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‘जब सोशल मीडिया नहीं था, हिंदी कविता अधिक ब्राह्मण थी’

 

वर्ष 2018 में ‘सदानीरा’ पर आपकी कविता-पंक्ति पढ़ी थी—‘यह कवियों के काम पर लौटने का समय है’। इस बीच आप फ़्रांस से लौटकर आ गए। इस लौटने में काम पर कितना लौटे आप? 

2018 में जब यह कविता-पंक्ति संभव हुई थी, तब देश में नफ़रत की राजनीति को सत्ता मिले हुए लगभग चार वर्ष हो चुके थे तो यह याद करना ज़रूरी था कि कवियों का काम क्या है? या हम कहाँ-कहाँ पर चूक रहे हैं। हालाँकि हिंदी कविता के सीमित प्रसार या पाठक-संख्या को देखते हुए तात्कालिक रूप से किसी समाज-सुधार या जनजागरण की अपेक्षा अब मैं नहीं करता हूँ। बहुत सारे माध्यम हैं, जो बदलाव के लिए बहुत कुछ कर रहे हैं। सामूहिकता पर मेरा भरोसा आज भी बना हुआ है।

फ़्रांस जाना कई मायनों में एक अद्भुत अनुभव रहा। मैं जहाँ से आता हूँ, वहाँ ट्रेन के स्लीपर क्लास से यात्रा करना भी एक लक्ज़री ही माना जाता है। 36 वर्ष तक जो आदमी एक शहरी झोंपड़ी में रहा हो, बारिश जिसके परिवार का सबसे बड़ा भय हो... रोज़ सुबह एक आम मध्यवर्गीय नागरिक उठते ही जिन कामों को बेहद आसानी से संपन्न कर लेता हो, वह एक झुग्गी-झोंपड़ी वाले की पीड़ा आसानी से नहीं समझ सकेगा। चार बाई बारह की झोंपड़ी, ठीक बग़ल में एक बदबूदार नाली... उदय प्रकाश की एक बहुपठित कहानी है—‘मैंगोसिल’... तो मैंगोसिल जहाँ जिस गंदगी में जन्म लेता है या उसके आस-पास का जो माहौल है, बस वही समझ लीजिए। उदय प्रकाश को मैं हिंदी के जीवितों में सर्वश्रेष्ठ कहता हूँ तो यह यूँ ही नहीं है। वह लोक-विडंबनाओं के आख्याता हैं। वह जगहों को बहुत गहराई से जानते हैं। यहाँ मैं अपनी अतीत-स्थितियों के सटीक बिंब की तलाश में आपको मैंगोसिल के पैदा होने की जगह तक ले जा रहा हूँ। एक और व्यक्ति हैं—अविनाश मिश्र। वह भी वहीं से आए हैं और उन्होंने शायद मुझसे ज़्यादा कानपुर या मेरे मुहल्ले को झेला है। मेरे निवास से बस डेढ़-दो सौ मीटर पर उनके बचपन की स्मृतियाँ बिखरी हुई हैं।

बहरहाल, फ़्रांस संभव हुआ... दोस्तों, अशोक वाजपेयी जी और रज़ा फाउंडेशन के उस सहयोग से, जिसके लिए हमने अनुरोध किया था। फ़्रांस ने मुझे लापरवाह नहीं रहने दिया। मुझे चित्रों को देखने में रुचि है। वहाँ की गलियों तक में आर्ट गैलरी है और लोग अपने आप आते हैं और चित्रों को देखते हैं। मेरे कई मित्रो ने वहाँ के देखे-सुने पर कई आलेख लिखे हैं। मैं इस मामले में घोर आलसी था, पर एक आलेख संभव हुआ मुझसे। रज़ा के चित्रों के साथ-साथ उस वक़्त को समझना, जब वे तैयार हो रहे थे। बहुत सारे लोगों के साथ एक बड़े आयोजन का हिस्सा बनना एक सुंदर अनुभव था। अब मैं ज़्यादा योजनाबद्ध हुआ हूँ। अब काम की गंभीरता मुझे ज़्यादा समझ में आती है। 

क्या सोशल मीडिया के आने के बाद कवियों की प्रकाशन-यात्रा आसान हुई है? 

हाँ बिल्कुल, हिंदी कविता पर संपादकों का एकाधिकार अब सीमित हुआ है। हिंदी कविता में अब अधिक दलित हैं, अधिक स्त्रियाँ और अधिक आदिवासी हैं। अब हिंदी कविता में ‘आगमन’ चारों तरफ़ से संपन्न हो रहा है। मैं कोई आरोप नहीं लगा रहा हूँ—एक आम समझ से कहता हूँ कि पहले जब सोशल मीडिया नहीं था, हिंदी कविता अधिक ब्राह्मण थी। जेंडर-भेद तो नहीं कहूँगा, पर हाँ अब चीज़ें ज़्यादा आसान हुई हैं। भाषा तक सबकी पहुँच हुई है। अब अच्छी कविताएँ आसानी से पढ़ी और प्रसारित-प्रकाशित की जा सकती हैं। सब कुछ खोल देने से कुछ अराजकताएँ भी आई हैं। संपादक की कड़ी दृष्टि अब नहीं रही। कहीं-कहीं तो यह भी हुआ है कि जो लिख दिया गया है, उसे ही कविता मान लिया जाए। अब कवि ज़्यादा इच्छाओं से भरे हैं, उन्हें वायरल होना है और पुरस्कार की इच्छाएँ तो हैं ही।

कवि तो जीवन का मारा हुआ है, वह सब कुछ हार कर यहाँ पर आया है। उसकी भटक, विकलता और वेदना उससे कविताएँ संभव करवा रही हैं। उसका वह मार खाया जीवन कहीं भटक न जाए, इसकी चिंता करनी होगी। 

हिंदी समकालीन कविता-संग्रहों के नामों में एक तरह का पुरानापन है, ख़ासकर युवाओं के कविता-संग्रहों के नाम जैसे किसी अनचीन्ही प्राचीनता की तलाश लगते हैं। आपकी क्या राय है इस पर? 

हिंदी कविता का प्रभामंडल अभी तक अस्सी के दशक से अपना प्रकाश ग्रहण कर रहा है। इस काल के कवि हमारे अंतिम कविता नायक हैं। कुछ समकालीन कवियों की भाषा देखिए, कई बार लगता है कि वे 2025 में नहीं हैं; वे 1960 के शिल्प और भाषा-सौंदर्य से भिन्न कुछ अन्य नहीं जानते हैं। उन्होंने संस्कृतनिष्ठ भाषा की कठिनता को कविता के भीतर बो दिया है, यानी कविता में कठिन की पैरोकारी से ही उनकी श्रेष्ठता के पैमाने तय होंगे। इस प्रवृत्ति को हिंदी के ख़राब प्रोफे़सरों और अड़ियल आलोचकों ने भी पोषण दिया है। कविता-संग्रहों के शीर्षक भी इसी मानसिकता के शिकार हैं। मैंने जब अपने कविता-संग्रह का नाम ‘मेरी राशि का अधिपति एक साँड़ है’ रखा तो कई लोग चकित हुए कि किसी कविता-संग्रह का ऐसा भी शीर्षक हो सकता है! यह शीर्षक बहुत ज़्यादा सवालों के घेरे में रहा। मुझे यह कहने में किसी तरह की हिचक नहीं है कि हिंदी के भीतर बहुत सारे साहस अनुपस्थित हैं। यहाँ आज भी बहुत सारे नवाचार टेढ़ी नज़र से देखे जाते हैं। हिंदी के ख़राब प्रोफे़सर हिंदी के ख़राब शोधार्थी तैयार कर रहे हैं। रचनाशीलता के नवीन उद्दीपन यहाँ बेहद कुशलता से एक उदासीन परिसर में धकेल दिए जाते हैं। अब अगर हिंदी के विभागों से कोई अच्छा कवि सामने आया तो यह आश्चर्य ही होगा। हिंदी के विभाग हिंदी के युवा कवियों को ख़राब करने की होड़ में हैं। यहाँ पुरस्कृत कृति और पुरस्कृत व्यक्ति की ही जय है, बाक़ी बस ‘अन्य’ में गिने जाते हैं।

हिंदी में प्राचीनता एक सेफ़ किला होने का भ्रम भर है, जहाँ ख़ारिज होने के ख़तरे कम हैं। पर फिर मैं कहूँगा कि स्वीकार्यता का भी अपना एक मानक होता है। समय इस मायने में कठोर है कि वह बस नए को पहचानता है, बाक़ी सब तो इतिहास का ढेर है। शीर्षक पढ़कर ही अगर कविताओं के अनुमान लग जाएँ तो फिर कौन ख़रीदेगा, कौन पढ़ेगा! पाठकीय जिज्ञासा का क्या होगा फिर? 

इस बीच आप सोशल मीडिया से ग़ायब रहे, अब दुबारा आए हैं—इसकी वजह और अनुभव के बारे में बताइए? 

कई बार आपके इर्द-गिर्द बहुत कुछ अनावश्यक जमा हो जाता है। आप उस निरर्थक के बीच उलझ जाते हैं। मैं जब आया था, तब बहुत नया था। एक छुट्टी बहुत सारी चीज़ें हल कर देती है। मैं लगभग डेढ़ वर्ष बाद लौटा हूँ, इस बीच सब काम किए—सिवाय कविता लिखने के, मित्रों से संवाद बना रहा। पर मुझे भीतर से ख़ाली होना था। पिछले बारह वर्षों से लगातार कुछ न कुछ लिखना, कहीं आपको किसी परिपाटी का अनुयायी न बना दे। लिखने का जो अपना शिल्प या भाषा है, वह दोहराई जाने वाली बात न लगने लगे। मतलब एक अपना जो ठिया है सोचने का या कहने का नयापन तलाशने की जो जिज्ञासा है या जो आपके होने का नशा है... वह कहीं न कहीं शिथिल हो रहा है तो क्या करेंगे?

अति क्या होती है? और फिर लगातार लिखने की अति, या ख़ुद को कुछ मान लेने से व्यक्ति के काम का जो ढाँचा पुराना हो गया है, उससे कैसे नजात मिले? हल कहाँ से आएगा! तो एक लंबी गहरी साँस और एक साथ सारी चीज़़ों का एग्ज़िट डोर खोल दिया गया। और फिर उस सुख को देखना, जहाँ कुछ भी कहने की बाध्यता नहीं है। चुप रहने का सुकून और उस सुकून के भीतर से अपने वक़्त को देखना। अपने होने को टटोलना। नशे की तलाश एक बार और की जाए। यह सब एक लेखक के अपने तरीक़े होते हैं। कई बार ख़ुद को ब्लॉक कर देने से शून्य का कोई अनाम इलाक़ा फिर से उपजाऊ हो जाता है। सारा खेल तलाश का है—तलाशी गई चीज़़ों से भागकर किसी नई तलाश में ख़ुद को खपा देने की तैयारी। बस यही, इतना ही।

मैं हर चीज़ पर संदेह करना चाहता हूँ। 

क्या आप मानते हैं कि आप सोशल मीडिया का रचनात्मक उपयोग कर पाए या सोशल मीडिया से आपकी कविता-यात्रा में किसी तरह की सुविधा हुई या फिर यह सिर्फ़ समय की बर्बादी साबित हुई? 

मैं यह मानता हूँ कि मैं सोशल मीडिया की पैदाइश हूँ। मैंने कभी भी काग़ज़ और पेन की सहायता से किसी कविता या कहानी को नहीं लिखा। ऐसा कई बार हुआ कि कि दिमाग़ में कुछ आया है, उसे सीधे फ़ेसबुक पर लिख दिया। कहीं कोई एडिट नहीं, रचना को कुछ वक़्त तक भी अप्रकाशित रखने का धैर्य नहीं, बस आया और सबके सामने रख दिया। इस तरीक़े ने मुझे बनाया। कविताएँ दो मिनट से लेकर दस पंद्रह मिनट में अपना अंतिम आकार ले लेती हैं। बहुत लंबी कविताएँ भी बस दो या तीन दिन के भीतर संभव हो जाएँगी। मुझमें बहुत आवेग है। मैं एकरेखीय नहीं रह पाता हूँ। यह भय बना रहता है कि मैं अपने सोचने के इलाक़े से भटक जाऊँगा। विट्गेन्स्टाइन ने क्या कहा था? कुछ यही न—जब जो सूझे, उसे उसी समय लिख लो।

मुझमें घायल स्मृतियों का एक महासागर है। मेरी कल्पना में भी उस स्मृति की अबाध पहुँच है। बिना स्मृति के कोई कल्पना संभव नहीं होती है, तो मैं ठहरा स्मृति की इज़्ज़त करने वाला। मेरा भोगा हुआ ही मेरा ईश्वर है। सोशल मीडिया ने मेरे भटकाऊ स्वभाव को सहायता ही दी है। शायद पारंपरिक रूप से, काग़ज़-पेन से, संपादकों की उपेक्षा के बीच फँसकर मैं कितना ही लिख पाता! 

कानपुर के साहित्यिक वातावरण के बारे में कुछ बताइए? 

कानपुर किसी कुएँ जैसा है। यहाँ मंचीय कविता का बोलबाला है। वीर रस से तमतमाए कुछ लिफ़ाफ़ा-प्रेमी अनपढ़—मंचीय कविता का पूरा इलाक़ा घेरे हुए हैं। मैं उनका इतिहासबोध दूर से देखता रहता हूँ। वे इतने ज़्यादा मूर्ख हैं कि बेतहाशा गर्व से भरे हैं। वे उक्ति से ज़्यादा, युक्ति जानते हैं और किताब से ज़्यादा जाति जानते हैं। वे नेतृत्व-भाव से भीगे हुए हैं। उन्हें यह भरोसा है कि पाकिस्तान को मौजूदा सरकार कभी भी तबाह कर देगी। साहित्यिक गतिविधियों के नाम पर, यहाँ ज़्यादातर प्रायोजित अहो-महो की बेशर्म ब्राह्मण-ध्वनियाँ हैं। हिंदी को हिंदू मान लेने की सुविधा उन्होंने हासिल कर ली है। वे जाति को लेकर उतने ही उद्दंड हैं, जितना नागरी प्रचारिणी सभा का कोई क़ब्ज़ाधारी बनारसी मुस्टंडा है। वे तिलकधारी हैं, जनेऊ उनके लिए प्रदर्शन की चीज़ है, उनकी इच्छाएँ उतनी ही असीमित हैं जितनी भाजपा के किसी भूमि-लोट भावी विधायक प्रत्याशी की हो सकती है। वे सब स्वभाव, चाल-ढाल, और ख़ुराफ़ात में एक जैसे ही हैं। इतना सब होकर भी वे कवि होने का ढोंग भर हैं, कवि तो कदापि नहीं हैं।

कानपुर साहित्य की किसी भी केंद्रीयता से बहुत दूर अपने ‘लोकल’ होने को लेकर जूझता रहता है। हिदीं की वैचारिक उपस्थितियों में प्रियंवद, पंकज चतुर्वेदी, आनंद शुक्ल सहित उँगलियों पर गिने जाने भर कुछ नाम हैं। इन्हीं नामों के बीच किसी बेनाम की तरह मैं भी किसी चौराहे, गली या नुक्कड़ पर पाया जाता हूँ। मैं लोकल संघी साहित्यिक मजमों से लगभग ग़ायब हूँ। अपनी साहित्यिक अनुपस्थिति के साथ मैं ख़ालिस कनपुरिया हूँ।

कानपुर अपने अतीत और मौजूदा कवियों की इज़्ज़त नहीं करता है। जहाँ कवि होने के ज़िक्र भर से व्यक्ति के सनकी होने का शक हो जाए; यह लगने लगे कि यह आदमी एकदम फ़ालतू है, वहाँ साहित्य का क्या ही अर्थ होगा! जिस कानपुर ने अविनाश मिश्र को गँवा दिया है, वह मुझे भी गँवा कर या अनुपस्थित रखकर ख़ुश रह लेगा। कानपुर साहित्य को उत्सव की तरह लेता है; जिस दिन वह साहित्य को साहित्य की तरह से लेने लगेगा, मैं उसकी सक्रियता में शामिल हो जाऊँगा। 

इस बार का आईपीएल देखा आपने? अगर नहीं तो और क्या देखा-पढ़ा... 

नहीं! मैं अब क्रिकेट नहीं देखता हूँ। अब यह इवेंट में बदल गया है; खेल नहीं रहा, व्यापार हो गया है। मैंने सचिन-सहवाग आदि के दौर तक ही क्रिकेट पसंद किया है। फ़िलहाल मुझे आत्मकथाएँ पढ़ना पसंद है, साहित्य के मित्रों की निंदा में भी बहुत सुख प्राप्त किया। कुछ लोग पसंद हैं तो उनके लिखे या किए की चर्चा कर देता हूँ। बाक़ी लड़कों वाले ही शौक़ हैं—वेबसीरीज देख लेता हूँ। कई बार अकेले बिना वजह भी बैठकर सुख महसूस हो जाता है। इधर रेशमा को सुन रहा हूँ। ज़रीना वहाब और अमोल पालेकर के गाने भी देख-सुन लेता हूँ। कुछ प्रिय लेखक-मित्र हैं, जिनसे लगातार संवाद रहता है। जीवन की अनिश्चितता से डरता हूँ और उन्हीं से फिर अपने जीवन के उत्स भी तलाश लेता हूँ। पहले आत्मविश्वास नहीं होता था। अब किसी सुख की तरह, ख़ुद पर कुछ कर लेने का विश्वास कर लेता हूँ। मैं रो लेने वाला मर्द हूँ। पहले ख़ुद के भावुक होने पर मूर्ख होने का अहसास होता था, पर अब भावुकता के पीछे की मनुष्यता समझता हूँ। 

अपने कॉलेज के दिनों और छात्र राजनीति के बारे में कुछ बताइए? 

उन्हें मेरी भीषण अराजकता का काल कह सकते हैं। वर्ष 2000 में कॉलेज पहुँचा था। वह छात्र-संघों का ऐसा दौर था, जब ख़ूनी रंजिश होती थी। हत्या तक हो जाती थी। मेरा भी एक दौर था। मैं 21 सितंबर 2003 में छात्रसंघ महामंत्री का चुनाव जीता था। कॉलेज के पिछले तीन वर्ष मेरी हिंसा के थे। निजी जीवन में कुछ न कर पाने का क्रोध कॉलेज या शहर पर उतरता था। क्राइस्ट चर्च कॉलेज मेरे सपनों का कॉलेज था; पर देखिए, युवावस्था का मेरा विचलन! मैंने बी.ए. के प्रथम वर्ष में बस एक पीरियड अटेंड किया था। बस! उसके बाद कभी कोई क्लास नहीं अटेंड की। बहुत बाद में 2009 में जब बीएड किया तो वहाँ एक अनुशासित छात्र के रूप में रोज़ क्लास जाता था।

मेरी अराजकता देखिए, क्राइस्ट चर्च कॉलेज में, वहाँ मैं बस एक ग़ुंडा था। थाना-कोतवाली बग़ल में, और ज़ाहिर-सी बात है कि आना-जाना लगा रहता था। भीतर कहीं एक नैतिकता कहती थी कि यह मत करो! यह ग़लत है। मैं तब थोड़ा जातिवादी था और उतना ही मूर्ख था, जितना आज-कल के संघी युवा होते हैं। फिर लगभग आठ वर्ष के बाद मैं ऊब गया। रोज की गैंगवार, मार-पीट, झगड़े, घात! हज़ार लड़के लेकर आप सड़क पर उपद्रव कर रहे हैं और घर में भाई-बहन हैं, पैरालाइज्ड़ पिता हैं, माँ हैं। तो आप रोड के शेर, पर घर के फ़क़ीर हुए! यह सब एक समय के बाद ख़ुद के प्रति ऊब और निराशा पैदा करते हैं। मैं भी ख़ुद से निराश हुआ। मैंने ख़ुद का एक मूल्यवान् समय खो दिया। बाद में मन लगाकर पढ़ाई की, नौकरी नहीं लगी। कॉलेज के दिन सब कुछ बर्बाद करने के दिन भी नहीं थे। सेलिब्रेटी होना क्या होता है! तब जाना! दस हज़ार लड़कों के बीच अकेले खड़े होकर बोलना! उन्हें अपना अनुयानी बनाना, मैंने अपनी पर्सनैलिटी वहीं पर पाई। मेरी उद्दंडता के रक्त में आज भी कॉलेज की अवमाननाएँ हैं। ऐसा कई बार होता है कि हाथ में डंडा लिए एक क़िस्म की अराजकता कविता के भीतर आ जाती है, उसे संभालना पड़ता है। विनम्रता सिखानी पड़ती है। यह सब मेरे अतीत का हिस्सा है। मैं इन्हीं ईंटों से बना हूँ। 

साहित्यिक कार्यक्रमों से आपकी दूरी सोची-समझी लगती है और पत्र-पत्रिकाओं में भी आपकी कविताएँ प्रायः नहीं नज़र आतीं। इसकी वजह क्या है? 

मैंने शुरुआती दौर में बहुत कविता-पाठ किए हैं। यहाँ ज़्यादा का अर्थ है—बहुत ज़्यादा! एकल कविता-पाठ के भी अनेक अवसर मिले। बहुत ज़्यादा भागम-भाग से मैंने अपनी जीविका को लगभग बर्बाद कर दिया था। मेरी दैनिकी एक हड़कंप में बदली हुई थी। फिर मेरा विवाह हुआ और पत्नी आई, फिर बच्चे आए। कवियों को पैसा कमाना नहीं आता है। वे जिस भावुकता से अपने जीवन को सँभालते हैं। उसी भावुकता से बाज़ार उन्हें बर्बाद कर देता है। तो एक तरह से साहित्यिक कार्यक्रमों से दूरी के कुछ कारण ये भी रहे। दूसरी बात एक ही जैसे व्यक्तियों, एक जैसी जगहों और एक ही जैसे रोज़मर्रा से मैं ऊब गया था।

पत्रिकाओं में कई वर्षों से कविताएँ नहीं भेजी हैं। ‘पहल’ पत्रिका का ज़माना याद आता है कि ज्ञानरंजन ख़ुद से फोन करते थे और कविताएँ माँगते थे। मेरी दो लंबी कविताएँ ‘पहल’ में आईं। भारत भवन की ‘पूर्वग्रह’ भी ठीक ही थी। उसके संपादक प्रेमशंकर शुक्ल मित्र हैं और उन्होंने कई बार छापा। और भी कई जगह छपने की स्मृतियाँ हैं, पर मुझसे संपादकों की उपेक्षा नहीं झेली जाएगी। मैं रुष्ट होने वाला आदमी हूँ। मैं बहुत आसानी से चिढ़ जाता हूँ। हिंदी कविता का संपादक जिस दैन्य-भाव के भीतर कविता को छापने का अनुरोध देखना चाहता है, वह दैन्य-भाव उसे मुझसे नहीं मिलेगा। मैं कभी किसी चीज़ के लिए अनुरोध नहीं करूँगा। आप सामने से माँगिए, मैं रचनाएँ दूँगा। मैंने दो वर्ष पूर्व अनामिका जी की वेब-पत्रिका ‘पश्यन्ती’ में लंबी कविता ‘सुनो आर्यावर्त, गुम हुई है एक सभ्यता’ उनके माँगने पर भेजी थी। ‘आलोचना’ ने कविताएँ माँगी है और वे जल्द ही उनके आगामी समकालीन कविता अंक में आएँगी। तो ऐसा नहीं है कि कोई ज़िद है कि नहीं दूँगा! बस आपको माँगना होगा। 

आख़िरी सवाल—आपके हिसाब से हिंदी-साहित्य-संसार में युवा कौन है? 

मुझे लगता है सोच से युवा हुआ जा सकता है। यानी जो नया लिख रहा है, जिसकी कला, कविता या कहानी में लगातार किसी नई बात को पहचानना संभव हो रहा हो; वह युवा है। आयु आपको किसी और रूप में बूढ़ा करती है। कई बार यह सिर्फ़ शारीरिक रूप से होता है और व्यक्ति मानसिक ऊर्जा से भरपूर होता है। ऐसे में उम्र से युवा होना या न होना एक भ्रामक बात है। आपकी रचनाशीलता चुक गई है और आप बस ख़ुद को दुहराए जा रहे हैं, फिर आप युवा नहीं रहते हैं। भले ही आप फिर तीस के आस-पास हों।

मैंने कविता या कहानी लिखने की एक लंबी यात्रा तय की है, पर फिर भी कभी थकान का अनुभव नहीं हुआ। मैं युवा हूँ। आप और ज़्यादा सुविधाजनक रूप से कह सकते हैं कि मैं 48 वर्ष का युवा हूँ। मुझे बूढ़ा होने की फ़ुर्सत नहीं है। मुझे यातना का डंक लगा है। स्मृति मुझे एक लहूलुहान व्यक्ति के रूप में पहचानती है। मुझे यह पता है कि इस विशाल ब्रह्मांड में मात्र कुछ दशक ही मुझे मिले हैं। मेरे साथ मेरा भोगा हुआ अतीत भी किसी अंधकार में खो जाएगा। मैं यूँ तो एक बहुत मामूली घटना हूँ, पर अपने होने की अदम्य ऊर्जा मुझे उम्र का एहसास नहीं होने देती है। मैं बहुत ज़्यादा जल्दी में हूँ। मेरी उम्र कहीं अटक गई है। शायद उसे यह बात पता है कि मैं उससे ज़्यादा तेज़ रफ़्तार में हूँ।

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