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काँदनागीत : आँसुओं का गीत

“स्त्रियों की बात सुनने का समय किसके पास है? स्त्रियाँ भी स्त्रियों की बात नहीं सुनना चाहतीं—ख़ासकर तब, जब वह उनके दुख-दर्द का बयान हो!”

मैंने उनकी आँखों की ओर देखा। उनमें गहरा, काला अँधेरा जमा था, मानो कोई घनी रात बस गई हो। आँखें कोटरों में धँसी, थकी हुईं। चेहरा झुर्रियों से भरा, जैसे भारी बोझ तले दबा हो। उन आँखों में अनगिनत आँसुओं का दर्द छिपा था। सालों की उपेक्षा, अत्याचार, दुख और यातनाएँ। ऐसा लगता था; मानो हज़ारों साल बीत गए, फिर भी इनका अंत नहीं। कोई सीमा नहीं। बस चलते जाना, सहते जाना, ढलते जाना।

सच है, स्त्रियों की बात कोई नहीं सुनता। न समझता है, न समझना चाहता है। बस अनदेखा करता है। शायद इसलिए—“रोने को इस तरह सजाया जाता है कि वह रोना न लगे।”

इस प्रकार जन्म लेता है—‘काँदनागीत’—आँसुओं का गीत या रोने का गीत! यह एक लोकगीत है; जिसे पश्चिम बंगाल, झारखंड और ओड़िशा की स्त्रियाँ अपने दुख और रोने के लिए रचती हैं। ये गीत उनकी पीड़ा, कष्ट और उपेक्षा को व्यक्त करते हैं। उनके मन में दबा दर्द सुरों के माध्यम से गीत बनकर उभरता है। ये गीत मौखिक रूप से रचे जाते हैं और मौखिक रूप से ही लुप्त हो जाते हैं। ये धर्मनिरपेक्ष गीत सुवर्णरेखा नदी के तटवर्ती क्षेत्रों में सुनाई देते हैं। इनकी भाषा सुवर्णरैखिक उपभाषा है; जो बांग्ला, हिंदी और ओड़िया के मिश्रण से बनी एक क्षेत्रीय भाषा है।

यहाँ रोना भी छिपाना पड़ता है। कहा जाता है कि अगर घर की बेटी-बहू रोए, तो घर में अशांति आती है। पश्चिम बंगाल के जंगलमहल में यही सोच प्रबल है। यह क्षेत्र प्रकृति से रूखा-सूखा है, एक फ़सली ज़मीन पर निर्भर। पहले यहाँ प्रकृति भी जैसे रोती थी। रूखी ज़मीन, एक फ़सल—बस यही सब कुछ था। भोजन, कपड़ा, शिक्षा, इलाज—कुछ भी पूरा नहीं होता था। दस-पंद्रह साल पहले तक इस क्षेत्र के किसी गाँव में कोई लड़की मैट्रिक पास करती नहीं देखी गई थी। कम उम्र में उनकी शादी कर दी जाती थी।

जो लड़की भूख, प्यास, दर्द और अत्याचार चुपचाप सह लेती; समाज उसे लक्ष्मी कहता था। समाज, परिवार, रिश्तेदार—सब उसे लक्ष्मी पुकारते, लेकिन भीतर-भीतर मरती उस लड़की का ठिकाना कहाँ? वह किसके पास जाए? स्त्रियों के पास न माँ-बाप हैं, न भाई-बहन, न पति—कोई नहीं। सब उसे अपने तरीक़े से देखते हैं, अपने ढंग से चाहते हैं। उसे उसके जैसे कोई नहीं समझता। अगर वह अपनी पहचान बनाए, तो उसे बिगड़ैल कहते हैं। यह सोच आज, इक्कीसवीं सदी में भी बनी हुई है।

मेरी दादी—एक ज़मींदार परिवार की बेटी, रूप और गुण में किसी राजकुमारी से कम नहीं थीं। वह गुनगुनाती थीं, रोती थीं। उनकी माँ का हाल ही में देहांत हुआ था। वह शोक को स्मृतियों और करुण स्वरों में बयान करती थीं। यह घटना मुझे बहुत याद आती है। गाँव की स्त्रियाँ हर समय ऐसे ही गीत गाकर रोती थीं। मैं तब बहुत छोटी थी, बस सुनती थी। नब्बे के दशक में मैंने गाँव की बूढ़ी औरतों को ऐसा रोते देखा। लेकिन अब ये गीत लुप्त हो रहे हैं। यह अच्छी बात है—कोई स्त्री रोने के लिए गीत न गाए, इसके लिए यह प्रथा लुप्त हो जाए!

दलित समुदाय में यह प्रथा ज़्यादा थी। अभावों के बीच उनका रोना उनका नित्य साथी था। काँदनागीत उनके जीवन से गहरे जुड़ा था। जो हमारी आँखों के सामने होता, उसे हम अक्सर नहीं देख पाते। मेरे बचपन और किशोरावस्था के गीत अनसुने रह गए। जब मैं जमशेदपुर पढ़ने आया, तो सड़क किनारे एक भिखारिन की आँखें देखीं। कोई बूढ़ी औरत दो मुट्ठी खाने के लिए काम करती थी। इतना बड़ा शहर, फिर भी कितना अकेला, कितना निस्सहाय! लेकिन यह शहर हमारे गाँव जैसा नहीं था। गाँव की औरतों में दुख का क्रूर प्रकटीकरण हुआ, जिसे सुवर्णरेखा क्षेत्र में ‘काँदनागीत’ कहते हैं। यह औरतों के दबे दर्द का बयान है। जब करुण रस सामूहिक होता है, तो वह शोकगाथा या श्लोक बनता है, लेकिन जब यह एक औरत की तन्हाई और दुख को व्यक्त करता है, तो वेदना बन जाता है। काँदनागीत में ये दोनों रूप हैं। ये गीत दलित स्त्रियों की वंचना, अत्याचार और दर्द का प्रतीक हैं। साथ ही; यह उनका सहारा है, क्योंकि उनके पास दुख व्यक्त करने का और कोई माध्यम नहीं।

वह ख़ुद को कैसे व्यक्त करे, जब समाज चारों ओर प्रतिबंध की तरह खड़ा है? उसे नहीं पता कि दर्द कहाँ कहे! कैसे उसकी बात में और औरतों की बात समाए? कैसे वह सुनने वालों को ढूँढ़े, जिनके साथ वह दुख बाँट सके? काँदनागीत ही उसका सहारा है। इसके ज़रिये वह अपने सीने का बोझ हल्का करती है। यह गीत उसका दोस्त है, जो जीवन के सबसे मुश्किल पलों में भी उसके साथ है। शोक से श्लोक जन्मता है, वैसे ही दुख से काँदनागीत। यह गीत उनके अत्याचारों का वास्तविक दस्तावेज़ है।

ये गीत औरतों द्वारा रचे और गाए गए हैं, इसलिए इनमें उनकी ज़िंदगी का असली चित्र उभरता है। सुवर्णरेखा क्षेत्र में ग़रीबी, वंचना और अशिक्षा के साथ सामाजिक कुप्रथाएँ भी थीं। यहाँ शिक्षा एक सपना थी। औरतों को पढ़ाने की बात तो दूर, खेती और घर के काम में उन्हें हाथ बँटाना पड़ता था। लैंगिक असमानता यहाँ गहरी थी। औरतों की स्थिति दयनीय थी। वंचना, अत्याचार और दूसरे दर्जे का नागरिक होना—इन सबने उनकी आवाज़ दबाई।

कम उम्र में शादी और बाल विवाह यहाँ गर्व की बात थी। इससे कुपोषण, शिशु और मातृ-मृत्यु दर बढ़ी। कम उम्र की शादी से स्वतंत्रता की कमी रही। वे ग़रीबी में बड़ी हुईं। पुरुषों का वर्चस्व देखा। औरतों को कुएँ का मेंढक बनाकर रखा गया। घर की लक्ष्मी कहलाने के बावजूद उन्हें बोलने का अधिकार नहीं था। मायके का लगाव मन में रहता, पर दुख कहने की जगह नहीं थी। मन में दुख का कक्ष बनता, बढ़ता, अवरुद्ध रहता। भाषा ढूँढ़ती, पर सुनने वाला कोई नहीं।

दलित औरतों की स्थिति और बदतर थी। समाज का शोषण तो था ही, अपने समुदाय के पुरुष भी शोषण करते। वे दलितों में भी दलित थीं। अपनी पीड़ा कहने की जगह नहीं थी। यह अनकहा दुख काँदनागीत में व्यक्त हुआ। ऐसा ही एक गीत है :

राजघर में थी राजा की दुलारी माँ गो 
धूप में कैसे लाऊँ पानी माँ गो 
बीस हात रस्सी नहीं पहुँचती माँ गो 
चूल्हे का धुआँ कभी बुझता नहीं माँ गो 
चारों ओर अँधेरा हो गया माँ गो 
आँख-मुँह सब जल गया माँ गो

वधू-निर्यात समाज की जानी-पहचानी कहानी है। यह गीत इसका भयावह रूप दिखाता है। भारत में औरतें अत्याचार सहती हैं, पर चुप रहती हैं। घरेलू हिंसा को वे जीवन का हिस्सा मान लेती हैं। प्रतिवाद नहीं होता, बस ठोस अभिमान रहता है।

मुझे लगा ये लोकगान मुझे संग्रह करने ही चाहिए! मैंने देखा कि हमारे बांग्ला साहित्य में जंगलमहल पर बहुत कम ध्यान दिया गया है। टुसु और भादु पर तो बहुत काम हुआ, लेकिन काँदनागीत पर कोई ख़ास काम मुझे नहीं दिखा। मैंने सोचा कि अगर जंगलमहल की सामाजिक व्यवस्था को समझना है; वहाँ की औरतों की हालत को जानना है, तो काँदनागीत का महत्त्व बहुत बड़ा है। इन गीतों को जमा करने में मुझे पूरे पाँच-छह साल लग गए। मैं इस काम के लिए साठ-सत्तर गाँवों में घूमी और बहुत सारे लोगों से मिली। इस संग्रह को तैयार करने के बाद मैंने पाया कि बांग्ला लोक साहित्य के इतिहास में काँदनागीत जैसा एक और अनमोल लोकगायन जुड़ गया है, जो जंगलमहल की सामाजिक, आर्थिक एवं मानसिक स्थिति को प्रकाशित करता है।

कुछ तथाकथित पढ़े-लिखे लोगों ने मुझे रोकने की हर मुमकिन कोशिश की। इस काम को करते वक़्त मैंने बहुत पीड़ा और दूरी सही। छह साल का समय कोई कम तो नहीं! गाँव-गाँव में भटकने की वजह से मेरे स्वास्थ्य और मन को कितना नुक़सान हुआ, यह आज बयान करना मुश्किल है। ऐसे में बस एक ही बात मेरे दिल को बहुत सुकून देती है कि मैं इन गीतों को कुछ हद तक बचा पाई। मैंने क़रीब ढाई सौ गीत इकट्ठा किए। इनका कोई लिखित रूप मुझे नहीं मिला। ये सब कुछ मुझे ऑडियो में रिकॉर्ड करना पड़ा। उनमें से सौ गीतों को लेकर बांग्ला में मेरी किताब ‘काँदनागीत : संग्रह ओ इतिवृत्त’ शीर्षक से सृष्टिसुख प्रकाशन से 2018 में प्रकाशित हुई। वर्ष 2020 में इस किताब को बांग्ला अकादेमी पुरस्कार मिला। यों काँदनागीत की कहानी पूरी दुनिया तक पहुँची। दुनिया ने देखा कि स्त्रियों को रोने का हक़ भी नहीं है! अपने आँसुओं को भी उन्हें सुरों की आड़ में छिपाना पड़ता है!

कई लोग काँदनागीत को राजस्थान की रुदाली के साथ जोड़ देते हैं, लेकिन यह याद रखना होगा कि रुदाली एक पेशा है; जबकि काँदनागीत स्त्रियों के जीवन के दुख, वियोग, पीड़ा और अपमान की स्वाभाविक अभिव्यक्ति है। इन गीतों के माध्यम से स्त्रियाँ केवल अपनी स्थिति को ही व्यक्त करती हैं। वे स्थिति से व्यवस्था की ओर नहीं जातीं। ये गीत पूरी तरह धर्मनिरपेक्ष हैं और राजनीति से तटस्थ हैं। इनमें किसी देवी-देवता की कृपा प्राप्त करने का दावा भी नहीं है। हमें जावागीत, टुसु, भादु गीतों में करुण रस की झलक मिलती है; लेकिन काँदनागीत इनसे पूरी तरह अलग हैं। ये केवल स्त्रियों द्वारा रचित और उनके लिए गाए जाने वाले गीत हैं। ये लोकगीत पूरी तरह सीमांत बंगाल के हैं। मैंने अभी तक किसी अन्य क्षेत्र या देश में इनका कोई निशान नहीं पाया।

काँदनागीत बंगाल की लोक-संस्कृति का वह राग है, जो ग्रामीण बेटियों-बहनों की अनकही पीड़ा को सुरों में पिरोता है। जंगलमहल जैसे कठिन इलाक़ों में; जहाँ जीवन की राह पथरीली थी, ये गीत उनके दिल की पुकार थे—एक सांत्वना, एक आलिंगन। ये उनके लिए एक सुरक्षित आशियाना था, जहाँ वे बिना डर के अपने आँसू बहा सकती थीं। काँदनागीत के सुर करुण, मंद और हृदयस्पर्शी होते हैं। ये सुर आत्मा को झकझोर देते हैं। इन गीतों की भाषा सरल और ग्रामीण होती है तथा भावनाएँ अत्यंत गहरी। रूपक और प्रतीकों से सजे ये गीत कभी अकेले गाए जाते हैं, तो कभी समूह में। रसोई की चौखट, आँगन की छाँव या खेतों की मेड़ पर इनके सुर फूट पड़ते हैं। शोक-सभाओं, विवाह या मृत्यु जैसे अवसरों पर इनकी गूँज हवा में तैरती है। सुवर्णरेखा की मिश्रित भाषा में स्त्रियाँ अपने दुख को आकाश, हवा और पृथ्वी को सुनाती हैं। इस प्रकार देखें तो ये डिग्रीविहीन स्त्रियाँ भी जानती हैं—उनकी बात उन्हें ही कहनी होगी।

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