सर्वेपल्लि राधाकृष्णन के उद्धरण

हमें तो एक ही धर्म की आवश्यकता है जो मानवात्मा को मुक्त करता हो; जो मनुष्य के मन में भय को नहीं आस्था को, औपचारिकता को नहीं स्वाभाविकता को, यांत्रिक जीवन की नीरसता को नहीं नैसर्गिक जीवन की रसात्मकता को बढ़ावा देता हो। हमें नहीं चाहिए ऐसा धर्म जो मनुष्य के मन का यंत्रीकरण कर देता हो, जिसका फल धार्मिक कट्टरता के रूप में सामने आता है। हमें ऐसा धर्म नहीं चाहिए जो लक्ष्यों का यंत्रीकरण करके अपने अनुयायियों से बिल्कुल एक जैसा आचरण करने की माँग करने लगता है।
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धर्म का प्रयोजन है इस प्रज्ञा-जगत से, इस विभक्त चेतना वाले जगत से, जिसमें विभेद है, द्वित्व है, सामरस्य-मय, स्वातंत्र्यमय एवं प्रेममय जीवन में विकसित होने में हमारी सहायता करना।

धर्म का प्रारंभ हमारे जीवन में तब होता है जब हम यह जान जाते हैं कि हमारा जीवन केवल हमारे ही निमित्त नहीं है।
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धर्म एक आंतरिक रूपांतरण है, एक आध्यात्मिक परिवर्तन है, हमारे अपने स्वभाव के विसंवादी स्वरों सामंजस्य लाने की क्रिया है—और उसका यह रूप इतिहास के आरंभ से ही मिलता आया है, यही उसका मूल स्वरूप है।
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नास्तिकता प्रायः धर्म की प्राणशक्ति की अभिव्यक्ति रही है, धर्म में वास्तविकता की खोज रही है।
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भली भाँति मनन किए हुए विचार ही जीवनरूपी सर्वोच्च परीक्षा में व्यवहृत एवं परीक्षित होकर धर्म बन जाते हैं।
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अतीत को त्यागने से नहीं अपितु स्वीकारने से और अतीत को भविष्य में ढालने से, जिसमें अतीत का पुनर्जन्म होता है, जीवन आगे बढ़ता है।
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संबंधित विषय : भविष्य
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धर्म आध्यात्मिक परिवर्तन है, एक अंतर्मुखी रूपांतरण है। यह अंधकार से प्रकाश की ओर जाना है, आत्मोद्धारहीनता से आत्मोद्धार की स्थिति में पहुँचना है। यह एक जागरण है. एक प्रकार की पुनर्जन्मता है।

परंपरा आत्मिक जीवन को पंगु कर देने वाला और हमसे एक सदा के लिए गए गुज़रे युग में लोटने की अपेझा करने वाला कोई कड़ा और कठोर साँचा नहीं है। वह अतीत की स्मृति नहीं है, बल्कि जीवंत आत्मा का सतत आवास है। वह आत्मिक जीवन की जीवंत धारा है।
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परंपरा की अखंडता यांत्रिक पुनरुत्पादन नहीं है अपितु यह सर्जनात्मक रूपांतरण है, सत्य के आदर्श के अधिकाधिक निकट पहुँचना है।
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आज भारतीय ज्ञान केवल भारत राष्ट्र के पुनरुत्थान के लिए अपरिहार्य नहीं है अपितु मानव जाति के पुनर्शिक्षण शक्षण के लिए भी।
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संबंधित विषय : राष्ट्र
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