था कि भारत की आत्मा गाँवों में बसती है। आधुनिक जीवन की आपाधापी में कविता के लिए गाँव एक नॉस्टेल्जिया की तरह उभरता है जिसने अब भी हमारे सुकून की उन चीज़ों को सहेज रखा है जिन्हें हम खोते जा रहे हैं।
बालगोबिन भगत मँझोले क़द के गोरे-चिट्टे आदमी थे। साठ से ऊपर के ही होंगे। बाल पक गए थे। लंबी दाढ़ी या जटाजूट तो नहीं रखते थे, किंतु हमेशा उनका चेहरा सफ़ेद बालों से ही जगमग किए रहता। कपड़े बिलकुल कम पहनते। कमर में एक लँगोटी-मात्र और सिर में कबीरपंथियों की-सी
कानों में चाँदी की बालियाँ, गले में चाँदी का हैकल, हाथों में चाँदी के कंगन और पैरों में चाँदी की गोड़ांई—भरबाँह की बूटेदार क़मीज़ पहने, काली साड़ी के छोर को गले में लपेटे, गोरे चेहरे पर लटकते हुए कुछ बालों को सँभालने में परेशान वह छोटी सी लड़की जो उस
अषाढ़ का महीना था। पहली बरखा के संपूर्ण लक्षण दिखाई पड़ने, लगे थे। पछवा का ज़ोर रुका और पुरवा का जीवन-स्रोत बह चला। तीतरपांखी बदली उठ रही थी, पर गाँव के किसानों के हृदयों में उमंग की हिलोर न उठी। प्रत्येक की आकृति पर वेदना की घटा छाई हुई थी। बात यह थी
(एक) वह इसके लिए पैदा नहीं हुई थी। कई बार इस दलदल से निकलने की उसने कोशिश भी की। मधुपुरी सवा सौ वर्ष पुरानी बिलासनगरी है, उसके पहले वही लोग यहाँ के घने जंगलों में अपने पशुओं को चराते थे, जो अब भी उसकी सीमा के बाहर अपने छोटे-छोटे गाँवो
कुँए की जगत पर औरतों की भीड़ लगी थी—मलिन-वसना, जर्जरित-यौवना, श्रम-व्यस्त। ये औरतें किसी और सामाजिक व्यवस्था में जवान होतीं। लेकिन बीस-पच्चीस वर्ष की रहते भी दोपहरी उनकी ढल-सी चुकी थी—घोर श्रम और जीवन में कोई अन्य रस न होने से लगातार कमज़ोर, अल्पायु
गोधूलि से संबंधित शत-शत चित्र देखने के पश्चात् भी मन यही कहता है—इससे भी अच्छा चित्र प्रस्तुत किया जाना चाहिए! जिसने नगर में जन्म लिया और वहीं रहा उसे तो गोधूलि का मामूली दृश्य भी भा जाएगा। पर जो स्वयं गाँव में पैदा हुआ और जाने कितने जनपदों के गाँवों
हमारी बस्ती में एक ही नल था जिसका पानी रुक-रुक कर, यूँ कहिए, रो-रोकर निकलता था। सुबह-शाम इस नल के इर्द-गिर्द एक भारी भीड़ मक्खियों की भाँति टूट पड़ती थी, लेकिन नल की धार किसी दुर्लभ चीज़ की तरह मुश्किल से निकलती। दोपहर को पानी एकदम बंद रहता, क्योंकि
उस दिन ख़ूब लू चली थी। दिन भर बदन झुलसा था। शाम को हम लोग इक्के पर बैठकर कुछ सामान ख़रीदने और चाट खाने के लिए चौक चले गए। यूनिवर्सिटी बंद थी, इसलिए मनमानी कर सकते थे। सोचा, किसी तरह तो गर्मी और लू को भूल सके। चौक गुलज़ार था। घंटाघर में साढ़े सात बजा
Sign up and enjoy FREE unlimited access to a whole Universe of Urdu Poetry, Language Learning, Sufi Mysticism, Rare Texts
Devoted to the preservation & promotion of Urdu
Urdu poetry, urdu shayari, shayari in urdu, poetry in urdu
A Trilingual Treasure of Urdu Words
Online Treasure of Sufi and Sant Poetry
The best way to learn Urdu online
Best of Urdu & Hindi Books
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश