भाषा के घर में क्या है!

भाषा पर बात करते हुए मुख्यतः चार रुझान या रवैये दिखाई देते हैं।

व्युत्पत्ति : शब्द की उत्पत्ति, विकास और परिवर्तन का इतिहास ढूँढ़ना।

विधानवाद (Prescriptivism) :  भाषा के ‘शुद्ध’ या ‘सही’ रूप को बनाए रखने की कोशिश करना और आमतौर पर बोलचाल में होने वाले बदलावों को ग़लत या विकृत मानना।

जलेबी, समोसे, ट्रेन और बैंक का हिंदी, उर्दू, पंजाबी या बंगाली अनुवाद ढूँढ़ना।

बहुभाषी

व्युत्पत्ति का कुछ संबंध भाषा विज्ञान से है। क्रम में बाक़ी तीन भारत में या तो linguist समझे जाते हैं या स्वघोषित linguist होते हैं।

अगले हिस्से इन्ही विषयों के इर्द-गिर्द बात करते हैं।

भाषा ख़तरे में

Our language is degenerating very fast
(James Beattie, Scottish Poet and Essayist, 1786)

भाषा की शुद्धता और उसका सौंदर्य अगर ख़तरे में है तो जेम्स बीटी की उपरोक्त टिप्पणी 1786 की है, जब वह अँग्रेज़ी भाषा के होते उत्तरोत्तर पतन को लेकर चिंतित थे। यह चिंताएँ और शुद्ध भाषा के इस्तेमाल पर ज़ोर हमारे समय में भी है। भाषा के बर्ताव पर शुद्धता का यह इसरार जितना पुराना है उतना ही रोचक भी।

भाषा की शुद्धता और प्राचीनता का दावा भाषाई अस्मिता की शुद्धता और प्राचीनता का दावा है। इसमें जातीय तथा सामूहिक अस्मिता के गौरव की पुनर्स्थापना या खोजने की कामना है। इस दावे का बहुत सरोकार इस बात से नहीं है कि भाषा कैसे जन्मी या भाषा का जन्म जैसा कुछ होता भी है कि नहीं। इस दावे में किसी भाषा का व्याकरण ‘जटिल’ कहने का तर्क दरअस्ल एक औज़ार है जिससे उसकी प्राचीनता सिद्ध की जा सके।

अधिकांश मानव इतिहास में, भाषाएँ बिना लिखे ही विकसित और परिवर्तित होती रहीं। भाषा एक उत्तरोत्तर विकसित होती हुई जैविक और संज्ञानात्मक घटना रही है, जबकि लेखन एक तकनीकी आविष्कार है। मनुष्य जितने समय से बोल रहा है, उसके बरक्स लिखने की तकनीक और प्रणालियाँ अपेक्षाकृत बहुत नई हैं। कई बोलियाँ और मौखिक परंपराएँ कभी दर्ज नहीं की गईं, फिर भी वे लिखित परंपराओं जितनी ही वैध हैं।

संस्कृत एक ‘तर्क’ की तरह

साहित्यिक परंपरा तथा व्याकरण से आशय अक्सर Stylistics और Prosody के संदर्भ में भी होता है। अरबी कवि एडोनिस ने ‘An Introduction to Arab poetics’ में इस्लामोत्तर अरबी-काव्य पर क़ुरान के प्रभाव की चर्चा की है। वागीश शुक्ल ने संस्कृत के हवाले से अपनी निबंधों की पुस्तक ‘शहंशाह के कपड़े कहाँ हैं?’ में दिलचस्प बात लिखी है।

“भारतीय विद्या-परंपरा पूरी तरह वाक्-केंद्रित है। व्याकरण क्यों पढ़ा जाना चाहिए? इसलिए कि दोषयुक्त स्वर के उच्चारण से अहित होता है। जब किसी का अहित करना होता है तो ईश्वर उसकी वाणी भ्रष्ट कर देते हैं जैसे कि ‘इन्द्रशत्रुर्वर्धस्व’ मंत्र को दूसरी तरह से उच्चारण करने के नाते वृत्रासुर की वृद्धि की जगह उसके क्षय की कामना हो गई-दारोमदार इस पर था कि बहुब्रीही समास है या तत्पुरुष इसलिए व्याकरण अपने बचाव का साधन है”

लेकिन यहाँ संस्कृत पर बात उपरोक्त परिप्रेक्ष्य से नहीं हो रही है। किसी भी इलाक़े में जाइए, भाषा पर बहस की तान इस पर टूटेगी कि उनकी भाषा या तो संस्कृत के ‘क़रीब’ है या संस्कृत से ‘निकली’ है। यद्यपि अधिकतम स्थितियों में बाशिंदे न ख़ुद संस्कृत जानते हैं न इस बात को विस्तार से समझा सकते हैं कि कैसे उनकी भाषा संस्कृत के ‘क़रीब’ है। संस्कृत के क़रीब होना शास्त्रीय तथा भाषाई समृद्धता के क़रीब होना है। भारत की भाषाई परंपरा और इतिहास में वैधता स्थापित करने की यह मासूम अर्ज़ी है जहाँ ‘बर्डन ऑफ़ प्रूफ़’ निश्चित ही नहीं है। संस्कृत एक तरह से इतिहास-बनाम-इतिहास संघर्ष की भाषा भी है। GN Devy की पुस्तक इंडिया अ लिंगुइस्टिक सिविलाइज़ेशन की एक अनौपचारिक समीक्षा में मैंने देखा कि कैसे संस्कृत पर सारी बहस ‘आर्य-प्रवास बहस’ के इर्द-गिर्द घूमकर समाप्त हो जाती है।

फ़िल्म—नमस्ते लंदन के ‘निर्णायक दृश्य’ में अक्षय कुमार, अँगरेज़ किरदार को उन शब्दों की सूची सुना रहा है जो अँग्रेज़ी में इस्तेमाल होते हैं लेकिन संस्कृत से ‘निकले’ हैं। कैटरिना कैफ़, अक्षय कुमार को देखकर हैरान और ख़ुश होती है कि जो उसको चाहता है वह न सिर्फ़ एक अँगरेज़ को अँग्रेज़ी में ‘रिबट’ कर सकता है बल्कि संस्कृत तथा व्युत्पत्तिशास्त्र भी जानता है। यह दृश्य तथ्यात्मक रूप से त्रुटिपूर्ण है। प्रोटो भाषाओं में सजातीय शब्दों की मौजूदगी का अर्थ यह नहीं कि भाषा ‘अ’ भाषा ‘ब’ से निकली है। अक्षय कुमार के संवाद लेखक को यह भी सनद रहे कि इस तरह के तुलनात्मक और ऐतिहासिक भाषाविज्ञान की क़वायदें बहुत हद तक ब्रिटिश राज में ही हुई थीं। विलियम जोन्स और जेम्स प्रिंसेप इस में सबसे प्रतिष्ठित नाम हैं।

रामविलास शर्मा ने ‘भाषा और समाज’ में बांग्ला और मराठी के हवाले से एक टिप्पणी की है कि संस्कृत के क़रीब होने का अगर वैज्ञानिक (भाषाविज्ञान) परीक्षण किया जाए तो मराठी में ‘मूर्धन्य’ (रेट्रोफ्लेक्स) ध्वनि अभी भी मौजूद है। यह पंजाबी, गुजराती और द्रविड़ भाषाओं में भी है जबकि पढ़ाए जाने के बावजूद उसका बाँग्ला में लोप हो गया है और वह ‘पृष्ठतालव्य’ और ‘दन्त’ ध्वनियों के समकक्ष आ गई है।

संस्कृत के ‘क़रीब’ होने की ज़िद, भाषाओं में संस्कृत शब्दों के बाहुल्य से भी आती है। पेगी मोहन की पुस्तक ‘वांडरर्स, किंग्स, मर्चेंट्स’ में बताया गया है कि कैसे नंबूदरी ब्राह्मणों के आगमन से मलयालम भाषा में संस्कृत शब्दों की भरमार हो गई। हालाँकि, इन सतही परिवर्तनों के बावजूद, मलयालम की मूल वाक्य संरचना में कोई बदलाव नहीं आया। यह भाषा अपनी द्रविड़ जड़ों के साथ वैसी ही बनी रही।

आधुनिक भाषाविज्ञान

Colorless green ideas sleep furiously
(Noam Chomsky, Syntactic structures, 1957)

उपरोक्त पंक्ति अपनी अर्थहीनता के बावजूद ऐतिहासिक है। चोम्स्की ने पहली बार इस वाक्य से बताया कि यह ‘वाक्य’ संरचनात्मक रूप से सही है (व्याकरण के नियमों के अनुरूप है) लेकिन अर्थहीन है।

यह एक बड़ा बदलाव था, जहाँ चोम्स्की ने कहा कि व्याकरणसम्मत वाक्य भी अर्थहीन हो सकता है या व्याकरणसम्मत होना अर्थ का नियामक तत्व नहीं है। चॉम्स्की ने इसका उपयोग यह तर्क देने के लिए किया कि वाक्य रचना (Sentence structure) अर्थ से स्वतंत्र होती है। उनका उद्देश्य भाषा को लेकर व्यवहारवाद (Behaviorist) के दृष्टिकोण को चुनौती देना था और यह दिखाना था कि मनुष्य में स्वाभाविक रूप से व्याकरण सम्मत वाक्य बनाने की क्षमता होती है, भले ही वे वाक्य अर्थहीन हों।

इससे पहले, भाषा को सामाजिक व्यवहार माना जाता था। चॉम्स्की ने यह सिद्धांत प्रस्तुत किया कि भाषा एक स्वाभाविक क्षमता है, जो मानव मस्तिष्क में जन्मजात होती है।

व्याकरण की परीक्षा में असफल हो जाने वाला छात्र भी सही भाषा कैसे बोल सकता है? यहाँ ‘सही भाषा’ से मुराद किसी व्याकरण पुस्तक में वर्णित नियमों का आग्रह या उसके अनुरूप बोली गई नहीं बल्कि रोज़मर्रा में बोली जा सकने वाली भाषा है। चोम्स्की ‘भाषा अधिग्रहण’ की इस प्रक्रिया को गणित के क़रीब ले गए जहाँ सीमित नियमों से अनगिनत परिणाम पैदा किए जा सकते हैं। यह दृष्टिकोण भाषा में ख़ामियाँ और सुधार करने के शुद्धतावाद को पूरी तरह खंडित करता हुआ, भाषा अध्ययन को ‘निर्देशात्मक’ से ‘वर्णात्मक’ बना देता है कि ‘कैसे और क्या बोलें’ की जगह ‘मानव कैसे बोलता और समझता है’ सवाल केंद्र में आ गया। इसीलिए आधुनिक भाषा विज्ञान भाषा और बोलियों में अंतर नहीं करता और वह इसको सामाजिक भाषा-विज्ञान का सवाल बना देता है। उसके समक्ष बघेली और बुंदेली वही हैसियत रखती हैं जो संस्कृत और फ़ारसी। पाणिनि के व्याकरण ग्रंथ ‘अष्टाध्यायी’ को भी इसी परिप्रेक्ष्य के चलते प्राचीनतम ‘डिस्क्रिप्टिव व्याकरण’ ग्रंथ माना जाता है कि वहाँ सूत्राधारित वाक्य-संरचना के नियम मौजूद हैं जिनके अनुपालन से अनगिनत वाक्य बनाए जा सकते हैं।

चोम्स्की के इस प्रस्ताव और सिद्धांत के कई अन्य पहलू भी हैं जिसकी आलोचना और सीमाएँ भी कालांतर में सामने आईं लेकिन उनके प्रस्तावों का अधिकतम हिस्सा आधुनिक भाषा विज्ञान के लिए प्रासंगिक है।

शुद्ध हिंदी और ख़ालिस उर्दू?

मैं जब तुर्की भाषा पढ़ रहा था तो अनुवाद के दौरान शब्द ‘सहायता’ के लिए ‘इमदाद’ शब्द इस्तेमाल किया जिसे काटकर मेरे उस्ताद ने ‘यार्दिम/Yardım’ कर दिया जो अपनी व्युत्पत्ति में तुर्की शब्द था बजाए ‘इमदाद’ के जो एक अरबी-फ़ारसी शब्द है। मैंने शब्द का उस जगह ग़लत इस्तेमाल नहीं किया था लेकिन तुर्की में अरबी-फ़ारसी शब्दों को अपनी रोज़मर्रा की भाषा से बाहर धकेलने की क़वायद पुरानी थी और उस वक़्त वही अमल हुआ। लेकिन यह केवल भाषायी क़वायद नहीं समझी जा सकती। यह एक सांस्थानिक व्यवहार की अभिव्यक्ति थी जो भाषा को उसके मानक दर्जे से गिरा या उठा सकती है।

क्या शुद्ध हिंदी या शुद्ध उर्दू का अर्थ शुद्ध ‘क्रिया’ और शुद्ध ‘संज्ञा’ है? क्या किताब का बहुवचन ‘किताबें’ शुद्ध है क्योंकि शब्द अरबी का है लेकिन बहुवचन का नियम हिंदी/उर्दू का है। शुद्ध मराठी महाराष्ट्री प्राकृत के नज़दीक होगी या फ़ारसी, कन्नड़ और तेलुगु के?

उर्दू में ‘साज़िश’ का अर्थ ‘षड्यंत्र’ है और फ़ारसी में ‘समझौता या सहमति’। ‘इंसानों ने इंसानों को खा जाना है’ को हिंदी का वाक्य समझा जाए या पंजाबी का? क्या बेदर्द का ‘बे’ वही है जो ‘बेगम’ में है?

भाषा के शुद्ध बर्ताव से क्या आशय है? शुद्ध हिंदी का अर्थ संस्कृतनिष्ठ हिंदी है। शुद्ध उर्दू यानि फ़ारसी-अरबी पदों और शब्दों में लदी-सजी उर्दू।

मुश्ताक़ अहमद यूसुफ़ी ‘आबे-गुम’ में थानों के बारे में लिखते हैं; “यहाँ हर फ़े'ल फ़ारसी में हो रहा था, मसलन समन की तामील बज़रिया चस्पांदगी, मुतवफ़्फ़ा की वजह-ए-फ़ौतीदगी, अदम इस्तेमाल और ज़ंग-ख़ुर्दगी के बाइ'स जुमला राइफ़ल-हाए-थाना हाज़ा बेमआ'ह कारतूस-हाए-परीना की मुरूर-ए-अय्याम से ख़लास-शुदगी और अमले की हैरानगी”

शुद्ध भाषा का आग्रह कितना भी अवैज्ञानिक हो, सभ्यताओं के सांस्कृतिक-भाषाई इतिहास में इसको सिर्फ़ ‘प्यूरिटन’ दृष्टिकोण कहकर रद्द नहीं किया जा सकता और अब यहाँ इसरार लिपि पर अधिक है। उदाहरणार्थ, बेदिल के फ़ारसी काव्य को ‘ताजिक-फ़ारसी’ में पढ़ना वही नहीं है जो उसे ‘फ़ारसी लिपि’ में पढ़ना है। ताजिक, सिरिलिक (Cyrillic) लिपि में लिखी जाती है और उसमें ‘सहर, मिज़गाँ, सवाल, सूरत, साबित, साफ़’ एक ही ‘स’ से लिखे जाते हैं।

इसी तरह ‘ग्रंथ लिपि’ एक प्राचीन द्रविड़ (पल्लव) लिपि है, जो संस्कृत श्लोकों को लिखने के लिए निर्मित हुई। ‘मूर्धन्य’ (Retroflex) की बहस भी इस क्रम में दिलचस्प है कि वह किन भारतीय भाषाओं में बचे रह गए और किन भाषाओं में उनका लोप हो गया और उनका बचना तथा विलोपित हो जाना क्या इंगित करता है?

इन सभी सवालों का पीछा भले ही अपने सीमित लक्ष्य ‘भाषा के साफ़ बर्ताव’ में निहित हो, वह कुछ रोचक समस्याएँ सतह पर ला सकता है। जैसे ‘ण’ सिंधी भाषा की अरबी-फ़ारसी लिपि में लिखा जा सकता है लेकिन उसी अरबी-फ़ारसी लिपि की ‘शाहमुखी’ में नहीं लिखा जा सकता। यही ‘ण’, ‘गुरुमुखी’ और ‘देवनागरी’ दोनों लिपि में लिखा जा सकता है। मराठी के च, ज, और झ, हिंदी के तीनों वर्णों से अलग उच्चारित होते हैं। मराठी और हिंदी में ‘मदन’ में प्रत्येक वर्ण पर आघात (स्ट्रेस) का ढंग अलग होगा जिसे Schwa-deletion कहते हैं। एक ही लिपि भिन्न भाषाओं के साथ भिन्न व्यवहार प्रस्तुत करती है।

भाषा की सीमा

The limits of my language are the limits of my world
Ludwig Wittgenstein

सब कुछ सूक्ति में घटा देने वाली सिफ़त के इस समय में ऑस्ट्रियन दार्शनिक विटगेंस्टाइन के इस Dictum की वही नियति हुई जो देकार्त के I think therefore I am की। बहुतों ने देकार्त से ‘असहमति’ ज़ाहिर की कि ‘वह हैं इसीलिए सोचते हैं।’ कई भाषाएँ सीखने वाले उत्साहित विद्यार्थियों ने विटगेंस्टाइन से सहमति जताकर और भाषाएँ सीखीं क्योंकि उनकी दुनिया सीमित थी।

इन सबसे बहुत अलग विटगेंस्टाइन का यहाँ भाषा से आशय बोलचाल की ज़बान नहीं है। वह Rationalism और Empiricism के हवाले से ‘Language’ का एक बहुत संकुचित अर्थ में इस्तेमाल कर रहे हैं।

भाषा की सीमा हमारी दुनिया की सीमा नहीं है। यह भ्रामक धारणा है जिसे Linguistic determinism कहा जाता है और इससे संबद्ध एक और पद चलता है जिसे Sapir-whorf hypothesis कहते हैं जिसका कहना था कि भाषा हमारे अनुभवों को प्रभावित करती है यानि किसी समाज की भाषा उस समाज के सदस्यों के दृष्टिकोण और मानसिकता को प्रभावित करती है यहाँ तक कि सोचने-समझने का ढाँचा और विश्वदृष्टि भी उससे प्रभावित होती है।

यह बात खींच कर यहाँ तक भी लाई जा सकती है कि कैसे एक भाषा दूसरी से ध्वनि, संरचना, बोधगम्यता में श्रेष्ठतर है क्यूँकि उसमें फलां-फलां बातें कही जा सकती हैं या कही गयी हैं। कनैडियन भाषावैज्ञानिक और कॉग्निटिव मनोशास्त्री स्टीवन पिंकर ने कहा कि मस्तिष्क संरचनाओं और प्रतीकों के माध्यम से गणनाएँ और जटिल समीकरण प्रस्तुत कर सकता है जिसके लिए मानव भाषा अनिवार्य नहीं है। इस तरह भाषा को जानना और न जानना बोध क्षमता निर्धारित नहीं करता।

और अंत में

मुझसे यह सवाल अक्सर पूछा जाता है कि मैं इतनी भाषाएँ क्यों सीख रहा हूँ। जवाब हमेशा यही है; अपनी ही भाषा को जानने के लिए। एक वर्ग है जो उर्दू शाइरी पसंद करता है लेकिन उर्दू लिपि को अलग नज़र से देखता है। वह खीझ में कहता भी है कि ‘अपनी भाषा’ क्यों नहीं सीखते? मैं स्वयं बातचीत के दौरान लोगों के कुछ अति-अरबीकृत उच्चारणों पर चिढ़ता हूँ जब कोई मुहब्बत को हलक से निकले अरबी ‘ह’ के साथ ‘महैब्बत’ कहता है या ‘पुष्प’ के बहाने ‘स, श और ष’ की बहस शुरू कर देता है।

तो कभी कोई हिंदी या संस्कृत या मराठी या पंजाबी को ‘वैज्ञानिक’ भाषा भी कहता है लेकिन स्पष्ट नहीं करता कि किसी भाषा का वैज्ञानिक होना कैसे संभव है या किसी भी भाषा की यह कैसी विचित्र विशिष्टता और कसौटी है?

मैं उनके बीच नया शिगूफ़ा छेड़ता हूँ कि एक अजनबी जगह पर किसी से घर के बारे में बात करोगे तो क्या भाषा ही घर न होगी?

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