अगर कबरी बिल्ली घर-भर में किसी से प्रेम करती थी तो रामू की बहू से, और अगर रामू की बहू घर-भर में किसी से घृणा करती थी तो कबरी बिल्ली से। रामू की बहू, दो महीने हुए मायके से प्रथम बार ससुराल आई थी, पति की प्यारी और सास की दुलारी, चौदह वर्ष की बालिका। भंडार-घर
ऐसा कभी नहीं हुआ था... धर्मराज लाखों वर्षों से असंख्य आदमियों को कर्म और सिफ़ारिश के आधार पर स्वर्ग या नर्क में निवास-स्थान 'अलॉट' करते आ रहे थे। पर ऐसा कभी नहीं हुआ था। सामने बैठे चित्रगुप्त बार-बार चश्मा पोंछ, बार-बार थूक से पन्ने पलट, रजिस्टर
आज मिस्टर शामनाथ के घर चीफ़ की दावत थी। शामनाथ और उनकी धर्मपत्नी को पसीना पोंछने की फ़ुर्सत न थी। पत्नी ड्रेसिंग गाउन पहने, उलझे हुए बालों का जूड़ा बनाए मुँह पर फैली हुई सुर्ख़ी और पाउडर को मले और मिस्टर शामनाथ सिगरेट पर सिगरेट फूँकते हुए चीज़ों की
गर्मी बहुत तेज़ थी। तीन-चार दिनों से बराबर लू चल रही थी और जगह-जगह मौतें हो रही थीं। शहर की सड़कें चूल्हे पर चढ़े तवे की तरह तप रही थीं। बड़े लोगों ने दरवाज़ों पर खस की टट्टियाँ लगवा ली थीं और उनके नौकर उन्हें पानी से तर कर रहे थे। दूकानों पर पर्दे गिरे
“यह झाडू सीधी किसने खड़ी की?" बीजी ने त्योरी चढ़ाकर विकट मुद्रा में पूछा। जवाब न मिलने पर उन्होंने मीरा को धमकाया, "इस तरह फिर कभी झाडू की तो...” वे कहना चाहती थीं कि मीरा को काम से निकाल देंगी पर उन्हें पता था नौकरानी कितनी मुश्किल से मिलती है। फिर
(एक) खजूर के वृक्षों की छोटी-सी छाया उस कड़ाके की धूप में मानो सिकुड़ कर अपने-आपमें, या पेड़ के पैरों तले, छिपी जा रही है। अपनी उत्तप्त साँस से छटपटाते हुए वातावरण से दो-चार केना के फूलों की आभा एक तरलता, एक चिकनेपन का भ्रम उत्पन्न कर रही है, यद्यपि
ज़रूरी नहीं है फूला बाई का ज़िक्र। फिर भी एक बस्ती है, जिसे सबने देखा है। पहली बार मैं भौंचक रह गया था। पुराने मकानों में अजीब-अजीब लोग रहते थे—दूर-दूर से आए हुए लोग। लगता था पिछड़ गए हैं। आगे बढ़ने की लड़ाई में लगे हुए हैं। कुछ लड़कियाँ थीं, जो वेश्याएँ
असद मियाँ की आँखें बंद थीं। एक पल के लिए मैंने सोचा, वापिस चला जाऊँ। दूसरे ही पल असद मियाँ आँखें खोले देख रहे थे। उन आँखों में कोहरा भरी सुबह-सी रौशनी थी। —ख़ुदा के लिए अयाज़...सीना दर्द से टूटा जा रहा है। सुहेला भाभी आइने के सामने खड़ी हुई डैबिंग
हमारे गाँव में ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था। साबुन का नाम हमने और दूसरे लोगों ने सुना ज़रूर था, लेकिन दो-चार ही लोग ऐसे मिलेंगे जिन्होंने उसे सचमुच देखा हो। 'साबण' का नाम भी लोगों को मालूम था तो सिर्फ़ फ़ौजियों की बदौलत और थोड़ा इसलिए भी कि जब एक बार डिप्टी
'अपन का क्या है/अपन उड़ जाएँगे अर्चना/धरती को धता बताकर/अपन तो राह लेंगे/पीछे छूट जाएगी/घृणा से भरी और संवेदना से ख़ाली/इस संसार की कहानी'—एयर इंडिया के सभागार में पिन ड्राप साइलेन्स के बीच राहुल बजाज की कविता की पंक्तियाँ एक ऐंद्रजालिक सम्मोहन उपस्थित
इस बात में शक की कोई गुंजाइश नहीं। वह मकान वेश्यागृह ही था। मंदिर नहीं था। धर्मशाला भी नहीं। शमशाद ने कहा था—तुम्हें कोई तकलीफ़ नहीं होगी। सोने के लिए धुला हुआ बिस्तरा मिलेगा। सुबह वहीं नहा-धो लोगे, चाय पीकर चले आओगे। मैंने कहा था ठीक है। सेल्समैन को
वह बात न मीरा ने उठाई, न ख़ुद उसने। मिलने से पहले ज़रूर लगा था कि कोई बहुत ही ज़रूरी बात है जिस पर दोनों को बातें कर ही लेनी हैं, लेकिन जैसे हर क्षण उसी की आशंका में उसे टालते रहे। बात गले तक आ-आकर रह गई कि एक बार फिर मीरा से पूछे—क्या इस परिचय को स्थायी
aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
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