ईर्ष्या पर दोहे
ईर्ष्या दूसरों की उन्नति,
सुख या वैभव से उभरने वाला मानसिक कष्ट है। इसका संबंध मानवीय मनोवृत्ति से है और काव्य में सहज रूप से इसकी प्रवृत्तियों और परिणामों की अभिव्यक्ति होती रही है।
पलकु पीक, अंजनु अधर, धरे महावरु भाल।
आजु मिले, सु भली करी; भले बने हौ लाल॥
नायक के परस्त्रीरमण करने पर नायिका व्यंग्य का सहारा लेकर अपने क्रोध को व्यक्त करती है। वह कहती है कि हे प्रिंयतम, आपके पलकों में पीक, अधरों पर अंजन और मस्तक पर महावर शोभायमान है। आज बड़ा शुभ दिन है कि आपने दर्शन दे दिए। व्यंग्यार्थ यह है आज आप रंगे हाथों पकड़े गए हो। परस्त्रीरमण के सभी चिह्न स्पष्ट रूप से दिखलाई दे रहे हैं। पलकों में पर स्त्री के मुँह की पीक लगी हुई है, अधरों पर अंजन लगा है और मस्तक पर महावर है। ये सभी चिह्न यह प्रामाणित कर रहे हैं कि तुम किसी परकीया से रमण करके आए हो। स्पष्ट संकेत मिल रहा है कि उस परकीया ने पहले तो कामावेश में आकर तुम्हारे मुख का दंत लिया होगा, परिणामस्वरूप उसके मुख की पान की पीक तुम्हारे पलकों पर लग गई। जब प्रतिदान देना चाहा तो वह नायिका मानिनी हो गई। जब तुमने उसके अधरों का दंत लेना चाहा तो वह अपने को बचाने लगी। परिणामस्वरूप उसके नेत्रों से तुम्हारे अधर टकरा गए और उसकी आँखों का काजल तुम्हारे अधरों पर लग गया। अंत में उसे मनाने के लिए तुमने अपना मस्तक उसके चरणों पर रख दिया, इससे उसके पैरों का महावर आपके मस्तक पर लग गया है। इतने पर भी जब वह नहीं मानी तब आप वहाँ से चले आए और आपको मेरा याद आई। चलो,अच्छा हुआ इस बहाने ही सही, आपके दर्शन तो हो गए।
लालन, लहि पाऐं दुरै, चोरी सौंह करैं न।
सीस-चढ़ै पनिहा प्रगट, कहैं पुकारैं नैन॥
नायक परकीया के पास रात बिताकर घर लौटा है। नायिका कहती है कि हे लाल, जान लेने पर अब शपथ खाने से तुम्हारी चोरी छिप नहीं सकती है।अब तुम भले ही कितनी ही शपथ खाओ, तुम्हारी चोरी स्पष्ट हो गई है। वह छिप नहीं सकती है। तुम्हारे सिर चढ़े हुए नेत्र रूपी गुप्तचर तुम्हारी चोरी को पुकार-पुकार कर स्पष्ट कर रहे हैं।
तुरत सुरत कैसैं दुरत, मुरन नैन जुरि नीठि।
डौंडी दै गुन रावरे, कहति कनौड़ी डीठि॥
नायक अन्यत्र संभोग करके आया है, नायिका भांप लेती है। वह कहती है कि भला तुम्हीं बताओ कि तुरंत किया हुआ संभोग छिप कैसे सकता है? अब तुम्हीं देखो, तुम्हारे नेत्र बड़ी कठिनता से मेरे नेत्रों से मिल रहे हैं (तुम मुझसे आँखें नहीं मिला पा रहे हो)। इतना ही नहीं तुम्हारी दृष्टि भी लज्जित है। तुम्हारी यह लज्जित दृष्टि ही तुम्हारे किए हुए का ढिंढोरा पीट रही है और मैं सब समझ रही हूँ।
मरकत-भाजन-सलिल-गत, इंदुकला कैं बेख।
झींन झगा मैं झलमलै, स्याम गात नख-रेख॥
नायिका बड़े मधुर ढंग से व्यंग्यात्मक शैली में कहती है कि हे प्रिय, आपके झीने अर्थात् पतले वस्त्र में श्याम शरीर पर नख-क्षत दिखलाई दे रहे हैं। वे नख-क्षत ऐसे प्रतीत होते हैं मानों किसी जल से युक्त नीलम की थाली में चंद्रमा की कलाएँ शोभित हो रही हों।
तोरस, राँच्यौ आन-बस, कहौ कुटिल-मति, कूर।
जीभ निबौरी क्यौं लगै, बौरी चाखि अँगूर॥
सखी कहती है कि तेरे प्रेम में अनुरक्त खोटे और निर्दय लोग भले ही दूसरी नायिका के वश में हुआ करें किंतु, अरी बावली! मैं ऐसा नहीं मानती हूँ। ऐसा तो कुटिल बुद्धि वाले ही कह सकते हैं। कारण यह है कि अंगूर चखने के पश्चात् किसी व्यक्ति की जिह्वा को निबौरी कैसे अच्छी लग सकती है?
गहकि, गाँसु औरै गहे, रहे अध कहै बैन।
देखि खिसौहैं पिय नयन, किए रिसौहैं नैन॥
नायिका प्रेमपूर्ण भाव से अपने वचन कह रही थी, वे बीच में ही अधकहे या अधूरे रह गए। उसने नायक के नेत्रों को अलसाया हुआ देखकर अनुमान लगा लिया कि नायक रात्रि में कहीं अन्यत्र रहकर आया है। इतना ही नहीं, उसने नायक के नेत्रों को देखकर अपने नेत्रों को भी क्रोधपूर्ण कर लिया।
बालमु बारैं सौति कैं, सुनि परनारि-बिहार।
भो रसु अनरसु, रिस रली, रीझ-खीझ इक बार॥
इस दोहे में नायक की दो पत्नियाँ हैं। वह बारी-बारी से अपनी दोनों पत्नियों को समय देता है। एक बार ऐसा होता है कि वह सपत्नी के पास जाना चाहता है इसलिए पूर्व पत्नी अर्थात् प्रथम पत्नी निश्चित रहती है कि आज तो नायक को आना ही नहीं है क्योंकि सपत्नी के पास जाएगा। इसी बीच कोई दूती प्रथम पत्नी को यह सूचना देती है कि नायक तो आज सपत्नी के पास भी नहीं गया, बल्कि किसी अज्ञात स्त्री के पास रात्रि बिताने चला गया है। इस पर प्रथम पत्नी के मन में एक साथ कई प्रतिक्रियाएँ उत्पन्न होती हैं। स्पष्ट शब्दों में उसके मन में क्रमशः रस, अनरस, रिस, रली, रीझ तथा खीझ के भाव उत्पन्न होते हैं। उन्हीं भावों को यहाँ पर व्यक्त किया गया है। सपत्नी की बारी पर नायक अन्य स्त्री के पास गया, सपत्नी रात्रि भर प्रतीक्षा करती रही,वह कुढ़ती रही दु:खी होती रही, समझती रही होगी कि नायक उसकी बारी में मेरे पास आ गया है। सपत्नी की इस कुढ़न, दुःख तथा वेदना से नायिका को अत्यधिक सुख मिला। शत्रु के दुःख से बढ़कर मानव के सुख का दूसरा कारण नहीं है। फिर नायिका को दुःख (अनरस) हुआ। सोचा, नायक का यह आचरण सुख का कारण नहीं है, इसका अर्थ तो यह है कि नायक के प्रेम को बाँटने वाली अब तीन हो गई हैं, एक सपत्नी के स्थान पर दो (एक स्वकीया और दूसरी परकीया) हो गई, अब तो मेरी बारी तीसरे दिन आया करेगी, यह तो घाटे की बात रही। तब नायिका को नायक पर क्रोध आया। थोड़ी देर बाद नायिका ने सपत्नी का ही दोष देखा। उसे मजाक सूझा-कैसी गुणवती है हमारी सौत कि जब उनकी बारी होती है तो हमारे बालम कहीं और चले जाते हैं । सुन लिया उनका आकर्षण! और वह (तुलना करते हुए) अपने गुण पर रीझ गई-मेरी बारी पर कभी ऐसा नहीं हुआ। अपने-अपने गुण की बात है। अंत में इस विचार पर नायिका खीझ उठी कि आदत बुरी पड़ गई, हो सकता है किसी दिन मेरी बारी पर भी नायक किसी परकीया नायिका के पास चला जाए। इस प्रकार सुख-दुखात्मक भावों में उलझती हुई नायिका थककर खीझ गई, जितना सोचती थी उतना ही उलझती जाती थी।
तेह-तरेरौ त्यौरु करि, कत करियत दृग लोल।
लीक नहीं यह पीक की, श्रुति-मनि-झलक कपोल॥
