तानाशाह पर उद्धरण
प्रतिरोध कविता का मूल
धर्म माना जाता है। आधुनिक राज-समाज में सत्ता की स्वेच्छाचारिता के ख़तरों के प्रति आगाह कराते रहने के कार्यभार को कविता ने अपने अपने मूल और केंद्रीय कर्तव्य की तरह धारण कर रखा है। इस आशय में आधुनिक कविताओं में ‘तानाशाह’ शब्द की आवाजाही उस प्रतिनायक के प्रकटीकरण के लिए बढ़ी है, जो आधुनिक राज-समाज के तमाम प्रगतिशील आदर्शों को चुनौती देने या उन्हें नष्ट करने की मंशा रखता हो।

भाषा पर कबीर का ज़बरदस्त अधिकार था। वे वाणी के डिक्टेटर थे। जिस बात को उन्होंने जिस रूप में प्रकट करना चाहा है उसे उसी रूप में भाषा से कहलवा लिया- बन गया है तो सीध-सीधे, नहीं तो दरेरा देकर। भाषा कुछ कबीर के सामने लाचार-सी नज़र आती है।

अत्याचारी कदापि अत्याचार के कारण नष्ट नहीं होते अपितु सदैव ही मूर्खता के कारण नष्ट होते हैं, जब उनकी सनकें एक भवन बना चुकी होती हैं जिसके लिए पृथ्वी पर कोई नींव नहीं होती।

समाज की गति के संचालन का कार्य जो शक्ति करती है, वह मुख्यतः प्रतिबंधक नियमों पर बल देती है।

तानाशाह प्रेमिका एक प्रेमी से बहुत जल्द उकता जाती है। पालतू बनाने और निस्तेज करने के लिए उसे नया पुरुष चाहिए।

प्रौढ़-वय का शासक अपने को वैसा ही क्रांतिकारी समझता रहता है, जैसा कभी युवावस्था में वह था।

परजीवी हमेशा बहुत सख़्तजान होते हैं।
aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere