महावीर प्रसाद द्विवेदी के उद्धरण

हे जगदीश्वर, इस संसार में काले से भी काले कर्म करके जो लोग ललाट पर चंदन का सफ़ेद लेप लीपते हैं, उनकी भी गणना जब हम बड़े-बड़े धार्मिकों में की गई सुनाते हैं, तब हमारे मुँह से हँसी निकल ही जाती है।
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हे जगदीश, जो लोग कामिनी जनों की ओर घूरने ही के लिए देवालयों को सबेरे और सायंकाल जाते हैं, उन्हीं की सब कोई यदि प्रशंसा करे तो हाय! हाय! आस्तिकता अस्त हो गई समझनी चाहिए।

कविता करने ही से कवि पदवी नहीं मिलती। कवि के हृदय को कवि के काव्य-कर्म को जो जान सकते हैं वे भी एक प्रकार के कवि हैं।

ज्ञान कहीं भी मिलता हो उसे ग्रहण कर लेना चाहिए। परंतु अपनी ही भाषा और उसी के साहित्य को प्रधानता देना चाहिए, क्योंकि अपना, अपने देश का, अपनी जाति का उपकार और कल्याण अपनी ही भाषा के साहित्य की उन्नति से हो सकता है।

जिस कविता से जितना ही अधिक आनंद मिले, उसे उतना ही अधिक ऊँचे दरजे़ की समझना चाहिए।
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