सखी नायिका से कह रही है कि हे सखी, त्यौरियों को रोष से तरेरकर आँखों को क्यों चंचल कर रही हो। वास्तव में नायक के कपोल पर पान की पीक की रेखा नहीं है, प्रत्युत् यह उसके कान के मणि की झलक है। नायक ने अपने कानों में जो मणि पहन रखी है, उसकी लाल-लाल झलक कपोलों पर पड़ रही है।
पावक सो नयननु लगै, जाबकु लाग्यौ भाल।
मुकुरु होहुगे नैंक मैं, मुकुरु बिलौकौ, लाल॥
नायक रात भर किसी परस्त्री के पास रहा है और प्रात:काल स्वकीया के पास आया है। उसके मस्तक पर लगा हुआ महावर इस बात की गवाही दे रहा है। नायिका इस दृश्य को देखकर जल उठती है। इतने पर भी वह धैर्य से काम लेती है और नायक से दर्पण देखने के लिए कहती है ताकि वह अपने परस्त्रीगमन के कार्य पर लज्जित हो सके।
बाल, कहा लाली भई, लोइन-कोंइनु माँह।
लाल, तुम्हारे दृगनु की, परी दृगनु में छाँह॥
पूर्वार्द्ध में नायक-वचन नायिका के प्रति और उत्तरार्द्ध में नायिका-वचन नायक के प्रति है। नायक कहता है कि हे बाला, तेरी आँखों के कोयों में लाली क्यों हो आई है? हे लाल, यह तो तुम्हारी आँखों की छाया मेरी आँखों में पड़ रही है। नायिका की आँखों की लाली नायक की आँखों की छाया स्वरूप है अथवा यह कि नायक के ही कारण उसकी आँखें लाल हुई हैं क्योंकि उसे यह पता चल गया है कि नायक रात्रि में अन्यत्र किसी अन्य स्त्री के साथ रहा है अत: वह क्रुद्ध है।
मोहि दयौ मेरो भयो, रहतु जु मिलि जिय साथ।
सो मनु बाँधि न सौं पियै, पिय सौतिनि कैं हाथ॥
नायिका नायक को उलाहना देते हुए कह रही है कि हे प्रिय, तुमने मुझे पूर्ण समर्पण कर दिया था। तुमने अपना मन पूरी तरह मुझे दे दिया था। अत: वह मन मेरा हो चुका है। वह अभी भी मेरे प्राणों के साथ मिलकर रह रहा है। ऐसी स्थिति में आप उसी मन को जबरन या बलात् परस्त्री के हाथ में क्यों दे रहे हैं?
छिरके नाह-नवोढ़-दृग, कर-पिजकी-जल-ज़ोर।
रोचन-रंग-लाली भई, बियतिय-लोचन-कोर॥
एक सखी दूसरी से कह रही है कि जल-क्रीड़ा के समय नायक ने हाथ की पिचकारी के बल से नवोढ़ा नायिका के नेत्रों में जल छिड़क दिया। जल तो छिड़का नायिका के नेत्रों में, किंतु गोरोचन के रंग की लाली वहाँ उपस्थित अन्य स्त्रियों की आँखों में दिखलाई दी। भाव यह है कि अन्य नायिकाओं की आँखें ईर्ष्या के कारण लाल हो गईं।
केसर केसरि-कुसुम के, रहे अंग लपटाइ।
लगे जानि नख अनखुली, कत बोलति अनखाइ॥
नायिका ने नायक के शरीर में केसर के फूल के किंजल्क अर्थात् रेशे लगे हुए देख लिए हैं। उन्हें देखकर उसे यह भ्रांति हो गई है कि ये नख-क्षत हैं। ऐसा मानकर ही वह यह निष्कर्ष निकाल लेती है कि नायक ने किसी पर-स्त्री के साथ संभोग किया है। नायिका की सखी समझाती है और उसकी भ्रांति का निराकरण करती है। वह कहती है कि नायक के शरीर में तूने केसर के फूल के रेशे चिपके हुए देखे हैं। उन्हें ही तूने नख-क्षत मान लिया है। यह तेरी भ्रांति है।
aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere