बनारस पर कविताएँ

ग़ालिब ने बनारस को दुनिया

के दिल का नुक़्ता कहना दुरुस्त पाया था जिसकी हवा मुर्दों के बदन में भी रूह फूँक देती है और जिसकी ख़ाक के ज़र्रे मुसाफ़िरों के तलवे से काँटे खींच निकालते हैं। बनारस को एक जगह भर नहीं एक संस्कृति कहा जाता है जो हमेशा से कला, साहित्य, धर्म और दर्शन के अध्येताओं को अपनी ओर आकर्षित करता रहा। इस चयन में बनारस की विशिष्ट उपस्थिति और संस्कृति को आधार लेकर व्यक्त हुई कविताओं का संकलन किया गया है।

बनारस

केदारनाथ सिंह

बनारस में पिंडदान

लीना मल्होत्रा राव

मणिकर्णिका

कुमार मंगलम

बजरडीहा

अरमान आनंद

यह बनारस है

अष्टभुजा शुक्‍ल

मैं बनारसी हूँ

सदानंद शाही

बनारस

दिनेश कुशवाह

गंगा और साइबेरियन पक्षी

शुभांगी श्रीवास्तव

बनारस

कुमार मंगलम

ताना-बाना

हरि मृदुल

बनारस में ठंड

विमलेश त्रिपाठी

बनारस

नरेंद्र पुंडरीक

काशी के घाट पर

प्रभाकर माचवे

ओ काशी!

जुवि शर्मा

बनारस

उद्भव सिंह शांडिल्य

एक और बनारस

चंद्रबिंद

बनारस से लौटते हुए

राजेंद्र शर्मा

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere