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क्षार-पारावार

kshaar parawar

मैथिलीशरण गुप्त

मैथिलीशरण गुप्त

क्षार-पारावार

मैथिलीशरण गुप्त

छोड़ मर्यादा अपनी, वीर, धीरज धार,

क्षुब्ध-पारावार, मेरे क्षार-पारावार!

रोक सकता है तुझे क्या मृत्तिका का तीर?

थाम अपने आपको तू, अतल-गंभीर!

व्यर्थ मटमैला हो वह नील-निर्मल-नीर,

ताप-दु:शासन-दलित भू-द्रौपदी का चीर।

सुन, अमर्यादा प्रलय का खोल देगी द्वार,

क्षुब्द-पारावार मेरे क्षार-पारावार!

ये गले, पिघले हुए पर्वत-सदृश कल्लोल,

ग्रास करने जा रहे हैं, कह किसे मुँह खोल?

ये सलिल-वातूल अपने तनिक तू ही तोल,

वेग वह वेला वराकी सह सकेगी, बोल?

धीर, अपने ही हिए पर झेल उनका भार,

क्षुब्द-पारावार मेरे क्षार-पारावार!

हाय! जल में भी जले जो, एक ऐसी आग,

जान ले तब प्राकृतिक है यह प्रबल उपराग।

उचित ही यह उफनना, यह हाँफना, ये झाग,

पर ठहर प्रभविष्णु, तू, सहिष्णुता को त्याग।

काट दे बंधन सहित सब कुछ तेरी धार,

क्षुब्द-पारावार मेरे क्षार-पारावार!

मथित है, हृतरत्न है, फिर भी नहीं तू दीन,

देव-कार्य-निमित्त था वह योग एक नवीन।

पूछ देख, अनंत-कवि तेरे हृदय में लीन,

अचल-सा वह विश्व है तुच्छातितुच्छ विहीन।

तू बड़े से भी बड़ा, उस त्याग को स्वीकार,

क्षुब्द-पारावार मेरे क्षार-पारावार!

क्या अमृत के अर्थ है यह भीम तेरा नाद?

तो गरल भी तो गया, फिर कौन हर्ष-विषाद?

जानते हैं जलद तेरे क्षार-जल का स्वाद,

और जगती को जनाते हैं सदा साह्लाद।

मधुर-लावण्यमय, तू छोड़ क्षोभ-विकार,

क्षुब्द-पारावार मेरे क्षार-पारावार!

विकल है यदि तू, दिवंगत देख मंजु-मयंक,

तो निरख, उसको मिला है अचल-ऊँचा अंक।

इष्ट सबका एक-सा वह, राव हो या रंक,

वह वहीं कृतकृत्य है, रह तू यहाँ नि:शंक।

देखकर सद्गति किसी की उचित क्या चीत्कार,

क्षुब्द-पारावार मेरे क्षार-पारावार!

रह हमीं हममें यहाँ बस, ठीक है यह बात,

किंतु रक्खे एक सीमा सौम्य, तेरा गात।

अखिल में अनुभूति अपनी प्राप्त तुझको तात,

सरस है सारी रसा पाकर सलिल-संघात।

मिल हुआ दिव भी तुझी में दूर एकाकार,

क्षुब्द-पारावार मेरे क्षार-पारावार!

वस्तुत: यह क्षोभ तेरा, या अतुल उल्लास!

हाय! उपजाती बड़ों की मौज भी है त्रास।

सह्य तेजोमय किसे रवि का अखंड-विकास?

और भोलानाथ हर का हास-तांडव-रास?

ध्वंस के ही साथ क्या निर्माण का व्यवहार?

क्षुब्द-पारावार मेरे क्षार-पारावार!

शांत, गंभीर, उत्ताल, जल-जंजाल,

व्योम तेरी ऊर्मि में, आवर्त में पाताल।

व्यथित, तेरे वाष्प की रस-वृष्टि ही चिरकाल,

है हरा रखती धरा को, दे सुमुक्ता-माल!

एक तेरे अंक में है यान-गत संसार,

क्षुब्द-पारावार मेरे क्षार-पारावार!

देख अपनी ओर तू, घोर-सुंदर, सार,

लाख रत्नों से भरे तेरे धरे भंडार,

लाख लहरों का सदा तुझमें रहे संचार,

लाख धाराएँ करें तेरे लिए अभिसार।

साख एक बनी रहे, बंधन नहीं, वह हार,

क्षुब्द-पारावार मेरे क्षार-पारावार!

स्रोत :
  • पुस्तक : मंगल-घट (पृष्ठ 231)
  • संपादक : मैथिलीशरण गुप्त
  • रचनाकार : मैथिलीशरण गुप्त
  • प्रकाशन : साहित्य-सदन, चिरगाँव (झाँसी)
  • संस्करण : 1994

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