भारवि के उद्धरण

काम अर्थात् विषय-भोगों से श्रद्धा करो तो वे ठगते हैं। प्रेम करो तो वे हानि पहुँचाते हैं। छोड़ना चाहो तो छूटते नहीं। वे कष्टप्रद शत्रु हैं।


जिससे आत्मकल्याण हो, गुण उत्पन्न हो, आपत्तियाँ दूर हों—इस प्रकार से अनेक फल देने वाली श्रेष्ठ जनों की मित्रता की कामना क्यों न कीजिए?
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ऐसे लोग बहुत ही कठिनाई से मिलते हैं, जो कार्य विधि का चारुतापूर्वक निर्माण करते हैं।
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आस्था का आश्रय लेकर, क्षुद्र एवं शत्रु व्यक्तियों को अधीन करने पर, महान व्यक्तियों की दया के द्वारा उनका माहात्म्य ही प्रकट होता है।
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निष्काम होकर नित्य पराक्रम करने वालों की गोद में उत्सुक होकर सफलता आती ही है।
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महान व्यक्तियों की मित्रता नीचों से नहीं होती, हाथी सियारों के मित्र नहीं होते।
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अभीष्ट पुरुष के मिलने पर शून्य स्थान भरा-भरा सा बन जाता है, विपत्ति भी उत्सव के तुल्य हो जाती है। उनसे विवाद भी लाभ के लिए होता है।
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यदि नीच के साथ शत्रुता करते हैं तो उसका यश नष्ट होता है, मैत्री करते हैं तो उनके गुण दूषित होते हैं, इसलिए विचारशील मनुष्य स्थिति की दोनों प्रकार से समीक्षा करके ही नीच व्यक्ति को अवज्ञापूर्वक दूर ही रखते हैं।

राग और द्वेष से दूषित स्वभाव वाले लोगों के मन सज्जनों के विषय में भी विकारपूर्ण हो जाते हैं।
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दुर्भाग्यशाली मनुष्य प्राप्त वस्तु की अवहेलना करते हैं।
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