डर पर दोहे
डर या भय आदिम मानवीय
मनोवृत्ति है जो आशंका या अनिष्ट की संभावना से उत्पन्न होने वाला भाव है। सत्ता के लिए डर एक कारोबार है, तो आम अस्तित्व के लिए यह उत्तरजीविता के लिए एक प्रतिक्रिया भी हो सकती है। प्रस्तुत चयन में डर के विभिन्न भावों और प्रसंगों को प्रकट करती कविताओं का संकलन किया गया है।
जब आँखों से देख ली
गंगा तिरती लाश।
भीतर भीतर डिग गया
जन जन का विश्वास॥
तूने आकर खोल दी
एक विचित्र दुकान।
दो चीज़ें ही आँख में
चिता और श्मशान॥
मौत मौत ही मौत घर
मौत मौत ही मौत।
आँधी आई मौत की
आए राजा नौत॥
राग मृत्यु की भैरवी
नाचत दे दे ताल।
संग राजा जी नाचते
पहन मुंड की माल॥
पानी जैसी ज़िंदगी
बनकर उड़ती भाप।
गंगा मैया हो कहीं
तो कर देना माफ़॥
गंगा जल को लाश घर
बना गया वह कौन?
पूछा तो बोला नहीं
अजब रहस्यमय मौन॥
अणिमा गरिमा शक्तियाँ
सब कुछ तेरे पास।
कोरोना के सामने
एटम बम भी घास॥
कितना कितना कर दिया,
कितना विकट विकास।
लाश लाश पर घाट हैं,
घाट घाट पर लाश॥
चिता धधकती नदी तट
व्यक्ति हुआ असहाय।
सखा स्वजन संवेदना
दूर खड़े निरुपाय॥
बाबा ओ बाबा! अगर
होता ना विज्ञान।
बस्ती होती बहुत कम
होते अधिक मसान॥
कोविड का घंटा बजा
आकर तेरे द्वार।
कौन सँभालेगा तुझे
यहाँ सभी बीमार॥
aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere