बारहमासी के फूल
आशीष कुमार शर्मा
28 जून 2025

मुझे तस्वीरें निकालने का बड़ा भारी शौक़ है। ख़ूब तस्वीरें निकालता हूँ उनकी—जो सुंदर लग जाए मन को, जो रमणीक हो, जो मनोरम हो। इसी कारण फूलों की तस्वीरें भी निकालता आया हूँ, लेकिन इस वसंत मैंने फूलों पर ग़ौर करना शुरू किया।
हुआ यूँ कि जब फूलों की तस्वीरें खींची तो उन्हें आगे भेजा भी। कभी व्हाट्सएप तो कभी इंस्टाग्राम पर। भेजने पर बदले में उनके नाम पूछे गए, फिर क्या—काला अक्षर, भैंस बराबर। कभी बाग़बानी में, पौधों में या हॉर्टिकल्चर में कोई ख़ास दिलचस्पी नहीं रही तो नाम कहाँ से मालूम होने थे। फिर भी कहीं न कहीं एक शर्मिंदगी-सी हुई कि प्रकृति की इतनी सुंदर कल्पना को देख पा रहा हूँ, उनकी तस्वीरें क़ैद कर पा रहा हूँ, लेकिन उनका नाम तक नहीं जानता। यह उस सुंदर कल्पना, उस क्षण और तस्वीर के साथ न्याय नहीं हुआ।
वैसे सौंदर्यबोध नाम पर निर्भर करता भी नहीं है। सौंदर्य तो आश्चर्य पर निर्भर करता है। कदाचित अनुपलब्धता और उससे जन्मी लालसा पर भी। फिर भी नाम मालूम होना अच्छा ही है। गुण-धर्म का आकलन उसी से प्रारंभ होता है। यह नाम और रूप का द्वंद्व तो शास्त्रीय द्वंद है। गोस्वामी तुलसीदास ने श्रीरामचरितमानस में नाम और रूप के द्वंद्व पर क्या कुछ नहीं लिखा। इस पद और पदार्थ के द्वंद्व को विद्वानों के लिए छोड़कर मैं इस बात कि संतुष्टि से बढ़ता हूँ कि फूलों की तस्वीरों से आगे मैंने फूलों पर भी ग़ौर किया।
सेमल के फूल, टेसू के फूल, सरसों के फूल, बोगनवेलिया, मधुमालती, अशोक के फूल। सब पर ध्यान गया। वसंत की धूप जब नीम के पाण्डुर पत्रों पर पड़ती है तो वे भी किसी प्रज्ज्वलित पुष्प के समान ही सुंदर प्रतीत होते हैं। इन तस्वीरों के साथ ही मैंने आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के पुष्प-केंद्रित निबंध भी पढ़े—‘शिरीष के फूल’, ‘अशोक के फूल’, ‘कुटज’।
इस पूरे घटनाक्रम में एक पुष्प मेरे ध्यान के केंद्र से दूर रहा और जब उस पुष्प की स्मृति आई तो एक क्षोभ-सा हुआ। क्षोभ इस बात का कि एकदम से कैसे यह पुष्प मेरे ध्यान से ओझल हो गया? पर जो हुआ, सो हुआ। वह पुष्प बारहमासी था।
बारहमासी एक छोटा-सा फूल है। उसकी प्रासंगिकता नगण्य है। शास्त्र उसका वर्णन नहीं करते। किसी देवता का प्रिय पुष्प होने का सौभाग्य उसे नहीं मिला। कोई महाकाव्य किसी अलौकिक रूप से लिपटी सुंदरी के अलंकरण में उस पुष्प को प्रयुक्त नहीं करता। महाकवियों ने उसे कविताओं में नहीं लिखा। विचारकों, दार्शनिकों ने उसमें बिंब नहीं तलाशे। सौंदर्य के विशाल समंदर से दूर बारहमासी साहिल पर खड़ा रहा। बारहमासी वंचित रहा।
ऐसे तुच्छ पुष्प को भी मैं तुच्छ न मान सका। मेरे लिए बारहमासी तुच्छ न रहा। कभी न हो सका। उसका कारण है कि बारहमासी बड़बोलेपन से दूर रहने की गुंजाइश देता है।
मसलन गुलाब बड़ा भारी फूल है। नाम, रुतबा, महत्त्व सब—गुलाब का भारी-भरकम है। गुलाब माहौली फूल है। गुलाब के भाव बढ़े हुए हैं। बढ़ाए गए हैं। गुलाब को भेंट देना भारी काम है। ज़िम्मेदारी का काम। गुलाब आकर्षण का केंद्र होता है। कल्पना करिए कोई अपने प्रिय को अपना प्रेम, स्नेह, लगाव या समर्पण प्रकट करने के लिए गुलाब भेंट करने जा रहा हो तो फूल ख़रीदने से लेकर भेंट किए जाने तक वह चमकता गहरा लाल गुलाब कितनी नज़रों से गुज़रता जाता है। गुलाब पर इतना लिखा गया है। गुलाब की प्रशस्ति को कहने वालों ने इतना बाँचा है कि वह नमूदार हो गया है। हर नज़र उस चेहरे को पढ़ने का प्रयत्न करती है, जो उस फूल को लेकर कहीं रवाना हुआ होता है।
उस लाल गुलाब को देखकर उस एक आदमी की एक प्रेम-कहानी हर एक देखने वाले की कल्पना के साथ-साथ उतने ही रूपों में प्रकट होने लगती है। गुलाब तमाशा हो जाता है। गुलाब चिल्लाता है—“देखो इसे प्रेम प्रकट करने के लिए मेरी ज़रूरत है। मैं न होता तो इसका क्या होता?” गुलाब दंभी पुष्प है। उसे हथेली में नहीं दबाया जा सकता। वह अपने सैनिक साथ लेकर चलता है। उसे दबाने पर वे हमला करते हैं। रक्तरंजित कर देते हैं और यदि उन शूलसैनिकों को उखाड़कर गुलाब को हथेली में दबा भी लिया जाए; तो मैं हर प्रेमी से पूछता हूँ, “अपनी प्रियसी को कुचला गुलाब दोगे?”
इसीलिए बारहमासी मुझे बेहतर लगता है। यदि बारहमासी को फिर से तुच्छ पौधा कहें तो आदमी को तुच्छ पौधे ही भेंट करने चाहिए। बारहमासी की कोई गंध नहीं है। उसका रंग ऐसा नहीं है कि उसके लिए कामदेव की स्तुतियों को स्मृत करना पड़े। वह फूलों की दुकान पर नहीं मिलता। उसे बस चलते-चलते तोड़कर ले जाया जा सकता है। वह इतना छोटा है कि मुट्ठी बंद करने पर भी उसका आकार ज्यों का त्यों बना रहेगा। उसके पास शूलसैनिक भी नहीं हैं। उसे किसी बात का दंभ नहीं है। उसे अपना रुतबा नहीं बचाना। उसे विशेष होने का कोई दबाब नहीं है। वह अप्रासंगिकता का सुख भोग रहा है।
बारहमासी बड़बोलेपन से दूरी की गुंजाइश रखता है। यदि बारहमासी को भेंट दिया जाता है, तो उसे देने वाला बिना तमाशे के उसे दे सकता है और लेने वाला बिना बड़ी भारी ज़िम्मेदारी के साथ उसे ले सकता है। गुलाब लेना ज़िम्मेदारी की बात है। बारहमासी नहीं है। उसे तुरत लेकर क्षण भर प्रसन्न होकर भुलाया जा सकता है। तुरत ही जीवन की द्रुत गम्यता को अंगीकार किया जा सकता है। बारहमासी खो जाने पर दुख नहीं होता है। उसे सहेजा नहीं जाता। लोग उसे किताबों के बीच में दबाकर नहीं रखते। उसे यदि ऐसा रखा भी जाए तो वह ग़ायब हो जाएगा। वह इतना छोटा है कि सूखकर खाक हो जाएगा। वह अपनी स्मृति के नक्कारे नहीं पीटता।
बारहमासी अस्ल में उस स्मृति का प्रतीक है, जिसके निर्माण पर ज़बरदस्ती नहीं की गई। जिसके बनते हुए यह ग़ौर नहीं किया गया कि यह क्षण स्मृतिलोक में सुसज्जित होगा। वह प्रेम के उस सुखद पल का प्रतीक है जो घटित हुआ, बिना भूत के बोझ के, बिना भविष्य की कल्पना के, वर्तमान की सहजता रही। वह घटित हुआ। चला गया। बारहमासी का एक पंचपर्णी, जीर्ण, गंधरहित पुष्प एक प्रेमी ने अपनी प्रेमिका को दिया और उसे प्रेमिका ने स्वीकार कर लिया। प्रेम का प्राकट्य हुआ। प्रेम चिल्लाया नहीं। वह पुष्प कुछ देर बाद खो गया, पर भेंट पूरी हो गई। उसे ज़बरदस्ती सहेजा नहीं गया। वह पल चला गया, पर स्मृति में अमर हो गया। उसे ज़बरजस्ती जकड़ा नहीं गया। प्रेम का सर्वोच्च स्वरूप सहजता ही है। सो बारहमासी सहजता से सफल हुआ।
गुलाब एक तीक्ष्ण स्मृति है। प्रगाढ़ स्मृति। गुलाब चला जाए या गुलाब देने वाला चला जाए तो उनकी स्मृति दुख देती है। सुख की अनुपस्थिति, दुख की उपस्थिति से अधिक कष्टकारक होती है। जबकि बारहमासी की स्मृति एक क्षणिक स्मृति है। एक उछली स्मृति। उसे इस तरह भी याद किया जा सकता है कि हाँ एक क्षण था। सुंदर था। मेरा था। अब नहीं है। चला गया, क्योंकि उसे जाना ही था। यही उसका प्रारब्ध था। इसीलिए मैं बारहमासी को अधिक मानता हूँ।
अमरीकी कवयित्री लुईस ग्लूक ने कहा है, “हम दुनिया को एक बार देखते हैं, बचपन में। बाक़ी सब स्मृतियाँ हैं।” बारहमासी मुझे इसलिए भी प्रिय है, क्योंकि यह मेरी बचपन की स्मृति का हिस्सा है। मेरे घर में बारहमासी के फूल हुआ करते थे। कदाचित् इस कारण ऐसा हो। पर मुझे याद आता है कि मेरे घर में गुलाब भी हुआ करता था। अस्ल में पूरा खेल स्मृति का ही तो है। मैंने बारहमासी को याद कर लिया है। मेरा क्षोभ जा रहा है, क्योंकि चाहे स्मृति गुलाब की हो या बारहमासी की, क्षोभ बहुत अधिक देर तक नहीं रहना चाहिए।
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आशीष कुमार शर्मा को और पढ़िए : ‘गुनाहों का देवता’ से ‘रेत की मछली’ तक | ‘अभिमान’ और रोमांटिसाइजेशन की दिक़्क़त
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