Font by Mehr Nastaliq Web

अरुणाचल के न्यीशी जीवन का स्मृति-राग

‘गाय-गेका की औरतें’ जोराम यालाम नबाम के अब तक के जीवन में संभव में हुए प्रसंगों के संस्मरण हैं। जिस जगह के ये संस्मरण हैं; उसकी अवस्थिति अरुणाचल प्रदेश के ठेठ ग्रामीण ज़िले लोअर सुबानसिरी में है। पुस्तक न्यीशी समुदाय की सामाजिकी, वहाँ का जीवन-संसार, धार्मिक उत्सवों और संस्कृति के विविध आयाम, ज़मीन और जंगल के आपसी रिश्ते का खुलकर बयान करती है। 

पुस्तक मूलतः दस अध्यायों में विभक्त हैं; हर भाग की अपनी एक अलग ज़मीन है। मैं यहाँ हर अध्याय के बारे में उसके होने का उत्स जानने की कोशिश करूँ, उससे पहले आलोचक वीर भारत तलवार की लिखी संक्षिप्त भूमिका का एक हिस्सा यहाँ उद्धृत कर रहा हूँ : ‘‘किताब कथात्मक ढंग से लिखी गई है पर यह कोई कथा नहीं है। इसमें एक आदिवासी समुदाय के ग्रामीण जीवन का विस्तृत वर्णन है, फिर भी यह समाजशास्त्र या नृतत्वशास्त्र की किताब नहीं है। इसमें संस्मरण ज़रूर है, लेकिन ये संस्मरण किसी व्यक्ति विशेष के नहीं बल्कि पूरे गाँव और अंचल के हैं। 

किताब का मूल न्यीशी समुदाय है, जो अरुणाचल प्रदेश का एक बड़ा समुदाय है। यह समुदाय वहाँ के तानी समुदाय के चार समुदायों में से एक है। संस्मरणों की सारे आख्यान इसी समुदाय के इर्द-गिर्द बुने हुए हैं। 

पहला अध्याय लेखिका ने अपने बचपन को याद करते हुए विरचित किया है; जिसमें मुख्यतः उनके बचपन की स्मृतियाँ, हॉस्टल और उसमें की गई शरारतें शामिल हैं। इस भाग में यालाम के बचपन की सुंदर स्मृतियों के दृश्य सहजता से सामने आते हैं। जंगल की अदृश्य शक्ति ‘यापाम’, विनोद भरी बातें और उसी जंगल में यालाम का छुपना, यह बचपन के आम दृश्य हैं। दरअस्ल, यालाम के बचपन की स्मृतियाँ हमें अपने दिनों की एक सुंदर और निष्कपट दुनिया के उस संसार में ले जाकर छोडती है; जहाँ से मनुष्यता के सभी संकट मुस्कान से हल हो सकते हैं। जिस भौगौलिक इलाक़े के ये संस्मरण हैं, वहाँ भी यथायोग्य बाज़ार और पूँजी का चंगुल रच-बस गया है। आदिवासियों का पुरखा-केंदित विमर्श इसके बनाम आज भी वहाँ खड़ा है। 

दूसरे अध्याय ‘तअर पोख’ में यह स्पष्टतः प्रकट होता है। यालाम की सांस्कृतिक समझ का ही यह उजला पक्ष है कि वह पुरखों की न्याय-व्यवस्था जिसके होने के दोनों पक्ष दिखाई देते हैं—के बारे में विस्तार से बताती जाती हैं। किताब में प्रसंग-व्याख्या की शैली, वहाँ की फ़सलें, उन्हें बीज रूप लाने के लिए काम में लिए उपकरण, द्वारों आदि के नाम पढ़कर किसी भी उत्तर भारत के व्यक्ति को लग सकता है कि जैसे वह किसी पुरातात्विक पोथे का अध्ययन कर रहा है। यालाम ने इस अध्याय में एक व्यक्ति की तुलना, जो उन्हें बिना सहमति छू रहा है, उसके घिनौनेपन की ‘तअर पोख’ नाम के मेंढक से तुलना की है, जो की उतना ही छिछला दिखाई देता है।

न्यीशी समाज की संस्कृति और वहाँ के सामुदायिक अनुष्ठान के बारे में यालाम लगातार अपने पुरखों के बनाए तंत्र का सहारा लेती है, वह अपने हवाले से अपना कोई निष्कर्ष निकालने से थोड़ा बचती हैं, यथा बलि-प्रथा पर उनका विचार उद्धृत है : ‘‘आजकल हम बलि चढाने की प्रथा को आदिम संस्कार मानते हैं, और इसकी बुनियादी समझ की हँसी उड़ाते हैं। लेकिन खाने के पहले ऐसे अनुष्ठान करने वाले समाज कम-से-कम यह तो स्वीकार करते थे कि कुछ महत्त्वपूर्ण होने जा रहा है, जो उसकी तवज्जोह चाहता है। अगर हम मांस खाने के पहले इस तरह की तवज्जोह नहीं देते तो इसका यह अर्थ क़तई नहीं है कि बलि जैसा कुछ महत्त्वपूर्ण घटित नहीं हुआ।’’

यालाम अपने जीवन के बुरे और सुंदर, सभी प्रकार के प्रसंगों का उल्लेख अपने निज के अर्थ में उल्लेख करती हैं। यालाम इस पुस्तक में एक तरफ़ अपने लोक की न्याय-व्यवस्था और उपनिवेशवाद का तुलनात्मक आधार भी बताती हैं तो वहीं, वहाँ के अंधविश्वासों के लोक-विस्तार का ज़िक्र भी करना नहीं भूलतीं। उनके इन संस्मरणों को पढ़कर यालाम और उसके आस-पास के परिवेश, वहाँ के त्योहारों, रीतियों और विविध सांस्कृतिक पक्षों की पड़ताल आप कर सकते हैं और पड़ताल के इस पाठ का आधार कहीं-न-कहीं हर लोक से जुड़ता है।

लगभग इस पूरी किताब का जीवन मेरे लिए अजनबी-सा था, लेकिन ‘मूक रिश्ते’ संस्मरण मेरे लिए नई जानकारियों से भरा हुआ था। यहाँ मूल ज़िक्र ‘मिथुन’ का करना चाहूँगा। मिथुन वहाँ का एक जंगली जानवर है, जो गाय जैसा लगता है, लेकिन वह गाय नहीं है। यालाम बताती है कि किस तरह अरुणाचल की सांप्रदायिक राजनीति का शिकार यह जानवर हुआ। जगह-जगह उपद्रव हुए। अरुणाचल की राजनीति में भूचाल आ गया और भाजपा सरकार ने राष्ट्रपति शासन लगा दिया। 

इस प्रसंग से एक बात स्पष्ट होती है कि सांप्रदायिक राजनीति का रास्ता हर जगह इसी मतैक्य के साथ है, जो ऊपर उल्लिखित है। यहाँ के परिवेश से एक पूरक बात का और वह उल्लेख करती हैं कि जोराम आदि इलाक़ों में गाय का उपयोग सिर्फ़ और सिर्फ़ मीट के लिए किया जाता है; इसलिए ही उनका पालन होता है। 

इसी संस्मरण में पारिवारिक प्रसंग जो भारत की हर ज़मीन पर लगभग एक जैसे हैं, उनका उल्लेख है। वे सभी प्रसंग दारुण और क्रूर हैं। लड़ाई-झगड़े, आपसी-विवाद, क़बीले में मोहभंग आदि के बारे में बहुत ईमानदारी से यालाम ने बात की है। यह संस्मरण अंत में लगभग भावुकता के दरिया में विलीन हो जाता है। 

शीर्षक संस्मरण ‘गाय-गेका की औरतें’ विनोद-वार्ताओं का संस्मरण है। गाय-गेका का अर्थ है गाय-पेड़। हर पंक्ति में हास्य। लेकिन उसके सामाजिक और गूढ़ अर्थ भी छिपे रहते हैं, जैसे छोटी माँ का एक तकिया कलाम। हर बात के साथ वे ‘अतह’, अतह’ कहती थीं। ‘अतह’ का अर्थ है—स्त्री-योनि। लेकिन वह ऐसा क्यों कहती थीं, इस कारण की सामाजिकी का पता भी चलना चाहिए था। 

राजस्थान के पश्चिमी लोक में एक पक्षी है, जिसका लोकभाषा में नाम होता है—‘कोचरी’ : उसके बोलने को अशुभ माना जाता है। कुछ पक्षियों का बोलना शुभ भी। यहाँ भी उल्लू का रात में बोलना धन्यवाद देने योग्य माना जाता है और इस बात का द्योतक भी कि धान को रोपने का वक़्त आ गया है। इसी संस्मरण में आजा, जो यालाम की चाची है, उनके प्रेमी का उल्लेख भी किया है। और चाची से खफ़ा लोगों के कारण जब यालाम अपनी माँ से जानना चाहती है तो वह एक आज़ाद बयान देती है कि किसी की इज़्ज़त उसकी योनि में नहीं है। 

