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श्रीहर्ष

श्रीहर्ष के उद्धरण

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शिष्टाचार के कारण अपनी आत्मा को भी तिनके के समान लघु बनाना चाहिए, अपना आसन छोड़कर अतिथि को देना चाहिए, आनंद के अश्रुओं से जल देना चाहिए और मधुर वचनों से कुशलक्षेम पूछना चाहिए।

शत्रुओं के द्वारा जो सच्चे हों ऐसे छोटे छोटे दोषों का आरोपण सज्जनों की निर्दोषता को सूचित करता है क्योंकि यदि सत्य दोष होगा तो झूठा दोष आरोपण करने के लिए कोई उद्योग नहीं करेगा।

देवता प्रसन्न होने पर और कुछ तो नहीं देते, सद्बुद्धि ही प्रदान करते हैं।

पित्त से जिह्वा के दूषित हो जाने पर मिश्री भी कड़वी लगती है।

जिसका जन्म याचकों की कामना पूर्ण करने के लिए नहीं होता, उससे ही यह पृथ्वी भारवती हो जाती है, वृक्षों, पर्वतों तथा समुद्रों के भार से नहीं।

जैसे ज्ञानियों का प्रामाण्य स्वयं होता है, वैसे ही सज्जनों की परोपकारी प्रवृत्ति स्वयं होती है।

सती की स्थिति (मर्यादा) मृणालतंतु के समान है जो थोड़ी भी चपलता से टूट जाती है।

अपनी पवित्रता के संबंध में सज्जनों का चित्त ही साक्षी है।

श्वेत वस्तु के बीच कालिमा सरलता से दिखाई दे जाती है।

दोष से भी दोष की लघुता हो जाती है, जैसे अज्ञान से है। पाप की गुरुता कम हो जाती है।

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