

बेइज़्ज़ती में अगर दूसरे को भी शामिल कर लो तो आधी इज़्ज़त बच जाती है।

कुसंस्कारों की जड़ें बड़ी गहरी होती हैं।

नशे के मामले में हम बहुत ऊँचे हैं। दो नशे ख़ास हैं—हीनता का नशा और उच्चता का नशा, जो बारी-बारी से चढ़ते रहते हैं।

जूते खा गए—अज़ब मुहावरा है। जूते तो मारे जाते हैं। वे खाए कैसे जाते है? मगर भारतवासी इतना भुखमरा है कि जूते भी खा सकता है।

शासन का घूँसा किसी बड़ी और पुष्ट पीठ पर उठता तो है, पर न जाने किस चमत्कार से बड़ी पीठ खिसक जाती है और किसी दुर्बल पीठ पर घूँसा पड़ जाता है।

रोटी खाने से ही कोई मोटा नहीं होता, चंदा या घूस खाने से होता है। बेईमानी के पैसे में ही पौष्टिक तत्त्व बचे हैं।

गिरे हुए आदमी की उत्साहवर्धक भाषण देने की अपेक्षा सहारे के लिए हाथ देना चाहिए।

इज़्ज़तदार आदमी ऊँचे झाड़ की ऊँची टहनी पर दूसरे के बनाए घोंसले में अंडे देता है।

प्रतिभा पर थोड़ी गोंद तो होनी चाहिए। किसी को चिपकाने के लिए कोई पास से गोंद थोड़े ही ख़र्च करेगा।

दूसरे के मामले में हर चोर मजिस्ट्रेट हो जाता है।

जो जितना अंड-बंड बकता है, वह उतना ही बड़ा महात्मा होता है।

हर लड़का बाप से आगे बढ़ना चाहता है। जब वह देखता है कि चतुराई में यह आगे नहीं बढ़ सकता तो बेवकूफ़ी में आगे बढ़ जाता है।

साहित्य में बंधुत्य से अच्छा धंधा हो जाता।

सबसे विकट आत्मविश्वास मूर्खता का होता है।

मुसीबत का यही स्वभाव है कि आदमी को अपने ही से लड़ने के लिए शक्ति दे देती है।

कुत्ते भी रोटी के लिए झगड़ते हैं, पर एक के मुँह में रोटी पहुँच जाए जो झगड़ा ख़त्म हो जाता है। आदमी में ऐसा नहीं होता।

पुल पार उतरने के लिए नहीं, बल्कि उद्घाटन के लिए बनाए जाते हैं। पार उतरने के लिए उसका उपयोग हो जाता है, प्रासंगिक बात है।

ख्याति न मिलने की कुंठा भीतर-भीतर विरोधी बना देती है।

पैसा खाने वाला सबसे डरता है। जो सरकारी कर्मचारी जितना नम्र होता है, वह उतने ही पैसे खाता है।

24-25 साल के लड़के-लड़की को भारत की सरकार बनाने का अधिकार तो मिल चुका है, पर अपने जीवन-साथी बनाने का अधिकार नहीं मिला।

सिर नीचा करके चोर की नज़र डालने की अपेक्षा, माथा, ऊँचा करके, ईमानदारी की दृष्टि डालना, अधिक अच्छा है।

कोट आदमी की इज़्ज़त भी बचाता है। और क़मीज़ की भी।

मूर्ख से-मूर्ख आदमी तब बुद्धिमान हो जाता है जब उसकी शादी पक्की हो जाती है।

जनता कच्चा माल है। इससे पक्का माल विधायक, मंत्री आदि बनते है पक्का माल बनने के लिए कच्चे माल को मिटना ही पड़ता है।

वोट देने वाले से लेकर साहित्य-मर्मज्ञ ता जाति का पता पहले लगाते हैं।

सचेत आदमी सीखना मरते दम तक नहीं छोड़ता। जो सीखने की उम्र में ही सीखना छोड़ देते हैं, वे मूर्खता और अहंकार के दयनीय जानवर हो जाते हैं।
aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere