीच वास करने से सरस्वती कलंकित नहीं होती।
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अजनबीपन प्रेम के अभाव का द्योतक है; संन्यास भविष्य की उज्ज्वलता के विषय में निराशा का परिणाम है। और अनास्था समाज के प्रतिष्ठित कहे जाने वाले लोगों के आचरणों के भोग-परायण होने का फल है। इसमें आशा का केवल एक ही स्थान है—वह है साधारण जनता का स्वस्थ मनोबल।

भाषा पर कबीर का ज़बरदस्त अधिकार था। वे वाणी के डिक्टेटर थे। जिस बात को उन्होंने जिस रूप में प्रकट करना चाहा है उसे उसी रूप में भाषा से कहलवा लिया- बन गया है तो सीध-सीधे, नहीं तो दरेरा देकर। भाषा कुछ कबीर के सामने लाचार-सी नज़र आती है।
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तुम झूठ से शायद घृणा करते हो, मैं भी करता हूँ; परंतु जो समाजव्यवस्था झूठ को प्रश्रय देने के लिए ही तैयार की गई हैं, उसे मानकर अगर कोई कल्याण-कार्य करना चाहो, तो तुम्हें झूठ का ही आश्रय लेना पड़ेगा।


निर्णायक को पाँच दोषों से बचना चाहिए—राग, लोभ, भय, द्वेष और एकांत में वादियों की बातें सुनना।
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प्रयोजन के अतीत पदार्थ का ही नाम सौंदर्य है, प्रेम है, भक्ति है, मनुष्यता है।

मैं बालू में से भी तेल निकालने का प्रयत्न करता हूँ बशर्ते कि वह बालू मुझे अच्छी लग जाए।
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पार्वती और गंगा हमारे अस्तित्व का ही मेरुदंड है। हमारे भीतर और बाहर जो कुछ उत्तम है, जो कुछ सुंदर है, जो कुछ पवित्र है, उसको प्रतीक रूप में पार्वती और गंगा व्यक्त करती हैं।
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मेरी दृष्टि में साहित्य की मौलिकता का प्रतिमान यही समाज की मंगलदृष्टि से अनुप्राणित, परंपरा प्राप्त, शात्र दृष्टि से सुसंस्कृत और लोकचित्त में सहज ही सुचिंत तत्त्वों को सरस रूप में प्रतिफलित करने में समर्थ व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति है। यह व्यक्तित्व जितना उज्ज्वल और शक्तिशाली होगा, साहित्य की मौलिकता उतनी उज्ज्वल और दृप्त होगी।
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विभिन्न युगों में साहित्यिक साधनाओं के मूल में कोई न कोई व्यापक मानवीय विश्वास होता है। आधुनिक युग का यह व्यापक विश्वास मानवतावाद है। इसे मध्य युग के उस मानवतावाद से घुला नहीं देना चाहिए जिसमें किसी-न-किसी रूप में यह स्वीकार किया गया था कि मनुष्य जन्म दुर्लभ है और भगवान अपनी सर्वोत्तम लीलाओं का विस्तार नर रूप धारण करके ही करते हैं। नवीन मानवतावादी विश्वास की सबसे बड़ी बात है, इसकी ऐहिक पुष्टि और मनुष्य के मूल्य और महत्त्व की मर्यादा का बोध।
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कोई भीतरी महान् वस्तु ऐसी अवश्य है जिसके होने से मनुष्य को जितेंद्रियता प्राप्त होती है या प्राप्त करने की इच्छा होती है।
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यह उन्मत्त उत्सव, ये रासक गान, ये शृंगक सीत्कार, ये अबीर-गुलाल, ये चर्चरी और पटह मनुष्य की किसी मानसिक दुर्बलता को छिपाने के लिए है, ये दुःख भुलाने वाली मदिरा है, ये हमारी मानसिक दुर्बलता के पर्दे है। इनका अस्तित्व सिद्ध करता है कि मनुष्य का मन रोगी है, उसकी चिंता-धारा आविल है, उसका पारस्परिक संबंध दुःखपूर्ण है।
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इतिहास-विधाता का स्पष्ट इंगित इसी ओर है कि मनुष्य में जो 'मनुष्यता' है, जो उसे पशु से अलग कर देती है, वही आराध्य है, क्या साहित्य और क्या राजनीति, सब का एकमात्र लक्ष्य इसी मनुष्यता की सर्वांगीण उन्नति है।
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जिस धर्मवीर ने पीर, पैगंबर आदि के भजन-पूजन का निषेध किया था, उसी की पूजा चल पड़ी; जिस महापुरुष ने, संस्कृत को कूप-जल कहकर भाषा के बहते नीर को बहुमान दिया था, उसी की स्तुति में आगे चलकर संस्कृत भाषा में अनेक स्तोत्र लिखे गए और जिसने बाह्याचारों के जंजाल को भस्म कर डालने के लिए अग्नि-तुल्य वाणियाँ कहीं, उसकी उन्हीं वाणियों से नाना बाह्याचारों की क्रियाएँ संपन्न की जाने लगीं। इससे बढ़कर क्या आश्चर्य हो सकता है।
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रास्ता खोजते समय भटक जाना, थक जाना या झुँझला पड़ना, इस बात के सबूत नहीं हैं कि रास्ता खोजने की इच्छा ही नहीं है।
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भाषा बड़ी रहस्यमयी देवी है। यह नई सृष्टि करती है। इतिहास विधाता के किए कराए पर वह ऐसा पर्दा डाल देती है कि कभी-कभी दुनिया ही बदल जाती है।
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भाषा में प्रयुक्त एक-एक शब्द, एक-एक स्वराघात कुछ सूचना देते हैं। व्यक्तियों के नाम, कुलों या ख़ानदानों के नाम, पुराने गाँवों के नाम जीवंत इतिहास के साक्षी हैं। हमारे रीति-रस्म, पहनावे, मेले, गान, नाच, पर्व, त्यौहार, उत्सव हमारे पुराने इतिहास की कथा सुना जाते हैं।
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छोटेपन में अहंकार का दर्प इतना प्रचंड होता है कि वह अपने को ही खंडित करता रहता है।
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विवेक और वैराग्य की दृढ़ता केवल प्रेम से ही संभव है। प्रेम-तत्त्व के अभाव में वैराग्य और विवेक अधिक देर तक टिक नहीं पाते।
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