पत्थर और मोम

patthar aur mom

शाम्भवी तिवारी

शाम्भवी तिवारी

पत्थर और मोम

शाम्भवी तिवारी

मेरी माँ पत्थर मारने पर फट पड़ेगी

बिखर जाएगी शिकायत और शोकमिश्रित क्रोध के कई टुकड़ों में

और दिखने लगेंगी उस पर नैराश्य की कई

धागानुमा गहरी दरारें जिनके सहारे भीतर जाएगी

नई सोच की चुभती हुई नई रोशनी

मेरी माँ आग लगाने पर पिघल जाएगी

कई युगों की जल-प्रलय में अभिसिंचित होकर

जिसमें से उठेंगे अतीत की कई शिकायतों के अस्थिपंजर

पर इस सारे विनाश में दोष होगा पत्थर का

आरोप लगेगा आग पर

क्योंकि मेरा मानना है कि मेरी माँ मोम की बनी है।

मैं अगर पत्थर बनकर उतरूँगा

तो सोखकर बना लिया जाऊँगा तलछट का अस्तित्वहीन एकत्व

जिसमें नहीं रहेगी फ़र्क़ करने या फ़र्क़ समझने की हिम्मत या क्षमता

तुम अगर आग या मशाल बनकर आओगे

तो कर दिए जाओगे तुरंत ही निष्प्राण और कर्त्तव्यच्युत

पर हम दोनों के इस निश्चित पतन में तुम्हारा दोष होगा,

मेरी इच्छा,

क्योंकि आम मत है कि शिक्षा-व्यवस्था में कीचड़ भरा है।

तुम्हारे और मेरे खुलकर बिखर जाने से

एक छोटे धमाके के साथ जल उठेगी रोशनी

जो जलती रहेगी हम दोनों के अस्तित्व तक

और बैठ जाएगी हमें देखने वालों की आँखों में

रोशनी की ज़रूरत बनकर

और इस स्वाभाविक रासायनिक प्रक्रिया में हाथ होगा

एक अप्रतिम संयोग का

कि मैं स्याही से भरी क़लम थी

और तुम एक नई मशाल

और हम दोनों मान लेते हैं कि हम में प्रेम हो गया।

मैं, तुम, माँ और व्यवस्थाएँ

अपनी-अपनी धातुओं की पहचान भूलकर

लड़ते रहेंगे आग, पत्थर, जीवन, संस्कार और समाज से

जिसमें माँ नहीं बन पाएगी तपकर खरा होने वाला सोना

हम नहीं धो पाएँगे अपने ऊपर का कीचड़

और मैं और तुम नहीं रोक पाएँगे अपने बीच होते धमाके।

स्रोत :
  • रचनाकार : शाम्भवी तिवारी
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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