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जी. शंकर कुरुप

1901 - 1978 | एर्नाकुलम, केरला

समादृत मलयाली कवि, निबंधकार और समालोचक। ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित पहले साहित्यकार।

समादृत मलयाली कवि, निबंधकार और समालोचक। ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित पहले साहित्यकार।

जी. शंकर कुरुप की संपूर्ण रचनाएँ

कविता 17

उद्धरण 3

मेरा जीवन मरुभूमि बन गया है।

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वही मनुष्य धन्य है जो स्वधर्म में रत है।

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हे मानव! जब से मैंने तुम्हारी भाषा सीखी, तब से वह विश्व-विमोहक भाषा भूल गया जिसमें स्नेह छोड़कर कोई शास्त्र नहीं, आनंद को छोड़कर कोई अर्थ नहीं, रूप को छोड़कर कोई छंद नहीं।

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