पूरी किताब में नामों की एक अलग संस्कृति से रूबरू हुआ जा सकता है। लेखिका का राजस्थान पढ़ने आना और अपने नाम का मज़ाक़ उड़ना भी इसी का हिस्सा है। नामों का यह सुरंगी संसार बहुत सघन और वहाँ की धरती का परिचायक है। इस किताब में उत्तर भारत की तरह शुद्धिकरण जैसी परंपराएँ भी उद्धृत की गई हैं, जिनको यालाम ने आदिवासियत से जोड़ा है। 

किताब में सामुदायिकता पर लगातार संवाद संभव हुआ है। कहीं-कहीं समतामूलक होने का दावा भी। ये संस्मरण भूख और रंग के संस्मरण हैं। ये संस्मरण जंगल और उसके सौंदर्य के संस्मरण हैं। पुरखों के क्षीण होते परंपरा-विधान के संस्मरण हैं। न्योकुम-उई की संस्कृति की परंपरा के संस्मरण हैं। ये संस्मरण विसंस्कृतिकरण से ग्रस्त हो रहे समाज के संस्मरण हैं। 

किताब की रवानगी सामान्य सड़क से होती हुई जैसे घने जंगलों में ले जाती है, जहाँ एक घर ख़त्म होते ही वह जंगल के लिए नई ज़मीन तैयार कर देता है। भाषा और गद्य की तरलता भी इस किताब को पठनीय बनाती है। हर तीसरा वाक्य जैसे कविता का छोटा टुकड़ा। 115 पेज की इस किताब में यालाम ने जोराम और न्यीशी समुदाय के साथ ख़ुद का उनसे संबध परत-दर-परत खोला है।

'बेला' की नई पोस्ट्स पाने के लिए हमें सब्सक्राइब कीजिए

Incorrect email address

कृपया अधिसूचना से संबंधित जानकारी की जाँच करें

आपके सब्सक्राइब के लिए धन्यवाद

हम आपसे शीघ्र ही जुड़ेंगे

26 मई 2025

प्रेम जब अपराध नहीं, सौंदर्य की तरह देखा जाएगा

26 मई 2025

प्रेम जब अपराध नहीं, सौंदर्य की तरह देखा जाएगा

पिछले बरस एक ख़बर पढ़ी थी। मुंगेर के टेटिया बंबर में, ऊँचेश्वर नाथ महादेव की पूजा करने पहुँचे प्रेमी युगल को गाँव वालों ने पकड़कर मंदिर में ही शादी करा दी। ख़बर सार्वजनिक होते ही स्क्रीनशॉट, कलात्मक-कैप

31 मई 2025

बीएड वाली लड़कियाँ

31 मई 2025

बीएड वाली लड़कियाँ

ट्रेन की खिड़कियों से आ रही चीनी मिल की बदबू हमें रोमांचित कर रही थी। आधुनिक दुनिया की आधुनिक वनस्पतियों की कृत्रिम सुगंध से हम ऊब चुके थे। हमारी प्रतिभा स्पष्ट नहीं थी—ग़लतफ़हमियों और कामचलाऊ समझदारियो

30 मई 2025

मास्टर की अरथी नहीं थी, आशिक़ का जनाज़ा था

30 मई 2025

मास्टर की अरथी नहीं थी, आशिक़ का जनाज़ा था

जीवन मुश्किल चीज़ है—तिस पर हिंदी-लेखक की ज़िंदगी—जिसके माथे पर रचना की राह चलकर शहीद हुए पुरखे लेखक की चिता की राख लगी हुई है। यों, आने वाले लेखक का मस्तक राख से साँवला है। पानी, पसीने या ख़ून से धुलकर

30 मई 2025

एक कमरे का सपना

30 मई 2025

एक कमरे का सपना

एक कमरे का सपना देखते हुए हमें कितना कुछ छोड़ना पड़ता है! मेरी दादी अक्सर उदास मन से ये बातें कहा करती थीं। मैं तब छोटी थी। बच्चों के मन में कमरे की अवधारणा इतनी स्पष्ट नहीं होती। लेकिन फिर भी हर

28 मई 2025

विनोद कुमार शुक्ल का आश्चर्यलोक

28 मई 2025

विनोद कुमार शुक्ल का आश्चर्यलोक

बहुत पहले जब विनोद कुमार शुक्ल (विकुशु) नाम के एक कवि-लेखक का नाम सुना, और पहले-पहल उनकी ‘प्रतिनिधि कविताएँ’ हाथ लगी, तो उसकी भूमिका का शीर्षक था—विनोद कुमार शुक्ल का आश्चर्यलोक। आश्चर्यलोक—विकुशु के

बेला लेटेस्ट