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भाषा, लोग और ‘बहुरूपिये’ वाया 2014

आज़ादी के बाद के, हमारे देश का इतिहास जब भी लिखा जाएगा तो उसमें दो खंड लाज़िमी होंगे। पहला—आज़ादी से लेकर 2014 तक और दूसरा—2014 से बाद का। ऐसा नहीं है कि 2014 के बाद से हमारे समाज में धर्म के नाम पर जो कुछ हो रहा है, वह पहले नहीं होता था। फ़र्क़ सिर्फ़ इतना है कि सरकार इस तरह के घटनाक्रमों में इतने व्यापक और शार्प तरीक़े से मुलव्विस नहीं होती थी, जितना मौजूदा सरकार है।

यह हमारे समाज की विडंबना है कि अपनी आँखों के सामने इतना सब कुछ घटित होता देखने के बाद भी वह ख़ामोश रहता है और उसकी यही ख़ामोशी—सरकार और हिंसक गतिविधियों में लिप्त उसके समर्थकों को हौसला दे रही है। मगर इस पर भी कुछ लोग हैं, जो ख़ामोश रहकर भी इन घटनाओं पर अपनी प्रतिक्रिया दर्ज करा रहे हैं, अपने विरोध को ज़ाहिर कर रहे हैं। भले ही उनका यह विरोध नेताओं की तरह सार्वजनिक रूप से नज़र न आए, तो भी ख़ामोशी से दर्ज हो रहा उनका यह विरोध बहुत मारक और सोचने पर विवश करने वाला है।

ख़ामोशी से अपना विरोध दर्ज कराने वालों में हमारे लेखक-कलाकर अग्रणी भूमिका में है। इन्हीं लेखकों में मो. आरिफ़ भी शामिल है, जिनका नया कहानी-संग्रह ‘बहुरूपिये’ (प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन, संस्करण : 2025) आया है। इस संग्रह में कुल पाँच कहानियाँ हैं। इन पाँच कहानियों में से तीन कहानियाँ 2014 के बाद से उभरे कथित राष्ट्रवाद और उससे पनपी मुस्लिम-विरोधी हिंसा पर आधारित हैं। एक कहानी, जिसका नाम लेखक ने ‘कुत्ते बिल्ली’ रखा है, आधुनिक पीढ़ी की पसंद की शादी और सेटल्ड हो जाने के बाद बच्चे पैदा करने या न करने और उनकी जगह दिल बहलाने के लिए ‘कुत्ते-बिल्ली’ पाल लेने का सुझाव देने वाली यंग लड़की और उसके मल्टी-नेशनल में काम करने वाले युवा हसबैंड की है।

ऐसा नहीं है कि हिंदी-साहित्य में इससे पहले के समाज में होने वाली धार्मिक हिंसा पर कहानियाँ नहीं लिखी जाती थी। हिंदी में विभाजन के बाद से ही धर्म आधारित हिंसा पर कहानियाँ लिखी जाती रही हैं। कृष्णा सोबती, दूधनाथ सिंह, राही मासूम रज़ा, असग़र वजाहत, मंजूर एतहेशाम, अब्दुल बिस्मिल्लाह और उदय प्रकाश जैसे चर्चित लेखकों ने अपनी कहानियों के ज़रिए समाज में होने वाली सांप्रदायिक हिंसा पर लिखा है। मगर मो. आरिफ़ की कहानियों की विशेषता यह है कि वह अपनी कहानियों में बाक़ायदा साल 2014 का उल्लेख करते हैं। वह बताते हैं कि 2014 से पहले जो लोग अपने मुस्लिम पड़ोसियों की भाई की तरह हिफ़ाज़त करते थे, अब उन्हीं पड़ोसियों के नौजवान बच्चे, मल्टी-नेशनल कंपनियों में काम करने वाले एलीट लोग, मेट्रो-पॉलिटन सिटीज़ में रहने वाला संभ्रांत वर्ग और इंटरनेट की दुनिया से वाबस्ता रखने वाली युवा पीढ़ी उन्हीं ‘भाई की तरह’ के मुसलमानों के घरों को जलाने, उनके रोज़गार पर हमले करने और लिंचिंग के ज़रिए उन्हें मौत के घाट उतार देने के नए-नए मंसूबे ईजाद कर रहे हैं।

यह मैं नहीं कह रहा हूँ, यह इस संग्रह की तीसरी कहानी ‘मृत्युदंड’ का मग़ज़ है।

मो. आरिफ़ की कहानियाँ पढ़ते हुए समाज की वे वास्तविकताएँ हमारे सामने खुलने लगती हैं, जिन्हें हम अपनी आँखों के सामने घटित होता देखने पर भी उन्हें मानने या उन पर यक़ीन करने के लिए तैयार नहीं होते। समाज किस तरह बदल गया है, वह हर लम्हा कितनी तरह के रूप बदल रहा है, कि यक़ीन नहीं होता कि थोड़ा देर पहले जिस शख़्स की बीवी अपने बच्चे को झड़वाने के लिए मस्जिद के सामने खड़ी थी, उसका पति अगले दिन होने वाले मुस्लिम विरोधी दंगों में शामिल हो जाता है।

