मातृभाषा पर कविताएँ

मातृभाषा किसी व्यक्ति

की वह मूल भाषा होती है जो वह जन्म लेने के बाद प्रथमतः बोलता है। यह उसकी भाषाई और विशिष्ट सांस्कृतिक पहचान का अंग होती है। गांधी ने मातृभाषा की तुलना माँ के दूध से करते हुए कहा था कि गाय का दूध भी माँ का दूध नहीं हो सकता। कुछ अध्ययनों में साबित हुआ है कि किसी मनुष्य के नैसर्गिक विकास में उसकी मातृभाषा में प्रदत्त शिक्षण सबसे महत्त्वपूर्ण होता है। इस चयन में मातृभाषा विषयक कविताओं को शामिल किया गया है।

मातृभाषा की मौत

जसिंता केरकेट्टा

हिंदी

प्रभात

अपनी भाषा में शपथ लेता हूँ

विनोद कुमार शुक्ल

उर्दू को उत्तर

बालमुकुंद गुप्त

खड़ी बोली

अविनाश मिश्र

हिंदी का नमक

कमल जीत चौधरी

दूसरा कोना

मनोज कुमार झा

विलाप नहीं

कुमार वीरेंद्र

मालवी

राधावल्लभ त्रिपाठी

मैं बनारसी हूँ

सदानंद शाही

चंडीगढ़ 2017

गिरिराज किराडू

भाषा

गौरव भारती

अपनी हिंदी उसे मैं नहीं मानता

शैलेंद्र कुमार शुक्ल

मेरी माँ की ज़ुबान

दीपक जायसवाल

रामबचन भगत

जितेंद्र श्रीवास्तव

ठक बहादुर माझी

प्रदीप त्रिपाठी

भाषा

वीरू सोनकर

उर्दू के स्कूल गए

सौम्य मालवीय

विश्व-कविता

प्रेमशंकर शुक्ल

परवा लेदु

सौरभ राय

भोजपुरी

सिद्धेश्वर सिंह

भाषा-विवाद

निर्मला तोदी

मातृभाषा

जसवंत सिंह

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere