दास्तान-ए-गुरुज्जीस-3
ज्योति तिवारी
17 अप्रैल 2025

दूसरी कड़ी से आगे...
उन दिनों अमूमन सर्दी-गर्मी की छुट्टियाँ ननिहाल में बीतती थी। नाना को साहित्य, संगीत, गीत से प्रेम है। उनके इस प्रेम का शिकार मामा-मौसी के बाद सबसे अधिक हम और भाई हुए। ठंड की भोरहरइ में पुआल पर रज़ाई तान के हम गहरी नींद सो रहे होते और दूसरी तरफ़ हारमोनियम पर सा रे गा मा... उतनी ही गहराई के साथ कानों में गूँज रहा होता। फिर कुछ श्लोक, फिर कुछ कविताएँ और फिर पौ फटने के साथ सब दालान से बाहर, सिवाय हमारे। इसलिए ग़ौर करें तो बात यह बन पड़ती है कि गुरुओं से प्रगाढ़ता का सिलसिला यहीं से बन गया।
नाना आवाज़ दे रहे : “जोतीया उठ”, मामा आवाज़ दे रहे : “मणि उठा”, मौसी आवाज़ दे रही : “बाची उठ जा”, भाई चादर खींच रहा कि अब तो ज़रूर उठेगी और इन प्रयासों के बीच, बात हमारे आत्मसम्मान पर आ जाती थी; और हम सिर से पैर तक चादर को कफ़न बना लेते थे। साँसों में ऐसी घोर शांति धारण करते थे कि इतनी चिल्ल-पों में मुर्दा खीझ करके उठ जाए, पर हम ना उठे। मोटे तौर पर हम मुर्दों को मात देने का हुनर रखते थे और एक दिन नाना हमारी इस कला पर रीझ गए और उन्होंने हमारा नामकरण किया—“घोंघाचप्प”। तब से अब तक जीवन की उन सभी परिस्थितियों में जो हमें विपरीत लगी, हमने इस नाम की सार्थकता को जीवित रखा।
घोंघाचप्प के नाम और गुणों के साथ हम नवीं में पहुँच गए थे, जहाँ पिता के अप्रत्यक्ष दवाब में हमने विज्ञान चुना, हालाँकि हमें यह पता नहीं था कि स्वयंमर्ज़ी की स्वयंअर्ज़ी दी जा सकती थी। भौतिक विज्ञान और गणित के पन्ने पलटते हुए, हम ये समझ चुके थे कि हम इस भौतिक संसार के गणित में मकड़ी के जाले से उलझ चुके हैं। अब हम डूबते को तिनके का सहारा चाहिए था। सहारे की आस में भौतिकी के गुरुजी के साथ हमारा शिष्यत्व प्रगाढ़ होता जा रहा था कि आते ही उनका पहला वाक्य जो आशीष रूप में हमारे ऊपर बरसता था, वह यह कि—“इहो तिवारी जी के इहाँ गोइठा में घीवे सोखावे आयल हई।”
गुरुजी को राय बगिया में लगे देसी गुलाबों से इस क़दर मुहब्बत थी कि कली से पुष्प तक सबको वे इस क़दर नाकसात कर जाते थे कि देखने वाला इस इश्क़ पर रश्क़ खाए और ज़मीं चूमते कली और पुष्प कलियन-कलियन करि पुकार के तर्ज़ पर आह-आह करे।
एक दिन गुरुजी लंच-ब्रेक के बाद कक्षा में जुगाली करते आए और उनके हाथों में एक मुट्ठी चना-चबेना था। हमारी नज़र उनकी मुट्ठी पर थी, उन्होंने बग़ल में बैठी हमारी सुस्मित मित्र से पूछा (जो उनकी पुत्रीवत थी)—“तोहू लेबू?” फिर हमें देखते हुए, मायूस होते हुए यह कहा कि—“जायेदा एक्कय मुट्ठी ह! फिर सबके परसादी नियर बांटय के होई।” तबसे हमने खाने से इस क़दर डूबकर प्रेम किया कि हमने ख़ुशी में भी खाना खाया, ग़म में भी खाना खाया, मय्यत में भी खाना खाया, जलसे में भी खाना खाया, सफ़र में भी खाना खाया, आरामतलबी में भी खाना खाया, कई दफ़ा सोकर खाया, कई दफ़ा बैठकर खाया, कई दफ़ा पूरे घर में घूम-घूमकर खाया, कई दफ़ा मिल-बैठकर खाया, कई दफ़ा छीनकर खाया, कई दफ़ा सम्मान में खाया, कई दफ़ा अपमान में खाया (तुकबंदी के लिए कवि से माफ़ी); मूल बात यह कि हमनें खाने को ही जीवन का अंतिम सत्य माना और इसी पर अडिग हैं अभी तक।
गुरुजी को पूरी उम्मीद थी कि हम अंतिम प्रथम होंगे, और हम उनकी सोच से इत्तिफ़ाक़ रखते थे कि तब तक हमें तिनके का सहारा मिल गया—जो हम ना डूबेंगे और तुम्हें भी ना डूबने देंगे जैसे थे। गुरुजी के प्रति हमारे मन में श्रद्धा-भावों के कारण उपजी तमाम हरकतों पर वो लोग पर्दा डालते रहे। उनका मानना था कि बहती गंगा में हाथ धोने में कोई बुराई नहीं, लिहाज़ा हम भौतिक विज्ञान में उत्तीर्ण होने के साथ-साथ गणित के एक पर्चे में फ़ेल होते-होते डिस्टिंक्शन ले आए।
दूसरों के लिए परिणाम और हमारे लिए क़यामत का दिन आया। परीक्षा फल में हम कक्षा के अंतिम प्रथम थे। हम ख़ुश थे कि हम पास हो गए, बहुत लोग ख़ुश थे कि हम भी पास हो गए थे।
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हमने बारहवीं में जीव विज्ञान को चित्रकला समझकर पढ़ा। भौतिक और रसायन से मोहभंग होते हुए भी मोहधागा बँधा हुआ था, जबकि विज्ञान हमें धरातली लगता था, तब भी हम कभी इसके इश्क़ में नहीं डूबे। हमने जैसे-तैसे बारहवीं पास कर ली। पास होने से हम हमेशा निर्मोही रहे। हो तब भी ठीक, ना हो तब भी ठीक। फिर भी यह एक ऐतिहासिक घटना के तौर पर हमारे जीवन में दर्ज है।
इसके बाद हमें सिंहद्वार के भीतर प्रवेश करने की अनुमति मिल चुकी थी। जहाँ पहले ही दिन एक बुज़ुर्ग प्रोफ़ेसर—जिनके बालों में सींग छुपी थी—से हमारी मुलाक़ात हुई, जिनकी वजह से हम जैसे यूपी-बिहार से आईं सोलह-सत्रह साल की कन्याओं को, बड़े से विश्वविद्यालयों में होती छोटी-छोटी मगर निहायत नुकीलेपन की भनक लग गई थी। अगर हम कहें कि हमारी प्रवेश-प्रक्रिया युद्ध लड़ने जैसी थी, जिसमें हम कई दफ़ा हताहत और लहूलुहान हुए—तो ग़लत न होगा कि हम अनजाने भविष्य के अनजाने मित्रों के सामने सीने पर चोट खाए योद्धाओं की भाँति एक-दूसरे के चोटों को देख मुस्कुरा रहे थे। विषय चुनने, फ़ीस जमा करने और हॉस्टल लेने की प्रक्रियाएँ—किसी त्रासदी से कम नहीं थी। हमने त्रासदियों पर विजय पाई।
कुछ दिनों बाद हमने अपने आप को तीन अजीबोग़रीब विषयों की कक्षाओं में पाया, जिसमें हमें क्या पढ़ना है, कितना पढ़ना है, कैसे पढ़ना है—में उलझे रहे। कुछ दिनों बाद क्लास में ही मैकबेथ मर गया। मैम मुस्कुराती रहीं। हम भी मुस्कुराते रहे। दोस्तों ने कुहनी लगाई, बताया—मैकबेथ मर गया! हम कभी मैम को देखें, कभी ख़ुद को। उस दिन हमने जाना कि हम किस क़दर दोयम दर्जे की छात्रा हैं कि सभ्य लोगों की तरह कुछ सभ्य विषय भी होते हैं, जिनमें हम जैसे अँग्रेज़ी भी हिंदी में पढ़कर आते लोगों के लिए जगह बहुत मुश्किल से बनती है। कुछ घुँघराले जुल्फ़ों वाली अध्यापिकाओं ने हिंदी मीडियम पर मुँह बिचकाने की ट्रेनिंग ले रखी थी, उन्हें कई बार हमने उन कमरों की तरफ़ नाक पर रूमाल रखकर जाते देखा था—जिधर हमारा झुँड बैठे-बैठे लंबी-लंबी उबासियाँ लिया करता था। उन्होंने कभी हमारे गुड मॉर्निंग का जवाब ना दिया! जवाब में हमेशा वो जुल्फ़ों को हौले से झटका दिया करती थीं। तब तक हमलोग ‘ना झटकों जुल्फ़ से पानी, मेरा दिल टूट जाता है’ का मतलब जान चुके थे। हमारा दिल जुल्फ़ के झटकों से बुकनी-बुकनी होता रहा। हमें एक क्लास में बताया गया कि हम रट्टू तोते जैसे हैं। जिह्वा के अग्रभाग पर अटक गया था मैम। आप भी। हम 75% उपस्थिति के चक्कर में अपनी नींद को तबाह कर रहे थे। सुबह के नाश्ते को दौड़ते-भागते ख़त्म कर रहे थे। राह चलते चप्पलें टूट जा रही थी। हम उनकी फित्तियों में सेफ़्टी पिन लगा परीकथा जी रहे थे। हम अब धीरे-धीरे 75%, साहित्य और इतिहास की अझेल कक्षाओं के साथ एक समानांतर दुनिया जी रहे थे, जिसका भविष्य तय नहीं था।
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