महादेवी वर्मा के उद्धरण

एक पुरुष के प्रति अन्याय की कल्पना से ही सारा पुरुष समाज उस स्त्री से प्रतिशोध लेने को उतारू हो जाता है और एक स्त्री के साथ क्रूरतम अन्याय का प्रमाण पाकर भी सब स्त्रियाँ उसके अकारण दंड को अधिक भारी बनाए बिना नहीं रहतीं।
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समाज ने स्त्रीमर्यादा का जो मूल्य निश्चित कर दिया है, केवल वही उसकी गुरुता का मापदंड नहीं। स्त्री की आत्मा में उसकी मर्यादा की जो सीमा अंकित रहती है, वह समाज के मूल्य से बहुत अधिक गुरु और निश्चित है, इसी से संसार भर का समर्थन पाकर जीवन का सौदा करने वाली नारी के हृदय में भी सतीत्व जीवित रह सकता है और समाज भर के निषेध से घिर कर धर्म का व्यवसाय करने वाली सती की साँसें भी तिल-तिल करके असती के निर्माण में लगी रह सकती हैं।

युगों से पुरुष स्त्री को उसकी शक्ति के लिए नहीं, सहनशक्ति के लिए हो दंड देता आ रहा है।
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जो समाज इन्हें वीरता, साहस और त्याग भरें मातृत्व के साथ स्वीकार नहीं कर सकता, क्या वह इनकी कायरता और दैन्य भरी मूर्ति को ऊँचे सिंहासन पर प्रतिष्ठित कर पूजेगा?
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विवाह उसके अबोधपन में ही हो गया और वैधव्य भी अनजाने आ पड़ा। न पहली स्थिति ने उसे उल्लास में बहाया था, न दूसरी स्थिति उसे निराशा में डुबा पाई।
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हमारा भविष्य जैसे कल्पना के परे दूर तक फैला हुआ है, हमारा अतीत भी उसी प्रकार स्मृति के पार तक विस्तृत है।
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भारतीय पुरुष जीवन में नारी का जितना ऋणी है, उतना कृतज्ञ नहीं हो सका। अन्य क्षेत्रों के समान साहित्य में भी उसको स्वभावगत संकीर्णता का परिचय मिलता रहा है।

हर युग की अनुश्रुति पुराण पर कल्पना का नया रंग चढ़ा देती है और इस प्रकार हम तक आते-आते यह जीवन-गाथा सत्य, कल्पना, सिद्धांत, आदर्श, नीति आदि का संघात बन जाती है।
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मनुष्य का अहंकार ऐसा है कि प्रासादों का भिखारी कुटी का अतिथिदेवता बनना भी स्वीकार नहीं करेगा।
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पुराण तो स्वयं विराट् साहित्य का अंश है। अतः उसकी बुद्धिसम्मत भागवत व्याख्या ही उसे हमारे जीवन के निकट ला सकती है। यह कार्य सहज नहीं क्योंकि एक ओर अनुभूति की न्यूनता इस व्याख्या को नीरस सिद्धांत बना सकती है और दूसरी ओर अनुभूति की अधिकता में यह विश्वसनीयता नहीं रहती।
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हमारी बुद्धि-वृत्ति बाहर के स्थूलतम बिंदु से लेकर भीतर के सूक्ष्मतम बिंदु तक जीवन को एक अर्धवृत्त में घेर सकती है, परंतु दूसरा अर्धवृत्त बनाने के लिए हमारी रागात्मिका वृत्ति ही अपेक्षित रहेगी।
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साधारणतः परीक्षा के हथौड़े के नीचे प्रतिभा नहीं गढ़ी जाती, उल्टे उसके चूर-चूर हो जाने की संभावना रहती है।
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अपने विषय में कुछ कहना प्रायः कठिन हो जाता है क्योंकि अपने दोष देखना अपने आपको अप्रिय लगता है और उनको अनदेखा करना औरों को।
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जीवन की गहराई की अनुभूति के कुछ क्षण ही होते हैं, वर्ष नहीं। परंतु यह क्षण निरंतरता से रहित होने के कारण कम उपयोगी नहीं कहे जा सकते।
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