यह ‘बहुरूपिये’ समाज है। मगर जिस समाज का मुखिया ही दिन भर में इतने रंग बदलता हो कि उसे पहचानने भी मुश्किल हो जाए, तो ऐसे समाज के ‘बहुरूपिये’ हो जाने पर अफ़सोस कैसा? अफ़सोस तो होता है। यह देख-जानकर कि जिस समाज को, जिस युवा को अपनी रोज़ी-रोटी की फ़िक्र करनी चाहिए, वह मुस्लिम-विरोधी हिंसा में शामिल हो रहा है। मुस्लिम के प्रति अपने इस कृत्रिम तरीक़े से निर्मित विरोध के चक्कर वह परवाह नहीं करना रहा कि उसे एक स्थायी नौकरी की ज़रूरत भी है। उसे काम की ज़रूरत तो है, मगर काम के लिए भी उसे भिन्न-भिन्न रूप बदलने होते हैं, ‘बहुरूपिये’ बनना पड़ता है। शीर्षक कहानी का द्वितीय मुख्य किरदार प्रथम मुख्य किरदार से काम माँगते हुए कहता है—“आप तो जानते ही हैं, जो काम मिल जाता है वही कर लेते हैं, आज देश बचाओ अभियान के कार्यकर्ता बने हैं, लेकिन दो घंटे से चंदा के वास्ते घूम रहे हैं, सब ने कल परसों बुलाया है, मुझे आज की पड़ी है। न पिया न खाया। बस कुछ हो जाए तो...?”

इस समय में केवल सड़कों पर घूमने वाले ‘बहुरूपिये’ जैसे लोग ही मुस्लिम विरोधी हिंसा में शामिल नहीं हो रहे हैं। इस हिंसा को असली हवा तो सरकार से मिल रही है, जो बक़ौल सुप्रीम कोर्ट ‘बुल्डोजर जस्टिस’ द्वारा लेबल कर दिए ‘पत्थरबाजों’ और ‘पाकिस्तानियों’ को सबक़ सिखाने के लिए इस तरह की हिंसा को जान-बूझकर बढ़ावा दे रही है।

यह सब तब हो रहा है, जब हमारा देश और यह पूरी दुनिया कोरोना जैसी महामारी से उभर ही रही है। महामारी के दौरान ख़त्म हो गए रोज़गार, दोबारा हासिल नहीं किए जा सके। बंद हुए कारख़ानों को दोबारा खोला नहीं जा सका। फ़ैक्ट्रियों के थम गए पहियों को फिर से चलाया नहीं जा सका।

कोरोना माहमारी इस मानव-जाति के लिए कितनी हिंसक, कितनी मारक और कितनी व्यापक तबाही मचाने वाली थी, यह आप इस संग्रह की आख़िरी कहानी ‘दिलपत्थर’ में पढ़ सकते हैं। इस कहानी के ज़रिए आप देख सकते हैं कि कैसे उस महामारी ने इंसान को इतना संवेदनहीन और ‘पत्थरदिल’ बना दिया था कि उसके अंदर की सारी मानवता, अपनत्व और लगाव का रस सूख चुका था और वह महज़ पैसे ऐंठने की मशीन में तब्दील होकर रह गया था।

यही इस संग्रह की विशेषता है। लेखक ने केवल मुस्लिम विरोधी हिंसा, या पड़ोसियों की नई पीढ़ी के कथित राष्ट्रवादी बन जाने की घटनाओं को ही अपनी कहानियों में शामिल किया है, बल्कि उसने 2014 के बाद की होने वाली हर उस घटना पर बात की है, जो हमारे आँख़ों के सामने घटी है और उसे हमने भूला भी दिया है। जैसा कि हमारा स्वभाव भी है।

संग्रह की भाषा बहुत सादी, सुंदर और साफ़ है। आम बोलचाल की वह भाषा, जो मानक का दर्जा रखती है। लेखक ने अपनी इन कहानियों में न तो उर्दू के नाम पर अरबी-फ़ारसी के कठिन शब्दों को प्रयोग किया है, जैसा कि अक्सर कथित हिंदी-भाषा के पाठक हिंदी के मुस्लिम लेखकों पर आरोप लगाते हुए कहते हैं, और न ही इन कहानियों में ख़ुद को ज़्यादा हिंदी-परस्त दिखाने के चक्कर में क्लिष्ट संस्कृतनिष्ठ हिंदी शब्दों की भरमार है।

लेखक ने एकदम आसान शब्दों में हमारे इस समय की वास्तविकताओं को दर्ज करने की एक सुघड़ कोशिश अपनी इन कहानियों के ज़रिये की है। 

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