मेरी डाक में आने वाले खतों में कुछ खत तो गालियों से ही भरे होते हैं। उन गालियों का तो मेरे ऊपर कोई असर नहीं होता, क्योंकि मैं इन गालियों को ही स्तुति समझता हूँ, परंतु वे लोग गालियाँ इसलिए नहीं देते कि मैं उनको स्तुति समझता हूँ बल्कि इसलिए कि मैं जैसा उनकी निगाह में होना चाहिए वैसा नहीं हूँ। एक वक़्त वह था जब वे मेरी स्तुति भी करते था। इसलिए गालियाँ देना या स्तुति करना तो दुनिया का एक खेल हूँ।
स्याही और गोंद, काग़ज़ और लिफ़ाफ़ा और उस पर लगे टिकट—मेरी स्मृतियों में उतने ही ज़िंदा हैं जितना हमारे मुहल्ले का डाकिया।
इसमें शक नहीं कि डाक टिकटों की गिनती, मेरे क़स्बाई बचपन को सजाने-महकाने वाली उन चीज़ों में थी जिन्हें याद करके मुझे गुलज़ार की लिखी 'बंटी और बबली' की पंक्ति 'छोटे-छोटे शहरों से, ख़ाली बोर दुपहरों से—ग़लत और अपमानजनक लगती है।
डाक के पहले के युग में इंतज़ार अकारण था और उसका प्रतिफल आकस्मिक।
डाक की संस्कृति में शख़्सियत का स्पर्श देने की ताक़त थी।
नए डाकख़ाने की तासीर है कि कोई सुख ज़्यादा देर न चले; सुख और सनसनी में गठजोड़ मज़बूत रहे। पुराना डाकख़ाना सुख को दुःख की तरह घूँट-घूँट पीकर जीने की शैली का प्रचार-प्रसार करता था।
aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere