‘बिंदुघाटी’ पढ़ते तो पूछते न फिरते : कौन, क्यों, कहाँ?
अखिलेश सिंह
29 जून 2025

• उस लड़की की छवि हमेशा के लिए स्टीफ़न की आत्मा में बस गई, और फिर उस आनंद में डूबा हुआ पवित्र मौन किसी भी शब्द से नहीं टूटा...
आप सोच रहे होंगे कि यहाँ किसी आशिक़ की किसी माशूक़ के लिए मक़बूलियत की बात की गई है। ऐसा सोचना कुछ ग़लत नहीं है। लेकिन ‘बिंदुघाटी’ यूँ ही नहीं बनती। यहाँ काल-अखंडता की समझाइशें मिलती हैं। जेम्स जॉयस ऊपर उद्धृत पंक्तियों में बता रहे हैं कि एक कलाकार का यूँ उदय हुआ, यूँ कला ने उसे आग़ोश में लिया।
दरअस्ल, ‘बिंदुघाटी’ कुछ लोग पढ़ते नहीं और पूछते फिरते हैं—कौन, क्यों, कहाँ?
• एक दिन आप अपने जीवन की विडंबनाओं को भी बेच सकते हैं। उनका भी समय आता है। थोड़ा-सा अभिनय, थोड़ी-सी पहुँच और ढेर सारी बेशर्मी आपको कभी भी बाज़ार में बैठा देती है।
• कौन जाने कि कब कौन-से मुहावरे के अर्थ-विस्तार की ज़रूरत आन पड़े। बिना पसीना बहाए—प्रोपैगंडा और आत्म-प्रचार से जो धन कमा रहे हैं, वे भी वही ‘फॉस्टियन बार्गेन’ कर बैठे, हैं जैसा डॉक्टर फ़ॉस्ट ने शैतान के साथ कर लिया था। उसे तो शैतान ने चौबीस साल मौज में जीने के लिए दिए थे; लेकिन यहाँ तो विडंबनाओं को बेच रहे लोग, कभी भी नरक में गिर सकते हैं।
• पुस्तकें अलग-अलग, समीक्षा वही!
यह बीसवीं सदी के मध्य में जॉन ऑस्बोर्न कहते हैं। इस वक़्त तक ब्रिटेन में टेलीफ़ोन-तार-चिट्ठी एक ही घर में इस्तेमाल होते थे। मार्लन ब्रैंडो चर्चित हो चुके थे और उनकी ‘द मेन’ असफल हो चुकी थी।
इस स्थिति में चारों तरफ़ जो ‘बहुत ज़्यादा’ हो रहा था, सारी विचारशीलता उससे उपजे एब्सर्ड के प्रभाव में थी।
• पुस्तकें बहुत छप रही हैं। उन पर समीक्षाएँ भी बहुत छप रही हैं। समीक्षाओं के पुष्प-अर्घ्यों से पुस्तकें शालिग्राम में तब्दील हो रही हैं।
हाल ही में आई एक पुस्तक पर हाल ही में छपी बहुत सारी समीक्षाओं के संकलन वाली पुस्तक हाल ही में छपने की घोषणा हुई है। पुस्तक आने दो, फिर उस पर समीक्षाएँ भी आएँगी।
कभी सदानंद शाही, कभी चंदन चौबे!
हरकतें वही, खिलाड़ी कई!
• हाल ही में यानी फिर हाल ही में फ़ादर्स डे पर पिताओं पर कविताएँ शाया हुईं। इन्हें पढ़ते हुए ऐसा लगा कि इन्हें लिखने वाले ‘बच्चे’ कल ही डिटेंशन कैंप से बाहर आए हैं। इनकी ‘डैडी-प्रॉब्लम’ अभी-अभी कल ही खोजी गई है। अब ये इल्हाम से वाबस्ता हैं।
इनकी पिता-दृष्टि में पिता—जरा-मरण-ज़िम्मेदारियों से मुक्त हैं। वात्सल्य, शृंगार समेत जीवन के तमाम रस-व्यवहारों से च्युत हैं। वे कोई महाशक्तिसंपन्न पौराणिक पिता हैं, जिन्होंने किन्हीं ख़ास उद्देश्यों से इन ‘बच्चों’ को उत्पन्न किया। ये उत्पन्न होकर समीक्षक हो गए और फिर हालिया इल्हामों से गुज़रकर—बाल-बुद्धि कवि।
• यह कैसा कवि-समय है! कुछ निश्चित विषय हैं और कुछ निश्चित वाक्य। कहीं कोई भिन्नता है तो कविता की मैं-कारिता में और स्लेट के पीछे लिखे अनन्य निजी संबंधों में।
लोकप्रियतावाद की खैलर में कवि-कुनमुनाहटें कुचल उठी हैं।
• समकालीन साहित्यिकों का हर वाक्य अब अंतिम होना चाह रहा है। आप जिसे गद्य कहते हैं, उसके वाक्य उपसंहार के लिए क्यों तैयार बैठे हैं!
अब कच्चेपन की खटास कहीं नहीं है। सीधे सड़ान है। सब तरफ़ पके हुए आम हैं, भले ही दो दिन में कार्बाइड से पके हों।
• नाम-जप!
वह मेट्रो में मिला। फली-फूली देहवाला एक ख़ुश-ख़ुश नवयुवक। वह एक अनिच्छुक-से श्रोता से लगातार मन पर नियंत्रण की बातें कर रहा था। वह बृजवासी था। कुछ ही देर में किसी अन्य समधर्मी की तजवीज़ करके वह चट से बोला, ‘‘कितना नामजप हो जाता है!’’
इसके बाद लोक-कल्याण मार्ग नामक मेट्रो स्टेशन पर उछले हुए फुटबॉल की तरह वह बाहर आया और बड़ी देर तक सीधी नही हो रही चप्पल की तरह ज़हमतें पेशकर स्थिर हुआ।
मुझ मास्कमुखी को उसने थोड़ी देर निहारा और अपनी ज़िप तीन बार चेक की। वह फ़ोन निकालकर चलते हुए आगे उझुक गया; भला हो घुटने का, जो फिर भी बचा रहा। यह नामजप का प्रभाव और मन पर नियंत्रण ही है कि वह फिर उठ खड़ा हुआ और चला भी...
• मामले खुलते और बंद होते रहने चाहिए। इससे ही ज़िंदगी में चार्म रहता है। ट्रंप महोदय यह बात जानते हैं। इसीलिए झाँक रहे मामले को पूरा खोल देते हैं और फिर बंद करने की घोषणा कर देते हैं।
फ़ेसबुकियों को भी मामले सूँघने में देर नहीं लगती; लेकिन मामला न खुलने पर वे तरह-तरह की कलाबाज़ी दिखाते हैं, कसमसाते हैं।
मामले कैसे भी हों, वे धीरे-धीरे विरूप होने लगते हैं। वे प्रायः न्याय के प्रश्न से शुरू होकर, बहुतों की मामलतदारी हल करने लगते हैं।
• देश की सारी क्षेत्रीय अस्मिताओं के पास गवैये और गाना बनैये हैं। हर इलाक़े के लेखकों को अपने-अपने गवैयों तक अपनी बात पहुँचानी चाहिए। यह लेखकीय मामलतदारी का नया विस्तार होगा। इससे घटनाओं को धुन और लय मिलेगी। सब तरफ़ एक संगीत होगा!
इस प्रकार बैक्टीरियल मामला भी वायरल होगा।
• संसार में अच्छाइयों का संचार ऐतिहासिक कही जाने वाली घटनाओं पर ही पूरी तरह से निर्भर नहीं है।
यह ‘मिडलमार्च' उपन्यास की अनुगूँज है। लेकिन यह बात बहुत पुरानी है। दादियों के दादाओं से भी पुरानी। आज अगर जॉर्ज एलियट जैसी महान् लेखिका होतीं, तब अच्छाइयों के निरंतर प्रसार में फ़ेसबुकियों और यूट्यूबरों के महती योगदान की डिटेलिंग करतीं... या शायद वह भी कोई लुंगीछाप यूट्यूबरी होतीं!
• बोधिसत्व!
बोधिसत्व—अर्थात् : दस पारमिताओं का पूरी तरह पालन करने वाला, बुद्धयान पर आरूढ़, सांसारिक प्राणियों की मुक्ति में सहायक, बुद्धत्व का अधिकारी...
कुछ शब्द-नाम—केवल शब्द-नाम भर नहीं होते, उनकी कुछ परिभाषाएँ होती हैं। इन परिभाषाओं का स्मरण करते-कराते रहना चाहिए... क्या पता कब कौन-सा शब्द-नाम या पदवी-उपाधि साधनाच्युत छद्म नाम में तब्दील हो जाए।
यह ठीक नहीं होगा कि कोई कहे कि बोधिसत्व क्राइम पैट्रोल हुआ पड़ा है!
• फ़ेसबुक पर अनफ़्रेंड करने में एक ही जगह दो बार छूना भर पड़ता है।
लेकिन लोग ‘बहिष्कार’ जैसे भारी शब्द पर प्रतिक्रिया देते हुए इस प्रकार व्यक्त होते हैं : ‘‘मैं तो बहुत पहले से ही उसे मित्र-सूची से बाहर का रास्ता दिखा चुकी/चुका हूँ।’’
इतने बड़े वाक्य में ऐसा दृश्य खड़ा हो रहा है, जैसे बाक़ायदा बिस्तर तक कब्ज़ा करके बैठे व्यक्ति को झाड़ते-फटकारते-धकियाते हुए घर से बाहर किया गया और दरवाज़ा भी मुँह पर ही इतना ज़ोर से बंद किया गया कि पड़ोसियों तक के चूने झड़ गए।
अनफ़्रेंड जैसे तुरंता कर्म के लिए इतना अद्भुत दृश्य संभव करने वाले वाक्य की क्या ज़रूरत है!
ख़ैर!
क्या कहा जाए!
• क्योंकि यह आषाढ़ है!
किसान
प्रेमी
लताएँ
सब संभावना से हैं...
हम शुभकामना से हैं—
सबको सबकी परिभाषाओं का आषाढ़ मिले!
• एक अच्छी परिभाषा देकर—बच्चों या किशोरों को बाबा-सुधारक-क्रांतिकारी-स्वैगर आदि बनने से कभी भी रोक दिया जाता है।
अब देखिए ज़रा कि ‘यूट्यूब’ लाइव-स्ट्रीमिंग के मामले में उम्र की सीमा बनाने जा रहा है—सोलह बरस!
• सत्रहवाँ बिंदु 17 अंक के विषय में है, जिसका मूलांक 8 है। यह शनि का अंक है, जबकि ‘बिंदुघाटी’ ऐसी बातों से पार जाकर रविवार को नज़र आती है।
•••
अन्य बिंदुघाटी यहाँ पढ़िए : कविताएँ अब ‘कुछ भी’ हो सकती हैं | क्या किसी का काम बंद है! | ‘ठीक-ठीक लगा लो’—कहना मना है | करिए-करिए—अपने प्लॉट में कुछ नया करिए!
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