रविवासरीय : 3.0 : इस पर ध्यान दें, भले ही आप अनुभवी शराबी हैं
अविनाश मिश्र
23 मार्च 2025

• प्रश्न यह था कि क्या शराब पीने वालों को उन्हें अपने साथ बैठाना चाहिए, जो शराब नहीं पीते? बैठक में चार पीढ़ियों के चार व्यक्ति थे और वे शराब नहीं पी रहे थे; जबकि उनमें से तीन पी सकते थे, क्योंकि वे पीते थे। शाम के आने का वक़्त था। शराब की व्याकुल याद घेर रही थी। आस-पास जाते हुए शिशिर का उदास प्रकाश था। शराब के साथ जी चुके व्यक्ति को, शराब के साथ न जीना अंधकार लगता है। इस अवसर पर आदरयोग्य और अज़ीज़ कथाकार प्रियंवद ने कहा कि अगर बैठने वाले को कोई समस्या नहीं है, तब उसे बैठा लेने में भी कोई समस्या नहीं है।
• हमें कुछ देर बाद जाना था—यह जानकर कि हमारी बहुत सारी यात्राएँ हमें कहीं नहीं ले जातीं; जबकि हम कहीं नहीं जाकर, कहाँ-कहाँ नहीं पहुँच सकते! हमने प्रियंवद से कहा कि हमें शराबियों के बारे में बताइए। उन्होंने हम पर एक नज़र डाली और कहना शुरू किया :
‘‘मैं जब भी साथ शराब पीने के लिए परिचितों-अपरिचितों को आमंत्रित करता हूँ, उनसे तीन बातें पूछता हूँ—कौन-सी पीएँगे, कितनी पीएँगे और कब तक पीएँगे!
शराबी तीन प्रकार के होते हैं—
~ श्रेष्ठ प्रकृति के वे हैं, जो शराब पीकर चुप हो जाते हैं—आत्मलीन, विचारशील, द्रष्टा।
~ मध्यम प्रकृति के वे हैं, जो शराब पीकर बहुत ज़्यादा बोलने लगते हैं—असंगत, असंबद्ध, अनर्गल।
~ निम्न प्रकृति के वे हैं, जो शराब पीकर गिर जाते हैं—गंदगी में, अपराध में, नींद में।’’
• हममें से एक ने शराब-केंद्रित कुछ और सूक्तियाँ साथ ले जाने की आकांक्षा प्रकट की। प्रियंवद बोले :
~ शराब पीकर कभी अच्छी नींद नहीं आ सकती।
~ शराब पीने का सलीक़ा आना चाहिए।
~ शराब सदा महँगी पीनी चाहिए।
~ महँगी शराब की ख़ाली बोतलें भी बहुत महँगी बिकती हैं, क्योंकि फिर उनमें सस्ती शराब भरी जाती है।
~ नए लोगों के साथ शराब पीते समय सुनने की आदत डालनी चाहिए, बोलने की नहीं।
~ शराब महत्त्वाकांक्षाएँ उजागर कर देती है।
~ प्रेमिका के साथ शराब पीना अन्यतम सुख है।
इन सात सूक्तियों को सुनकर हममें से एक [जो शराब नहीं पीते थे] एक शराबी का अभिनय करने लगे। यह देख-सुनकर प्रियंवद ने अपने उस उत्तर पर पुनर्विचार किया, जो उन्होंने हमें बिल्कुल शुरू में दिया था कि अगर बैठने वाले को कोई समस्या नहीं है, तब उसे बैठा लेने में भी कोई समस्या नहीं है। प्रियंवद ने कहा कि शराब पीने वालों को उन्हें अपने साथ कभी नहीं बैठाना चाहिए, जो शराब नहीं पीते हैं। उन्होंने आगे कहा कि दरअस्ल, शराब नहीं पीने वाले बहुत पवित्र और अक्षत होते हैं... हमें उनका शील नहीं भंग करना चाहिए। लेकिन इसके बाद प्रियंवद उठे और Hennessy Cognac की एक सुंदर-सी बोतल हमारे बीच लाकर रख दी और शराबी का अभिनय कर रहे हमारे बीच के ग़ैर-शराबी से कहा कि सिर्फ़ एक घूँट लीजिए और दिल पर हाथ रखकर बताइए कि क्या इससे अच्छी कोई चीज़ कभी आपने पी है? ग़ैर-शराबी सज्जन पर शेष दो जन भी दबाव डालने लगे। हमने यह भी कहा कि आप कैसे कवि-लेखक हैं कि मात्र एक घूँट से आपका व्यक्तित्व नष्ट हो जाएगा! पर उन पर इन बातों का कोई असर नहीं हुआ। यह स्थिति कुछ देर तक तनावपूर्ण रही, लेकिन अंततः हम उनका शील-भंग नहीं कर पाए। उन्होंने संभवतः बचपन से ही शराब-केंद्रित ये सात सूक्तियाँ सुन रखी थीं :
~ शराब एक बार मुँह से लग जाए, फिर सब बार शराब ही जीतती है।
~ शराबी को जो बीमारी सबसे पहले लगती है, वह है—बोतल ख़त्म करने की।
~ शराबी वही करता है, जो करने से उसे रोका जाता है।
~ शराब पीकर ‘फ़ेसबुक’ पर कई लोगों को चू** कहने का मन करता है।
~ शराब अव्यावहारिक बना देती है।
~ शराब पीने से दुःख हीन नहीं होता, बल्कि और बढ़ता है।
~ जब शराब के रंग की याद नहीं रहती और प्याला सामने नहीं रहता, तब भी उसका स्वाद रहता है। — ख़लील जिब्रान
• नक़ली लेखकों की तरह ही इस वसुंधरा पर नक़ली शराबियों की भी भरमार है। लेकिन नक़ली होने से वे बुरे नहीं हो जाते, वे बस इस वसुंधरा के वास्तविक शराबियों से वाक़िफ़ नहीं होते हैं। इस अपरिचय में वे इतने नक़ली होते हैं कि कुछ खाकर पीते हैं और पीते हुए भी खाते हैं और फिर पीकर भी खाते हैं। वे रोज़ नहीं पीते हैं। वे दिन में नहीं पीते हैं। वे पानी मिलाकर पीते हैं। वे पीकर भी होशमंद रहते हैं। वे व्यवस्थित, संतुलित और सुरक्षित होते हैं। उन्हें जीवन सार्थक लगता है, वे इसलिए पीते हैं कि जीवन उन्हें और सार्थक लगे। वे पीकर भी जनपक्षधर बने रहते हैं। शराब उन्हें जनसंपर्क बेहतर बनाने में मदद करती है। शराब पीने के बाद भी उन्हें ये दुनिया बेमतलब, फ़ालतू और अश्लील नहीं लगती; बल्कि बेईमान, बर्बर और फ़ाशिस्ट भी नायक लगने लगते हैं। वे गणित में कुशाग्र होते हैं और दारूबाज़ी में हुए ख़र्च का पूरा हिसाब रखते हैं। वे रेज़गारी तक ठीक से गिनकर जेब में डालते हैं। उनकी रेज़गारी उनसे कहीं भी छूटती नहीं। एक रूमाल तो छोड़िए, वे एक टूथपिक तक कभी नहीं भूलते। वे मदहोश-बेहोश होकर कभी कहीं नहीं गिरते। वे जब भी गिरते हैं, पूरे होश-ओ-हवास में ही गिरते हैं। वे प्यार को जानकर भी आत्मघाती नहीं होते, प्यार का रंगमंच करते हुए जीते रहते हैं। वे शराबियों से सतर्क रहते हैं। शराब उनके दोस्तों की संख्या में इज़ाफ़ा करती है, दुश्मनों की नहीं। वे शातिर होते हैं, शराबी नहीं। वे शराब पीकर और ज़्यादा चतुर-चकड़-चौकन्ने हो जाते हैं। वे शराब पीकर भी स्त्रियों का पूरा सम्मान करते हैं। ...और एक रोज़ वे शराब छोड़ भी देते हैं। वे तब तक नहीं पीते रहते, जब तक कि मर न जाएँ!
• नशा क्या वस्तुतः मूर्खता की देन है?
प्रेमचंद की कहानी ‘नशा’ के अंत पर पहुँचकर, यह ख़याल सवाल बनकर घेरता है।
• मानवीय व्यवहार का सघन और दिलचस्प विश्लेषण यथार्थवादी कथाकारों का केंद्रीय संघर्ष रहा है। हमारी आलोचना का एक अंश भी इन कथाकारों के मूल्यांकन के वक़्त उनके महत्त्व को उनकी इस विशेषता से ही जाँचता रहा है। मानवीय व्यवहार की जटिलतम परतों का अध्ययन और उसकी अभिव्यक्ति जिस कथाकार ने जितनी वैचारिक प्रतिबद्धता और रचनात्मकता के साथ संभव की, वह उतने ही महत्त्व का साबित हुआ। प्रेमचंद इस सिलसिले में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण हैं, क्योंकि उनके कथा-संसार में मानवीय व्यवहार अपनी तमाम रंगतों के साथ मौजूद है। उनकी ‘नशा’ कहानी इस रंगत का ही एक आयाम है। ‘नशा’—संक्षिप्त-सी एक सादी कथा, लेकिन शोषण की समूची मानसिकता और संस्कृति का गतिशील आख्यान।
ईश्वरी और बीर नाम के दो नौजवानों की यह कहानी वर्ग-भेद को प्रकट करने वाले वाक्यों से आरंभ होती है और उनके बीच के वैचारिक विमर्श को स्पष्ट करती है। कथावाचक मैं [बीर] एक ग़रीब घर से है और उसका दोस्त ईश्वरी एक बहुत संपन्न घराने से। कहानी यों आगे बढ़ती है कि बीर को कुछ रोज़ के लिए ईश्वरी के यहाँ उसके साथ छुट्टियाँ बितानी पड़ती हैं। बीर अपने चेहरे और व्यवहार और पोशाक से अपने वर्ग का पता दे रहा है, लेकिन ईश्वरी एक झूठ से उसे अपने वर्ग का सिद्ध कर देता है। यह झूठ उत्प्रेरक का काम करता है और कथावाचक पर नशा छाने लगता है। जैसे-जैसे नशा तेज़ होता है, वैसे-वैसे उसकी सेवा में लगे जनों से उसका बर्ताव मूल मालिक से भी क्रूर प्रतीत होने लगता है। अपने मूल वर्ग के व्यक्तियों के प्रति उसके नज़रिये और व्यवहार में हिक़ारत दिखने लगती है।
‘नशा’ में उस नशे से कुछ तात्पर्य नहीं है, जिसे शब्दकोशीय अर्थ में ग्रहण किया जाता है—मादक द्रव्यों के सेवन से उत्पन्न दशा या मादक द्रव्य। नशा स्वरूप को भूलने की दशा भी है और मूल स्वरूप में लौटने की भी। यह द्वंद्व इस संसार में नशों के प्रकार के विस्तार में सहायक है। सत्ता, शक्ति, श्रेष्ठताबोध और दूसरों को कमतर बनाए रखने का उच्चतम संतुलन भी नशे की श्रेणियाँ हैं।
• संसार की बहुत सारी महान् कथाओं में वर्णित परिवेश और चरित्रों का आज सफ़ाया हो गया है, लेकिन क्या बात है कि इन कथाओं की महानता हिलाए नहीं हिलती। हालाँकि सब प्रकार की महानता का नशा उतर चुका है। उसकी जगह अब प्रासंगिकता का प्रश्न और पहलू है। यानी पुराने नशे जा चुके हैं। नए नशे आ चुके हैं। यह प्रक्रिया निर्बाध और समकालीन है, लेकिन मानवीय व्यवहार की कई बहुत पुरानी कथाएँ अब तलक प्रासंगिक और उल्लेखनीय बनी हुई हैं। इसकी वजह मानवीय व्यवहार के उस प्रकटीकरण में है, जिसके मूल स्वरूप में अब तक कोई विशेष बदलाव नहीं आया है। उसके कई भयावह पक्ष अब भी गुरुत्वाकर्षण की तरह सत्य बने हुए हैं।
• नशे के बारे में यह एक बहुत चालू किंतु स्वीकृत तथ्य है कि वह व्यक्ति की दमित आकांक्षाओं को पटल पर ले आता है। इस उभार का प्रयोग व्यक्ति कैसे करे, बेशतर मामलों में यह उसके हाथ में ही नहीं होता। वह हज़ारों साल पुराने मानव-व्यवहार-अनुकूलन से चाहे-अनचाहे स्वतः संचालित होता रहता है। मानवीय स्थिति बहुत बार यह भी होती है कि व्यक्ति सामने वाले से ज़्यादा ख़ुद से ही लड़ रहा होता है।
• कुछ नशे समाज-सेवा में गहरे संलग्न होने के आदर्श से भी व्यक्ति को भर देते हैं। इस तरह मानव-जीवन की निरर्थकता में अर्थ भर देने का अध्यात्म आकार लेने लगता है और अपने लिए जिए तो क्या जिए... गाते हुए मन्ना डे गूँजने लगते हैं।
• कुछ शराबी अपनी संवेदना ध्यान से भी आयत्त करते हैं, सब बार उन्हें सामान-ए-बेख़ुदी [शराब] की ही ज़रूरत नहीं पड़ती।
वे चीज़ें-स्थितियाँ-रचनाएँ; जिन्हें देख-सुन-पढ़कर संवेदनशील समाज रो रहा होता है, शराबी उन पर अविचलित बने रहते हैं।
• कुछ नशे ख़ूँख़ार होते हैं। वे मूल में ले जाते हैं—जड़ों की ओर। प्रेमचंद ‘नशा’ में अपने नायक को वहीं ले जाते हैं :
‘‘ईश्वरी तो ज़मींदारी विलास का अभ्यस्त था, पर बीर को यह सम्मान पहली बार मिल रहा होता है। यद्यपि वह जानता है कि ईश्वरी ने उसका झूठा परिचय कराया है, पर स्वागत-सत्कार में अंधा होकर वह अपना आपा खो बैठता है। उसे नशा हो जाता है। पहले जिन बातों के लिए वह ज़मींदारों की निंदा किया करता था—जैसे नौकरों से अपने पैर दबवाना, नौकरों से सारे काम करवाना—अब वह स्वयं भी उन आदतों में लिप्त होने लगता है। ईश्वरी चाहे थोड़ा काम अपने आप कर भी ले, पर ‘गांधीजी वाले कुँवर साहब’ नौकरों का काम भला अपने हाथों से कैसे करते? नौकरों से ज़रा भी भूल हो जाती तो कुँवर साहब उन पर आगबबूला हो उठते।’’
यह शोषण की मादकता है। इससे कोई लाख इनकार करे; लेकिन सारी मादकताओं की तरह यह भी जब तक ध्वस्त नहीं होती, बहुत अच्छी लगती है। यह व्यक्ति को कुछ होने का एहसास कराती है और सद्विचार की बागडोर व्यक्ति के हाथ से छीनकर अपने हाथ में ले लेती है। व्यक्ति को लगता है कि इसके बिना उसका कोई अस्तित्व ही नहीं है।
लेकिन नशा जैसे-जैसे उतरता है, यह समझदारी कि आप मूर्ख हैं—समीप आती जाती है। नशे का ख़ात्मा व्यक्ति के भीतर तक इस एहसास को भरकर उसे व्याकुल करता है कि वह कितनी बड़ी मूर्खताएँ अपनी मादकता में करता रहा। तानाशाही, साम्राज्यवाद, युद्ध, सांप्रदायिकता, सामंतवाद, जातिवाद, असमानता, अत्याचार और अन्याय का नशा भी ऐसा ही है। कहीं-कहीं कभी-कभी यह नशा-चक्र टूटता है, नहीं तो ज़्यादातर यह अटूट रहता है। यह महज़ चंद ज़िंदगियों की बात नहीं है; इसकी चपेट में आकर पूरी की पूरी सभ्यताएँ नष्ट हो जाती हैं, लेकिन यह ‘नशा’ नष्ट नहीं होता। वह केवल स्थगित रहता है और इस स्थगन में वह नशेबाज़ की ‘अंतरात्मा’ में किसी बार के बाहर लगे इलेक्ट्रॉनिक नेम-बोर्ड की तरह लुपदुम-लुपदुम करता रहता है। यह प्रक्रिया समीक्षा का कोई अवसर नहीं आने देती है। ...और इस प्रकार ख़याल बनकर सामने आए उस सवाल का कोई संतोषजनक जवाब नहीं मिल पाता कि नशा क्या वस्तुतः मूर्खता की देन है?
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