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एक कमरे का सपना

एक कमरे का सपना देखते हुए हमें कितना कुछ छोड़ना पड़ता है!

मेरी दादी अक्सर उदास मन से ये बातें कहा करती थीं। मैं तब छोटी थी। बच्चों के मन में कमरे की अवधारणा इतनी स्पष्ट नहीं होती। लेकिन फिर भी हर लड़की जानती है कि घर सुंदर होता है, सुरक्षित होता है। इस आशय में ही उनके मन में एक स्वप्नमय कमरे का ख़याल डाल दिया जाता है। उस स्वप्नमय कमरे की खोज, वे किशोरावस्था में क़दम रखते ही शुरू कर देती हैं। किशोरावस्था से यौवन, यौवन से प्रौढ़ता और अंत में बुढ़ापे तक पहुँचने पर भी उस कमरे का सपना कभी पूरा नहीं होता।

लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं कि सपने देखना बंद कर दिया जाए!

जब हम मेस में रहते थे—चार लोग एक कमरे में! तब हमें एक-एक तख़त दिया गया था। कमरे के चार कोनों में चार तख़त। कमरा एक हॉल जैसा था। क़रीब पंद्रह बाई अठारह फ़ीट का। कमरे के साथ एक वॉशरूम। तख़त के नीचे हमारा घर से लाया हुआ एक बक्सा। उस बक्से में हम अपनी कुछ क़ीमती चीज़ें बहुत गुप्त रूप से छिपाकर रखते थे। उस तख़त को ही हम अपना कमरा मानने लगे थे। इस विशाल दुनिया में तीन फ़ीट बाई पाँच फ़ीट का एक तख़त तब हमारा कमरा था।

लेकिन... क्या वह हमारा था?

जब हम मेस की बदबू, उमस भरी गर्मी और बेस्वाद खाने को झेलते हुए भविष्य में एक नौकरी का सपना देखते थे—तब भी नौकरी के सपने के साथ एक सुंदर कमरे का सपना भी हमें सताता रहता था। हम सोचते थे कि नौकरी मिलने के बाद अपना एक घर बनाएँगे, जैसा लड़के बनाते हैं! और हम बड़े ध्यान से पढ़ाई करते थे।

हमारे बीच सुदीप्ता नाम की एक सुंदर और मेधावी सहपाठी थी। एक दिन एक सहेली ने हमें बताया कि हम चारों में सिर्फ़ सुदीप्ता ही इतनी भाग्यशाली है, जिसके माता-पिता ने उसे एक अलग कमरा दिया है। उस दिन से हम सुदीप्ता को बहुत बड़ा कुछ मानने लगे थे! हम उस दिन बहुत आश्चर्यचकित हो गए थे, यह सोचकर कि चौदह साल की एक लड़की का अपना अलग कमरा है!

मेरा मन जब बहुत उदास होता था, बहन के साथ बिस्तर की साइड चुनने को लेकर झगड़ा (मैं हमेशा बिस्तर का वह हिस्सा चाहती थी जो दीवार से सटा हो, लेकिन बहन को भी वही जगह पसंद थी) या जब भाई मेरी क़लम चुरा लेता था या किशोरावस्था में मिले एक-दो अनमोल प्रेम-पत्रों को छिपाने के लिए... मैं बहुत चाहती थी कि मेरा एक अपना कमरा हो! इन स्थितियों में मेरी माँ हमेशा हमारे झगड़े सुलझाने आतीं और सिर्फ़ मुझे डाँटकर कहतीं, ‘‘समझौता करना सीखो! स्वार्थी मत बनो! लड़कियों की अपने कमरे की चाहत पूरी नहीं होती! इतनी चाहत अच्छी नहीं है!’’

मैं सिसक-सिसक कर रोती थी और सपना देखती थी कि एक दिन मेरा अपना कमरा होगा! ज़रूर होगा! सफ़ेद चमकती बिछावन, एक छोटा-सा स्टडी टेबल, खिड़की से धूप आकर फ़र्श पर पड़ रही है, धूप की अल्पना में उलटे लेटकर मैं रवींद्रनाथ को पढ़ रही हूँ, एक काँच के कटोरे में रखे बेला के फूल महक रहे हैं... और... और...  

‘‘लड़कियों का अपना कोई कमरा नहीं होता; इसलिए वे सारी ज़िंदगी दूसरों के कमरे को ही सजाती हैं और उसे ही आश्रय समझ बैठती हैं!’’—मेरी दादी कहती थीं। उनकी आँखों में उन दिनों उदास हवा खेलती थी। उनके सफ़ेद चमकते बालों की नोक पर चाँद की बुढ़िया धागा बुन रही थी। उनकी तनी हुई आँखों में राजकुमारी की तेजस्विता थी, लेकिन मुरझाई हुई! उनके गालों के पास की सिकुड़ी त्वचा में कितनी सारी घटनाओं का इतिहास था! मेरा रोना देखकर वह कहती थीं, ‘‘तुम्हें कभी कुछ अलग नहीं मिलेगा! न कमरा! न दरवाज़ा! बस एक झूठे सपने के अंदर...’’ 

वह अपनी बात पूरी किए बिना चुप हो जाती थीं।  

कृष्णा दी, जिन्हें मैं एक बहुत उत्कृष्ट व्यक्तित्व वाली स्त्री मानती हूँ, वह भी एक दिन कह रही थीं, ‘‘एक कमरे में मेरे पति सारा वक़्त रहते हैं और दूसरे में मेरा बेटा! मैं अगर किसी भी कमरे में जाऊँ तो उन दोनों की शांति भंग हो जाती है! इसलिए मैं सारा दिन किचन और लिविंग रूम में बिता देती हूँ। रात में कभी बेटे के पास, तो कभी सोफ़े पर लेटे-लेटे सो जाती हूँ! मेरे पति इतने ख़र्राटे लेते हैं!’’

मैं जब प्यार में पड़ी, तब उसने मुझसे कहा था कि हमारा एक छोटा-सा घर होगा जिसके पास से एक स्वच्छ नदी बहेगी और दूर नीला हिमालय नज़र आएगा। क्षितिज तक फैला हुआ हरा-भरा मैदान होगा! दो कमरों का छोटा-सा घर। एक पढ़ने-लिखने का कमरा और लाइब्रेरी। दो स्टडी टेबल... उसके दिखाए इस स्वप्न में मैंने उसे बहुत-बहुत प्यार किया था। मैंने मन में उसके साथ इस घर में रहने लगी थी... यही तो है प्यार का घर! हमारा घर! मेरा घर! 

लेकिन...

लेकिन दुर्भाग्यवश; जैसे-जैसे प्यार पुराना होता गया, हमारे सपने उतने ही उबाऊ लगने लगे! नदी सूख गई! पहाड़ों में रहने की हज़ारों परेशानियाँ नज़र आने लगीं! और दो कमरों का छोटा-सा घर वास्तव में सपना हो गया। सपना जो सिर्फ़ ‘ग्रहण’ नाम के किसी छोटे-से गाँव में रहकर पूरा हो सकता था। वहाँ जाया तो जा सकता था, लेकिन घर नहीं बसाया जा सकता था। आख़िर में हमें समझ आया कि इस तीसरी दुनिया में अलग कमरे की ज़रूरत ख़त्म हो चुकी है! क्योंकि सब कुछ अस्तित्वहीन है!

‘‘लड़कियों के लिए अलग कमरा!’’—मैं फिर से अपनी दादी की उस कहानी पर लौटती हूँ। उनकी शादी नौ साल की उम्र में हुई थी। शादी से पहले उन्हें बताया गया था कि ससुराल यानी पति का घर ही उनका असली घर है। मायके में वह बस दो दिन की मेहमान हैं! इसलिए उनके सारे सपने उनके पति के घर जाकर ही पूरे होंगे! वह जब ऋतुस्राव के बाद, चौदह साल की उम्र में इस विश्वास के साथ इस घर में आईं, उनकी आँखों में तब सपनों का ख़ज़ाना था—एक कमरे का—एक शांत और सुंदर अपना कमरा!

कमरा था भी—गुलाब और रजनीगंधा के फूलों से सजा हुआ एक कमरा! ज़रूरत से ज़्यादा सुंदर! 

उन्होंने मायके से लाए अपने बक्से को कमरे के एक कोने में रखा। दूसरी तरफ़ एक विशाल पलंग। मायके छूटने का दुख भूलकर, जब वह ख़ुद को एक कमरे की मालकिन समझ रही थीं, तभी दरवाज़े पर खटखट हुई और उनकी सास वहाँ खड़ी थीं। कुछ ही देर बाद उनके छोटे-से मन का सपना टूट गया! क्योंकि तब तक वह जान चुकी थीं कि यह उनका घर नहीं, उनका और उनके पति का साझा घर है।  

फिर भी वह ख़ुश थीं! नया-नया प्यार था और वह इस घर की बहू थीं। सारी संपत्ति की भविष्य–मालकिन! एक दिन! लेकिन कब?

संपत्ति को भूल जाओ! बस एक कमरा! जहाँ आलमारी में उनकी साड़ियाँ टँगी हैं! आईने के सामने उनका स्नो-पाउडर रखा है! कमरे के अंदर जो मन चाहे उसे कर सकने भर आज़ादी! ऐसा एक कमरा!

लेकिन उन्हें सुबह चार बजे, जब बाक़ी लोग सो रहे होते, उस कमरे से बाहर निकलना पड़ता था... और सबके सोने के बाद ही उन्हें उस कमरे में प्रवेश की इजाज़त मिलती थी, क्योंकि वह तब नई बहू थीं! नई बहू घर का काम छोड़कर कमरे में बैठे रहेगी, तो लोग क्या कहेंगे?  

दुपहर में खाना-पीना ख़त्म करने के बाद वह रसोई के बरामदे में थोड़ा लेटती थीं और वह भी सबकी नज़रों से छिपकर। फिर भी उन्होंने सपने देखना नहीं छोड़ा! उन्होंने सोचा—जब वह पुरानी बहू बनेगी, तब निश्चित रूप से इस कमरे पर उनका अधिकार होगा! 

लेकिन वह भी एक खोखला सपना था!  

पहले बेटे-बेटियों ने, फिर पोते-पोतियों ने उस कमरे पर क़ब्ज़ा करना शुरू कर दिया! और अब उनके पास अपनी चीज़ के नाम पर सिर्फ़ मायके से लाया हुआ वही पुराना बक्सा है। उसे भी कभी-कभी पोते-पोती छीन लेते हैं!  

दरअस्ल, हर लड़की एक तरह से ख़ानाबदोश है! वह सारी ज़िंदगी अपने कमरे का सपना देखती है, लेकिन वह कमरा कभी पूरी तरह उसका नहीं होता। इस युग में भी नहीं!  

वह फिर भी सपने देखती है! जीती है! झूठ-मूठ का प्यार करते-करते एक दिन वह सपना ही खो देती है!  

लेकिन क्या सपना वाक़ई खो जाता है?

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