निःसंदेह हमें ब्रह्म होना है। हमारा जीवन ही व्यर्थ है यदि हम अपने इस पूर्णता के ध्येय को न पा सकें।
ब्रह्महीन कर्म अंधकार है और कर्महीन ब्रह्म उससे भी बड़ी शून्यता है।
हमारे लिए तो ब्रह्म को सत्य और जगत को मिथ्या कहने की अपेक्षा ब्रह्म को सत्य और जगत को ब्रह्म कहना अधिक उचित और हितकर है।
जिसने पर ब्रह्म का साक्षात्कार कर लिया, उसके लिए सारा जगत नंदनवन है, सब वृक्ष कल्पवृक्ष हैं, सब जल गंगाजल है, उसकी सारी क्रियाएँ पवित्र हैं, उसकी वाणी चाहे प्राकृत हो या संस्कृत-वेद का सार है, उसके लिए सारी पृथ्वी काशी है और उसकी सारी चेष्टाएँ परमात्मामयी है।
वेदांत ‘ब्रह्म-जिज्ञासा’ है तो काव्य ‘पुरूष-जिज्ञासा।’
ब्रह्म को पाने का अर्थ ब्रह्म से एकत्व पाना ही है।
असीम पूर्णता में दर्जे नहीं होते, हम ब्रह्म में धीरे-धीरे विकास नहीं पा सकते—वह अपने आप में पूर्ण है, उससे कभी अधिकता तो हो ही नहीं सकती।
अनंत ब्रह्म, अनंत लघु होने पर भी बड़ा है और बड़ा होने पर भी लघु है।
जो पुरुष निश्चय ही अंतरात्मा में ही सुख वाला है, अंतरात्मा में ही शांति वाला है तथा जो अंतरात्मा ज्ञान वाला है, वह योगी स्वयं ब्रह्मरूप होकर ब्रह्म की शांति प्राप्त करता है।
साधना हमें ईश्वर तक पहुँचाती है, तपस्या ब्रह्म तक।
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यज्ञ में अर्पण ब्रह्म है, हवि ब्रह्म है, ब्रह्म रूप अग्नि में ब्रह्म ने हवन किया है, इस प्रकार जिसकी बुद्धि से सभी क्रम ब्रह्म रूप हुए हैं, वह ब्रह्म को ही प्राप्त करता है।
तर्क द्वारा केवल हम उस वस्तु का ज्ञान पा सकते हैं जो हिस्सों में बाँटी जा सके, विश्लिष्ट हो सके। ब्रह्म का विश्लेषण नहीं हो सकता।
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ब्रह्म का ही चिंतन, ब्रह्म का ही कथन, ब्रह्म का ही परस्पर बोधन और ब्रह्म की ही एकमात्र कामना करना इसको विद्वानों के द्वारा 'ब्रह्माभ्यास' कहा जाता है।
aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere