श्रीहर्ष के उद्धरण

शिष्टाचार के कारण अपनी आत्मा को भी तिनके के समान लघु बनाना चाहिए, अपना आसन छोड़कर अतिथि को देना चाहिए, आनंद के अश्रुओं से जल देना चाहिए और मधुर वचनों से कुशलक्षेम पूछना चाहिए।
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संबंधित विषय : शिष्टाचार
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शत्रुओं के द्वारा जो सच्चे न हों ऐसे छोटे छोटे दोषों का आरोपण सज्जनों की निर्दोषता को सूचित करता है क्योंकि यदि सत्य दोष होगा तो झूठा दोष आरोपण करने के लिए कोई उद्योग नहीं करेगा।

इस जगत में कौन अपने कर्म का फल नहीं भोगता है?

देवता प्रसन्न होने पर और कुछ तो नहीं देते, सद्बुद्धि ही प्रदान करते हैं।
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संबंधित विषय : ईश्वर
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जिस धनी पुरुष का जन्म याचक जन की इच्छा को पूर्ण करने के लिए नहीं है, उस पुरुष से ही यह पृथ्वी अत्यंत भार वाली है, न कि पेड़ों या पर्वतों या समुद्रों से।
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तीक्ष्ण प्रतिभा गुरु के उपदेश की प्रतीक्षा नहीं करती है और पीड़ा समय की प्रतीक्षा नहीं करती है।
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जिसका जन्म याचकों की कामना पूर्ण करने के लिए नहीं होता, उससे ही यह पृथ्वी भारवती हो जाती है, वृक्षों, पर्वतों तथा समुद्रों के भार से नहीं।

शीघ्र पलक मारने के बहाने से भ्रमण पूर्ण दोनों नेत्र दृढ़ निद्रा (मृत्यु) की सूचना देते हैं।
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जैसे ज्ञानियों का प्रामाण्य स्वयं होता है, वैसे ही सज्जनों की परोपकारी प्रवृत्ति स्वयं होती है।
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संबंधित विषय : व्यक्ति
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अपने उपाय से ही उपकारी का उपकार करना चाहिए। उपकार बड़ा है या छोटा—इस प्रकार का विद्वानों का विशेष आग्रह नहीं होता।
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संबंधित विषय : मदद
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सती की स्थिति (मर्यादा) मृणालतंतु के समान है जो थोड़ी भी चपलता से टूट जाती है।
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जन्मांतर में किए हुए कर्म के विपाक से उत्पन्न हुए किसी प्राणी का अनुराग किसी प्राणी में उत्पन्न हो ही जाता है।
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हे बुद्धिमती सखियों। मनुष्य का मन या तो ईश्वर के अधीन न होता या जीवात्मा के बार-बार आवर्तन होने वाले शुभाशुभ कर्मों के अनादि प्रवाह के अधीन होता है। ऐसे पराधीन मनुष्य पर आक्षेप करना उचित नहीं।
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अपनी पवित्रता के संबंध में सज्जनों का चित्त ही साक्षी है।
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संबंधित विषय : पवित्रता
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श्रेष्ठ लोग देशों में भारत की वैसे ही प्रशंसा करते हैं जैसे आश्रमों में गृहस्थाश्रम की।
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दोष से भी दोष की लघुता हो जाती है, जैसे अज्ञान से है। पाप की गुरुता कम हो जाती है।
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