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क्षितिज

kshaitij

जी. शंकर कुरुप

अन्य

अन्य

मानव की प्रतिभा

कितना ही विकास क्यों पाए

फिर भी वह है सदा पराधीन;

चाहे कितना ही गर्व वह करे

प्रगतिशीलता का—

रुढ़िलंघन की क्षमता का गर्व—

किंतु उस बेचारी के भाग्य में

स्वावलंबिनी स्वतंत्रता नहीं लिखी है।

उसकी चार-पाँच सहेलियाँ हैं

छोड़कर उन्हें और कोई अवलंबन नही उसका,

भूत-जगत् के संबंध में

कितनी ही दंत-कथाएँ

चतुराई के साथ वे सुनाया करती हैं।

इनमें कौन सच है और कौन झूठ है,

इस संदेह को दूर करने वाला कोई नहीं।

क्षितिज-रूपी छत्र के नीचे-नीचे ही

उसे अंतःपुर की कामिनी की तरह

सदा चलना पड़ता है।

उस छत्र के छोटे-से घेरे में ही

उसका सारा संसार सीमित है।

चारों ओर केवल संदेह ही संदेह है।

किंतु नहीं है साहस उसे

उस छत्र के बाहर झाँककर देखने का।

डिबिया में बंदिनी बनी तितली की तरह

जिज्ञासा चारों तरफ़ तड़पती टटोलवाँ घूमती है

यदि पर-कटे, डंक-टूटे, शलभ के समान

मानव की जिज्ञासा धराशायी हो गई होती

तो क्या वह क्षितिज की

उस सीमा-रेखा को तोड़

सत्य की पूर्ण दीप्ति में पहुँचकर,

फुदकती-मँडराती हुई नहीं खेलती?

मानव की आतुर जिज्ञासा के पंखों को

खोलने के लिए

स्वयं एक चुनौती के रूप में

यह क्षितिज

अनुक्षण फैलता हुआ

सदा विराजमान रहे!

स्रोत :
  • पुस्तक : ओटक्कुष़ल (बाँसुरी) (पृष्ठ 215)
  • रचनाकार : कवि के साथ अनुवादक जी. नारायण पिल्लै, लक्ष्मीचंद्र जैन
  • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ
  • संस्करण : 1966

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