पूँजी पर उद्धरण
आधुनिक राज-समाज में
पूँजीवाद के बढ़ते असर के साथ ही उसके ख़तरे को लेकर कविता सजग रही है। कविता जहाँ अनिवार्यतः जनपक्षधरता को अपना कर्तव्य समझती हो, वहाँ फिर पूँजी की दुष्प्रवृत्तियों का प्रतिरोध उसकी ज़िम्मेवारी बन जाती है। प्रस्तुत चयन ऐसी ही कविताओं से किया गया है।

पसीने की कमाई खाने वालों का दिवाला नहीं निकलता, दिवाला उन्हीं का निकलता है जो दूसरों की कमाई खा-खाकर मोटे होते हैं।

मैं ऐसा नहीं मानता कि विश्व-बाज़ार कविता को निगल जाएगा और कविता हमेशा के लिए अपना प्रभाव खो देगी।

विश्व-बाज़ार विश्व-समाज की नई गतिविधि है और उसमें बहुत कुछ ऐसा हो सकता है जिससे नए ढंग की कविता जन्म ले।


बाज़ार वह जगह है जहाँ स्वागत किया जाता है, अंगीकृत किया जाता है, सजाया जाता है, बेचा जाता है और फ़ालतू भी कर दिया जाता है।

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere