जी. शंकर कुरुप की संपूर्ण रचनाएँ
कविता 17
उद्धरण 9

जीवन ही गान है, काल ही ताल है, मन के विशेष भाव ही विभिन्न राग हैं, समूचा विश्व मंडल ही लय है।
- फ़ेवरेट
-
शेयर

यह शरीर केवल एक दीपक है—प्राणों के प्रज्वलित होने के लिए। मिट्टी के इस दीप के प्रति इस प्रकार मुग्ध हो जाना क्या उचित हुआ? लावण्य तो मात्र इंद्रजाल है उस दोप का। हाय, साहसी अनुराग ने आपकी बुद्धि की आँखें मूँद दीं।
- फ़ेवरेट
-
शेयर

हे मानव! जब से मैंने तुम्हारी भाषा सीखी, तब से वह विश्व-विमोहक भाषा भूल गया जिसमें स्नेह छोड़कर कोई शास्त्र नहीं, आनंद को छोड़कर कोई अर्थ नहीं, रूप को छोड़कर कोई छंद नहीं।
- फ़ेवरेट
-
शेयर