मैं वीगन क्यों नहीं हूँ!
रोहित अनिल त्रिपाठी
09 जुलाई 2025

सड़क पर भीख माँगते किसी व्यक्ति से कभी पूछियेगा कि गाली सुनने के बाद उसे कैसा लगता है? फिर यही ख़ुद से पूछियेगा। दोनों सवालों के जवाबों में जो अंतर आए, उससे इस समाज का अंतर आपको पता लग जाएगा। आप पेट भरने के लिए संघर्ष करते उस व्यक्ति से कह सकते हैं क्या कि वह किसी की गाली न बर्दाश्त करे। जो उसे गाली दे, वह उसे तुरत ही जवाब दे? वह ऐसा नहीं कर सकेगा। अगर आप उससे यह उम्मीद रखते हैं तो सबसे पहले आपको उसके खाने का माक़ूल इंतिज़ाम करना पड़ेगा, ताकि वह किसी की कुछ सुनने को बाध्य न हो। अन्यथा उसे फ़र्क़ नहीं पड़ता कि वह खाना पाने की राह में क्या-क्या पा रहा है, जिसे सभ्य समाज अपराध समझता है।
वीगनिज़्म का विमर्श भी कुछ ऐसा ही है। सारी सामाजिक विसंगतियों पर विमर्श को टापते हुए, अब इस बात पर चर्चा चल रही है कि हम क्या खाएँ जो पर्यावरण के लिए भी कूल हो। ग्लोबल हंगर इंडेक्स में 105वें पायदान पर खड़ा देश, पेट, ज़रूरत और पोषण की ऐसी तैसी करते हुए इस बात पर नाराज़ है कि बछड़े के हक़ का दूध इंसान पी ले रहे हैं।
हालाँकि किसी भी विमर्श का सही या ग़लत होना इस बात से तय किया जाना चाहिए कि उसकी आड़ में खीझ या नफ़रत तो नहीं छिपी है। मैं बहुत तसल्ली से यह कहना चाहता हूँ कि वीग्निज़्म एक कॉन्सेप्ट के तौर पर कुछ भी हो, लेकिन इन दिनों चल रहे विमर्श में यह श्रेष्ठताबोध की नई क़वायद बन चुका है। ऐसी क़वायद जिसे पर्यावरण रक्षा और जीवों पर दया के नैतिक बल के सहारे ज़बरदस्ती धकेला जा रहा है ताकि आपकी थाली में क्या है—इस सवाल का जवाब तय कर सके कि आप अच्छे व्यक्ति हैं या बुरे।
यह कुछ यों है जैसे—अमेरिका सदृश्य देश भारत से कहें कि कार्बन उत्सर्जन कम करिए, दुनिया प्रदूषण की मार झेल रही है। यह कुछ ऐसा है जैसे खाने में प्रोटीन के तमाम साधन खोज लेने वाले अंबानी गाँव के किसी ग्वाले से कहें कि तुम्हें गाय दुहना बंद कर देना चाहिए।
इस देश में जहाँ दूध अब भी रात के खाने में सब्ज़ी की जगह आराम से ले लेता है। इस देश में जहाँ दही-भात अब भी पूरा भोजन मान लिया जाता है। वहाँ खाने में चार सब्ज़ियाँ लिए लोग यह लिखते हैं कि वीगन क्यों हो जाना चाहिए?
इंसानी फ़ितरत बड़ी अजीब शय है। इसमें अगर विचारधारा का तड़का लग जाए तो यह और भी अजीब हो जाती है। यही वीगनिज़्म के साथ भी हुआ है। पहले शुद्ध फिर पूर्ण शुद्ध की तलाश होने लगी है। इसे ऐसे समझें कि शाकाहार तक बात कितनी जायज़ लगती थी। पहले उसे धर्म आचरण के सहारे सही बताया गया। फिर विज्ञान ने भी कहा कि हाँ शाकाहार पेट के लिए बिल्कुल उपयुक्त है। यह बात ठीक भी है, लेकिन यहीं फिर से शुद्धता का तड़का लगता है और हम दूध-दही पर आकर अटकते हैं। नाम—वीगनिज़्म।
मैं यह बात कहना भी नहीं चाहता कि यह इस डिबेट का सही वक़्त है या नहीं, लेकिन यह एक तबक़े के लिए सुविधा ज़रूर है, जो वीगन न होते हुए भी यह चाहते हैं कि यह बात उठे ताकि इसके ज़रिए उस वर्ग के गले मे घंटी बाँधी जा सके जिनके खान-पान, रहन-सहन की आदतें उनसे भिन्न हैं। इससे हो यह रहा है कि माँस न खाने वाले लेकिन दूध पीने वाले लोग वीग्निज़्म के सहारे माँस खाने वालों को खुल कर गाली दे सकते हैं। यह थोड़ा और शुद्ध और स्ट्रिक्टली नैतिक भी है, इसलिए उन्हें इसमें मज़ा आ रहा है।
वीगनिज़्म का परचम लहराने वाले लोग सदैव यह समझने के लिए योग्य थे कि वीगनिज़्म भारतीय समाज में विमर्श के रूप में कितना हास्यास्पद है। करोड़ों लोग अब भी सरकारी राशन के सहारे प्रोटीन ढूँढ़ रहे हैं। झारखंड में एक मज़दूर मेरे इंस्टा फ़ीड पर अक्सर आता है जो कभी पानी-नमक और भात या माठा (दही), नमक और भात खाकर पेट भरता है। इसमें भी जिस दिन उसकी थाली में माठा हुआ करता है, वह उसका ‘गुड डे’ होता है। ऐसे में आप यह शुद्धता का विमर्श चला किसके लिए रहे हैं? पेट भरने की जद्दोजहद में जनता पर्यावरण की चिंता कैसे करे? पिछले ‘कैसे’ से ज़्यादा अच्छा सवाल यह है कि पर्यावरण की चिंता वह क्यों करे?
होगी तो यह तुच्छ बात ही लेकिन फिर भी। पर्यावरण की इतनी दुहाई के बावजूद भी हम एसी (एयर कंडीशन) नहीं इग्नोर कर पाए। मॉल्स की गैलरी में दुकानों की उल्टी एसी गर्मी दे रही है और दुकानों के अंदर ठंडक। बाहरी दुनिया गर्म और गर्म बनाकर हम ख़ुद को ठंडा कर के वीगनिज़्म जैसे विमर्श चला रहे हैं। कह रहे हैं कि नैतिकता इसी में बची है। लेकिन सच मानिए, ऐसा कहते हुए हम नैतिकता की बहुत सारी सीढ़ी टाप चुके हैं।
तो उसी ईश्वर के लिए जिसकी दुहाई इस वक़्त पूरा विश्व दे रहा है, इसे थोड़ा आराम दीजिए। आदर्श बातें, आदर्श समाज में होती हैं। सुविधा त्यागने के लिए सुविधा चाहिए होती है। खाना चुनने के लिए खाने का बहुवचन चाहिए होता है। यह सब अभी इस मुल्क के पास तो कम-से-कम नहीं है।
भरे पेट तब यह सुझाव दें कि क्या खाना है जब सबके पेट भरे हों। फिर यह तो पूरी इकोनॉमी है, जिसे ख़त्म करना बहुत मुश्किल है क्योंकि एक ग्वाले से लेकर अमूल तक इस धंधे में है। सड़क किनारे छुरा लेकर मीट काट रहे किसी इंसान से लेकर पैकेटों में मीट बेच रहीं कंपनियाँ हैं। इसे आप प्रैक्टिकली कम करने या बंद करने का तरीक़ा बताएँ जो लॉजिकल भी हो।
शास्त्रों की बात आप कर नहीं सकते क्योंकि उनके लिए भी यह विमर्श आउट ऑफ़ सिलेबस है और नैतिकता की बात इस विमर्श में खोखली है, यह आप भी जानते हैं क्योंकि उसे करने के लिए नैतिक होना पड़ेगा।
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