होली पर दोहे
रंग-उमंग का पर्व होली
कविताओं में व्यापक उपस्थिति रखता रहा है। होली में व्याप्त लोक-संस्कृति और सरलता-सरसता का लोक-भाषा की दहलीज़ से आगे बढ़ते हुए एक मानक भाषा में उसी उत्स से दर्ज हो जाना बेहद नैसर्गिक ही है। इस चयन में होली और होली के विविध रंगों और उनसे जुड़े जीवन-प्रसंगों को बुनती कविताओं का संकलन किया गया है।
छिरके नाह-नवोढ़-दृग, कर-पिजकी-जल-ज़ोर।
रोचन-रंग-लाली भई, बियतिय-लोचन-कोर॥
एक सखी दूसरी से कह रही है कि जल-क्रीड़ा के समय नायक ने हाथ की पिचकारी के बल से नवोढ़ा नायिका के नेत्रों में जल छिड़क दिया। जल तो छिड़का नायिका के नेत्रों में, किंतु गोरोचन के रंग की लाली वहाँ उपस्थित अन्य स्त्रियों की आँखों में दिखलाई दी। भाव यह है कि अन्य नायिकाओं की आँखें ईर्ष्या के कारण लाल हो गईं।
पिचकारी आँखिन लगी, मलति करेजे बाल।
पुनि देखति पुनि मलति हिय, कारण कवन जमाल॥
सामान्य अर्थ : फाग खेलते समय आँखों पर पिचकारी लगी। वह बाला आँखें न मल कर, बार-बार उस ओर देखकर क्यों अपने हृदय को थामती है?
गूढ़ार्थ : नायक द्वारा पिचकारी की मार खाकर वह बाला मुग्ध होकर अपना हृदय खो चुकी है। वह नायक की ओर देख देखकर अपने मन को सँभालती है। उसे नेत्रों की पीड़ा की चिंता नहीं है।
aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere