नदी पर दोहे
नदियों और मानव का आदिम
संबंध रहा है। वस्तुतः सभ्यता-संस्कृति का आरंभिक विकास ही नदी-घाटियों में हुआ। नदियों की स्तुति में ऋचाएँ लिखी गईं। यहाँ प्रस्तुत चयन में उन कविताओं को शामिल किया गया है, जिनमें नदी की उपस्थिति और स्मृति संभव हुई है।
जब आँखों से देख ली
गंगा तिरती लाश।
भीतर भीतर डिग गया
जन जन का विश्वास॥
पानी जैसी ज़िंदगी
बनकर उड़ती भाप।
गंगा मैया हो कहीं
तो कर देना माफ़॥
गंगा जल को लाश घर
बना गया वह कौन?
पूछा तो बोला नहीं
अजब रहस्यमय मौन॥
सचमुच सदा ग़रीब ही
ढोता ज़िंदा लाश।
उसके ही शव देखकर
गंगा हुई उदास॥
दोहे लिखकर के करूँ
क्या मैं भी गंगोज।
मन की गंगा बह रही
दोहे बनते रोज़॥
aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere