Font by Mehr Nastaliq Web

रविवासरीय : 3.0 : एक सुझाववादी का चाहिएवाद

• ‘नये शेखर की जीवनी’ शीर्षक कथा-कृति के प्रथम खंड में इन पंक्तियों के लेखक ने एक ऐसे समीक्षक का वर्णन किया है; जिसके कमरे में केवल वे ही किताबें थीं, जिनकी उसने समीक्षाएँ की थीं। यह कुछ-कुछ वैसा ही है; जैसा जोसे सरामागो के उपन्यास ‘द हिस्ट्री ऑफ़ द सीज़ ऑफ़ लिस्बन’ के नायक राइमुंदु सिल्वा के घर में केवल वे ही किताबें थीं, जिनके उसने प्रूफ़ पढ़े थे।

राइमुंदु सिल्वा एक ग़लती सुधारने की सदिच्छा में एक दूसरी ग़लती कर बैठता है। इसके फलस्वरूप पुर्तगाल का सारा इतिहास ही बदल जाता है।

प्रूफ़रीडर्स की ताक़त का अंदाज़ा प्रकाशकों को नहीं, लेखकों को होता है; वैसे ही जैसे समीक्षकों की ताक़त का अंदाज़ा लेखकों को नहीं, संपादकों को होता है।

संपादक प्राय: समीक्षकों को इस्तेमाल करते हैं।

‘‘मैं भी इस्तेमाल हुआ हूँ।’’—

यह स्वीकार करने के बाद वह समीक्षक कहता है, ‘‘बग़ैर किताब पढ़े किसी किताब की समीक्षा करना, बग़ैर कपड़े उतारे...’’ इस बीच उसका फ़ोन बजता है और यह बात अधूरी रह जाती है। इसके बाद वह इस बात को छोड़ दूसरी बातें बताने लगता है कि कैसे एक कविता-संग्रह की समीक्षा करके उसने एक बहुत अस्थायी नौकरी पाई थी, कैसे एक उपन्यास की समीक्षा करके वह दो दिन और दो रात अपनी पसंदीदा शराब ठीक से पी सका था और एक रात ठीक से सो सका था और कैसे एक कहानी-संग्रह की समीक्षा ने उसे अपने कमरे का किराया चुकाने में मदद की थी।

किताबों और उनकी समीक्षाओं और उनसे जुड़ी स्मृतियों की संख्या समान थी—उसके कमरे और दिमाग़ में। सब मिलाकर जो जोड़ बनता था, वह केवल एक तात्कालिक ज़रूरत भर था।

इस समीक्षक ने कोई ग़लती नहीं सुधारी, उसने कोई बड़ी ग़लती नहीं की, उसने ‘द हिस्ट्री ऑफ़ द सीज़ ऑफ़ लिस्बन’ नहीं पढ़ा... क्योंकि वह समीक्षा के लिए उसके पास नहीं आया!

• हमारा काम भले ही समीक्षा लिखना क्यों न हो; लेकिन हमारी कोशिश बराबर यह रहनी चाहिए कि हम समीक्षा के लिए उन पुस्तकों को ही चुनें, जिन्हें पढ़ने में हमारी वाक़ई दिलचस्पी हो। हिंदी में बग़ैर किताब पढ़े उसका ब्लर्ब/फ़्लैप/जैकेट, उसकी भूमिका और समीक्षाएँ गढ़ने की परंपरा रही आई है। कई शीर्षस्थानीय महानुभाव तो समय-समय पर बग़ैर पुस्तक पढ़े उस पुस्तक पर पर्चे पढ़ने और माइकतोड़ वक्तव्य देने जैसी ‘ज़रूरी’ ज़िम्मेदारियाँ भी अदा करते आए हैं।

• एक समकालीन समीक्षा में जहाँ तक संभव हो—‘प्रतिरोध’, ‘जनोन्मुखी’, ‘प्रासंगिकता’ सरीखे शब्दों के प्रयोग से भरसक बचना चाहिए।

• एक समकालीन समीक्षा में इस प्रकार के वाक्यों से भी भरसक बचना चाहिए—

~ भिन्न आस्वाद की रचनाएँ।
~ नई ज़मीन तोड़ती रचनाएँ।
~ रचनाकारों की भीड़ में रचनाकार को एक अलग पहचान देती रचनाएँ।
~ उम्मीद जगाती हुई रचनाएँ।
~ पठनीय और संग्रहणीय रचनाएँ।

• प्रत्येक वाक्य जब तीन डॉट [...] के साथ ख़त्म हो, तब यह समझ लेना चाहिए कि भाषा नहीं है और न इतनी तमीज़ कि वाक्य को कहाँ छोड़ा जाए!

• समीक्षा [यहाँ समीक्षा को विस्तृत अर्थ में लीजिए] में शालीन ढंग से आक्रामक होने का कोई अर्थ नहीं होता। यह एक बहुत आज़माई हुई कला है, जो बहुत दूर तक असर नहीं करती है; हालाँकि आक्रामकता भी एक बहुत आज़माई हुई कला है, लेकिन उसमें अब भी यह गुण बाक़ी है कि वह अगर बेहतर तरह से बरती जाए तो कभी ज़ाया नहीं जाती।

नाम लिए बग़ैर बात करने का प्रायश: कोई अर्थ नहीं होता।

‘एक कवि की टिप्पणी देखिए...’, ‘एक आलोचक लिखते हैं...’, ‘अभी हाल में एक कवि-आलोचक ने यह वक्तव्य प्रकाशित किया है कि...’, ‘हिंदी के एक बेहद प्रतिबद्ध और संवेदनशील आधुनिक कवि...’, ‘एक प्रसिद्ध वामपंथी कवि के इन शब्दों में...’, ‘एक वरिष्ठ आलोचक का यह जुमला...’, ‘राजधानी दिल्ली में एक कवि के यहाँ ठहरा था...’ ये कुछ अधूरी पंक्तियाँ उद्धृत करने से आशय यहाँ यह संकेत करना है कि नामों से बचकर आप जहाँ जाते हैं, उस जगह को शास्त्रों में सुविधा और भय कहते हैं।

विनम्र असहमति सरीखा कुछ नहीं होता।

• कृति के अंदर ले जाने वाली, दर्शक-श्रोता-पाठक को ख़ाली समझने वाली, संदेश खोजने-देने वाली, कमेंट्री करने वाली, नैतिक उपदेश देने वाली, निष्कर्ष देने वाली, स्टार देने वाली, रेटिंग देने वाली, समीक्षाओं से प्रभावित होकर संभव होने वाली समीक्षा महत्त्वपूर्ण नहीं होती।

समीक्षा—समीक्षा तक ले जाने वाली नहीं, कृति के प्रवेश-द्वार तक ले जाने वाली और फिर वहाँ से हट जाने वाली होनी चाहिए।

• फ़िल्म की समीक्षा करते हुए : अगर सिनेमा की तकनीक का कोई ज्ञान न हो, तब उस पर कोई बात न करें—क्राफ़्ट पर करें; क्राफ़्ट की कोई जानकारी न हो, तब उस पर कोई बात न करें—कहानी पर करें; कहानी की कोई ख़बर न हो, तब उस पर कोई बात न करें—संगीत पर करें; संगीत में कोई रुचि न हो, तब उस पर कोई बात न करें—रंगों पर करें; रंगों से कोई परिचय न हो, तब उन पर कोई बात न करें—भाषा पर करें, भाषा से कोई संबंध न हो... तब समीक्षा न करें।

• एक समीक्षक को—

सौ फ़िल्में देखने के बाद एक फ़िल्म की समीक्षा करनी चाहिए।
सौ पुस्तकें पढ़ने के बाद एक पुस्तक की समीक्षा करनी चाहिए।
सौ पृष्ठ पढ़ने के बाद सौ शब्द लिखने चाहिए।

• समीक्षा का गद्य सुललित होना चाहिए, वाक्य सुगठित—कम शब्द लिए हुए।

• एक समीक्षक का प्राथमिक दायित्व समीक्षा करने की इच्छा की समीक्षा करना है।

•••

अन्य रविवासरीय : 3.0 यहाँ पढ़िए — गद्यरक्षाविषयक | पुष्पाविषयक | वसंतविषयक | पुस्तकविषयक | प्रकाशकविषयक | प्रशंसकविषयक | भगदड़विषयक | रविवासरीयविषयक | विकुशुविषयक | गोविंदाविषयक | मद्यविषयक | नयानगरविषयक

 

'बेला' की नई पोस्ट्स पाने के लिए हमें सब्सक्राइब कीजिए

Incorrect email address

कृपया अधिसूचना से संबंधित जानकारी की जाँच करें

आपके सब्सक्राइब के लिए धन्यवाद

हम आपसे शीघ्र ही जुड़ेंगे

26 मई 2025

प्रेम जब अपराध नहीं, सौंदर्य की तरह देखा जाएगा

26 मई 2025

प्रेम जब अपराध नहीं, सौंदर्य की तरह देखा जाएगा

पिछले बरस एक ख़बर पढ़ी थी। मुंगेर के टेटिया बंबर में, ऊँचेश्वर नाथ महादेव की पूजा करने पहुँचे प्रेमी युगल को गाँव वालों ने पकड़कर मंदिर में ही शादी करा दी। ख़बर सार्वजनिक होते ही स्क्रीनशॉट, कलात्मक-कैप

31 मई 2025

बीएड वाली लड़कियाँ

31 मई 2025

बीएड वाली लड़कियाँ

ट्रेन की खिड़कियों से आ रही चीनी मिल की बदबू हमें रोमांचित कर रही थी। आधुनिक दुनिया की आधुनिक वनस्पतियों की कृत्रिम सुगंध से हम ऊब चुके थे। हमारी प्रतिभा स्पष्ट नहीं थी—ग़लतफ़हमियों और कामचलाऊ समझदारियो

30 मई 2025

मास्टर की अरथी नहीं थी, आशिक़ का जनाज़ा था

30 मई 2025

मास्टर की अरथी नहीं थी, आशिक़ का जनाज़ा था

जीवन मुश्किल चीज़ है—तिस पर हिंदी-लेखक की ज़िंदगी—जिसके माथे पर रचना की राह चलकर शहीद हुए पुरखे लेखक की चिता की राख लगी हुई है। यों, आने वाले लेखक का मस्तक राख से साँवला है। पानी, पसीने या ख़ून से धुलकर

30 मई 2025

एक कमरे का सपना

30 मई 2025

एक कमरे का सपना

एक कमरे का सपना देखते हुए हमें कितना कुछ छोड़ना पड़ता है! मेरी दादी अक्सर उदास मन से ये बातें कहा करती थीं। मैं तब छोटी थी। बच्चों के मन में कमरे की अवधारणा इतनी स्पष्ट नहीं होती। लेकिन फिर भी हर

28 मई 2025

विनोद कुमार शुक्ल का आश्चर्यलोक

28 मई 2025

विनोद कुमार शुक्ल का आश्चर्यलोक

बहुत पहले जब विनोद कुमार शुक्ल (विकुशु) नाम के एक कवि-लेखक का नाम सुना, और पहले-पहल उनकी ‘प्रतिनिधि कविताएँ’ हाथ लगी, तो उसकी भूमिका का शीर्षक था—विनोद कुमार शुक्ल का आश्चर्यलोक। आश्चर्यलोक—विकुशु के

बेला लेटेस्ट