स्मृति-कथाएँ : जो नहीं है, वो कहीं तो होगा
पंकज मिश्र
21 फरवरी 2025

जिल्द में बँधी पिता की याद
दुनिया लुप्त हो रही थी। लोग भूल चुके थे—तितलियों के रंग, चिड़ियों की चहचहाहट। उनसे जब भी चिड़ियों का रंग पूछा जाता था तो एक यंत्र तलाशते थे और तस्वीरें तलाशने लगते थे। वह बोलते नहीं थे। अफ़सोस यह कि वह बोलना भूल रहे थे और यह परिघटना कहीं दर्ज नहीं हो रही थी—किसी किताब में नहीं। वह भाषा से अपंग हो रहे थे और बस संकेतों पर आकर ठहर जाते थे।
वह कौन थे और उन्हें कुछ याद क्यों नहीं था! आख़िर क्यों, वह इस बात को अपनी ख़ूबी के साथ बताते थे कि अब उन्हें कुछ याद नहीं आता है!
याद दिलाना कितना मुश्किल काम था। याद को सहेजना उससे भी मुश्किल। उससे भी मुश्किल था—याद करना। याद किस जंगल में खोई थी कि उसे खोजने जो गया, न लौटा।
एक दिन यादों की किताब खोजते वक़्त पिता की डायरी मिल गई। उन्होंने हाथ से पन्ने जोड़कर उसे बनाया होगा। उसके पन्ने गाँठकर जिल्द चढ़ाई होगी। पिता पुस्तक कला नाम का एक विषय पढ़ते थे, जिसमें किताबों को कैसे सुंदर बनाया जाए—सिखाया जाता था। जिल्द बाँधना उन्होंने स्कूल में सीखा था। पुस्तक कला विषय मैंने भी पढ़ा लेकिन कभी जिल्द नहीं बाँध सका। पिता पक्के जिल्दसाज़ थे।
पिता की डायरी में गीत लिखे थे—जिनकी स्याही फैल चुकी थी, जैसे काजल लगाकर घर से निकले बच्चे की आँख भर आई हो और काग़ज़ ने सँभालते हुए काजल बहना रोक लिया हो। डायरी में कुछ शब्द ऐसे ही रोये थे। बस, मैं उनका दुख समझ न सका।
मैंने डायरी में से एक गीत गाने की कोशिश की—बिना लय, सुर, ताल। सिर्फ़ इसलिए गाने लगा कि खोये हुए शब्दों को तलाश सकूँ। मैं गाने लगा—अपने एकांत में। एक सुख की प्रत्याशा में। एक याद को पुनर्जीवित करने के लिए। कितने दिनों तक मैं उस डायरी को लिए भटकता रहा—गाता रहा। रोज़ मेरे साथ चलती हुए डायरी की जिल्द उखड़ने लगी थी। रोज़ कोई-न-कोई शब्द मिल जाता था।
मैं पिता की डायरी को फिर से लिखना चाहता हूँ। मेरे पास उनकी बनाई हुई जिल्द बची हुई है—अंदर के पन्ने अब जर्जर हो चुके हैं। मुझे उस जिल्द को भरना है—उन्हीं गीतों से जिन्हें गुनगुनाते हुए तारों भरी रात में थककर चूर पिता की आँखें मुँदने लगती थीं। मैं सुनता था, सोचता था कि इन गीतों में किसकी याद होगी!
पिता की यादें गीतों में मुझ तक चली आई है—मेरी याद आगे चली जाएगी। पुस्तक कला सीखी है तो उसका इतना तो इस्तेमाल कर लूँ। सोचता हूँ—मेरी गाँठी गई जिल्द को मेरी बेटी भरेगी। बेटी इस जिल्द को भरेगी तो उसके पास माँ के पल्लू वाला रेशम का कपड़ा ज़रूर होगा।
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मुझे तुम्हारी बातें मिल जाएँ
जो नहीं है, वो कहीं तो होगा। जैसे महाभारत के युद्ध का रौरव शोर ब्रह्मांड में कहीं है— तुम्हारी कही गई बातें कहीं तो होंगी! तुम्हारी आवाज़ में लिपटा मेरा नाम कहीं होगा! मैंने तुमसे सभी शब्द कान में कहे थे। तुमने भी आहिस्ते से कहा, ऐसे कि सुनी जाने वाली बातें रास्ता भटक गईं। क्या वे बातें भी कहीं होगी, जो मुझ तक नहीं पहुँचीं!
शब्द कहाँ चले जाते हैं? चिट्ठियों की जामा तलाशी के बाद कुछ नहीं मिलता है। अभी तुम्हारा एक ख़त मिला, जिसमें दूर-दूर कहीं शब्द छिटके हुए थे, ऊसर में जहाँ-तहाँ उगी दूब के द्वीपों जैसे, बेचैनियों से घिरे हुए।
मैं रोज़ आसमान को देखता हूँ। आँखों से हम कितनी दूर तक देख सकते हैं, यह सोचता हूँ और सुख से भर जाता हूँ। कितना अच्छा हो कि दूर तक देखने वाली आँखों से दूर तक ही देखा जाए। चलते वक़्त सोचता हूँ कि आसमान मुझे देख रहा होगा।
हो सकता है, आसमान में कहीं तुम्हारी बात ठहरी हुई तो लौट आए। मैं आसमान को इसलिए भी देखता हूँ कि मुझे तुम्हारी बातें मिल जाएँ।
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चंपा, रेलगाड़ी और घड़ी वाला प्रेमी
चंपा के पास घड़ी नहीं थी। चंपा के पास रेलगाड़ी थी जो उसे सुबह तड़के जगा देती थी, जब मुर्गा भी नहीं जागता था। उसके दुआरे मुर्गे तो थे लेकिन वे भी रेलगाड़ी की सीटी से जागते थे। मुर्गे चंपा की दुनिया में गूँज रहे कोरस का एक सुर थे।
चंपा चाहती थी—उसके पास एक घड़ी हो। चंपा कहती थी, उसके पास घड़ी होगी तो रेलगाड़ी का काम कम हो जाएगा। चंपा को लगता था—रेलगाड़ी उसे जगाने के लिए सीटी बजाती है। उसे लगता था, रेलगाड़ी उसे सुलाने के लिए सीटी बजाती है। उसे लगता था— रेलगाड़ी उसका कितना ख़याल रखती है। रात की बारिश में कभी-कभी भीगते हुए जंगल से गुज़रती है।
चंपा से उसके प्रेमी ने कहा—मैं तुम्हें एक घड़ी लगाकर दूँगा। सोनपुर में मेला लगा है। बस तुम घड़ी में चाभी भरना मत भूलना। ऐसा सुनते हुए चंपा ने एक हाथ अपने सीने पर रखा और अपनी धुक-धुक सुनने लगी। उसकी धुक-धुक थोड़ी तेज़ थी। चंपा खिलखिलाई, जैसे कांसे की थाली छूटकर गिरी हो और जमीन पर नाचती रही हो। उसकी हँसी ठहरी, जैसे जंगल से रेलगाड़ी गुज़रने के बाद पेड़ कुछ देर हिलते हैं और फिर चुप हो जाते हैं।
चंपा को उसकी घड़ी मिल गई थी। घड़ी उसके सीने में रहती थी। वह बसंत का महीना था, जब उसको घड़ी मिली थी।
सभी के साथ उनकी घड़ी रहती है और प्रेम में जाग जाती है।
मैं चंपा की कहानी लिखना चाहता हूँ लेकिन वक़्त नहीं मिलता है। मैं उसके गाँव जाना चाहता हूँ लेकिन उस गाँव कोई गाड़ी नहीं रूकती है।
मैं बसंत को हेरता हूँ... ओऽऽऽ ब...सं....त...अ्...! मुझे भी साथ ले लो!
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