गुरु दत्त : कुछ कविताएँ
संजीव गुप्त
09 जुलाई 2025
क्या तलाश है, कुछ पता नहीं*
वह पीता रहा
अपनी ज़िंदगी को
एक सिगरेट की तरह
तापता रहा अपनी उम्र को
एक अलाव की तरह
और हम ढूँढ़ते हैं
उस राख के क़तरे
तलाशते हैं
उसके बेचैन होंठों की थरथराहट
उसकी ख़ामोशी
और उसके माथे की
सलवटों का सबब
और
उसकी तलाश को
~
तुम भी खो गए, हम भी खो गए*
उसके माथे पर लिखी
सलवटों की इबारत को
पढ़ा जा सकता है
बताया जा सकता है
कि एक-एक सलवट
उसके पोर-पोर टूटने की कहानी है
आदमी का सबसे बड़ा दर्द
वह होता है
जब लोग समझ नहीं पाते उसे
वे लोग
जिनके लिए वह
अपनी समझ को भी
सूली पर चढ़ा देता है
क्या यही सब कहती हैं
उसके माथे की सलवटें
इन्हें
आख़िर किस तरह से
पढ़ा जा सकता है?
~
चल पड़े मगर रास्ता नहीं*
नाव
एक किनारे से छूटे
तो नाव ही रहती है
छूट जाए दूसरे किनारे से
तब भी वह
नाव ही रहेगी
लेकिन
नदी ही सूख जाए तो!
~
बिछड़े सभी बारी बारी*
किस क्रम में
बात की जाए
छूटते जाने की
फ़िल्म से निकलकर यह पंक्ति
उलझ गई
फिर जीवन में
और
नींद की गोलियों की तरह
डूबती गई
एक छलकते ग्लास में
एक धीमे ट्रैकिंग शॉट की तरह
~
यह खेल है कब से जारी*
एक उदास कविता है—
‘काग़ज़ के फूल’
बार-बार उसे देखने पर
दिखता है खिंचाव कविता का
कहीं ओझल हो जाती है उदासी
भर जाता है उसका आस्वाद
और आस्वाद का आह्लाद
और फिर से उसे देखे जाने की एक चाह
एक मीठी तान की तरह
दो दर्पणों से टकराकर आती
रौशनी की एक लकीर की तरह
धूल और धुएँ को आलोकित करती हुई
~~~
*गुरु दत्त की फ़िल्म ‘काग़ज़ के फूल’ के दो गीतों ‘वक़्त ने किया, क्या हसीं सितम’ और ‘बिछड़े सभी बारी-बारी’ की कुछ पंक्तियों का प्रयोग इन कविताओं में शीर्षक की तरह किया गया है।
'बेला' की नई पोस्ट्स पाने के लिए हमें सब्सक्राइब कीजिए
कृपया अधिसूचना से संबंधित जानकारी की जाँच करें
आपके सब्सक्राइब के लिए धन्यवाद
हम आपसे शीघ्र ही जुड़ेंगे
बेला पॉपुलर
सबसे ज़्यादा पढ़े और पसंद किए गए पोस्ट
25 अक्तूबर 2025
लोलिता के लेखक नाबोकोव साहित्य-शिक्षक के रूप में
हमारे यहाँ अनेक लेखक हैं, जो अध्यापन करते हैं। अनेक ऐसे छात्र होंगे, जिन्होंने क्लास में बैठकर उनके लेक्चरों के नोट्स लिए होंगे। परीक्षोपयोगी महत्त्व तो उनका अवश्य होगा—किंतु वह तो उन शिक्षकों का भी
06 अक्तूबर 2025
अगम बहै दरियाव, पाँड़े! सुगम अहै मरि जाव
एक पहलवान कुछ न समझते हुए भी पाँड़े बाबा का मुँह ताकने लगे तो उन्होंने समझाया : अपने धर्म की व्यवस्था के अनुसार मरने के तेरह दिन बाद तक, जब तक तेरही नहीं हो जाती, जीव मुक्त रहता है। फिर कहीं न
27 अक्तूबर 2025
विनोद कुमार शुक्ल से दूसरी बार मिलना
दादा (विनोद कुमार शुक्ल) से दुबारा मिलना ऐसा है, जैसे किसी राह भूले पंछी का उस विशाल बरगद के पेड़ पर वापस लौट आना—जिसकी डालियों पर फुदक-फुदक कर उसने उड़ना सीखा था। विकुशु को अपने सामने देखना जादू है।
31 अक्तूबर 2025
सिट्रीज़ीन : ज़िक्र उस परी-वश का और फिर बयाँ अपना
सिट्रीज़ीन—वह ज्ञान के युग में विचारों की तरह अराजक नहीं है, बल्कि वह विचारों को क्षीण करती है। वह उदास और अनमना कर राह भुला देती है। उसकी अंतर्वस्तु में आदमी को सुस्त और खिन्न करने तत्त्व हैं। उसके स
18 अक्तूबर 2025
झाँसी-प्रशस्ति : जब थक जाओ तो आ जाना
मेरा जन्म झाँसी में हुआ। लोग जन्मभूमि को बहुत मानते हैं। संस्कृति हमें यही सिखाती है। जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से बढ़कर है, इस बात को बचपन से ही रटाया जाता है। पर क्या जन्म होने मात्र से कोई शहर अपना ह