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प्रेम मेरे पाठ्यक्रम का सबसे कठिन अध्याय है

लड़कियों को अक्सर उनका आधा सच ही पता होता है। उम्र जब चौदह की सीढ़ी पर चढ़ती है, तब वह ख़ुद से पूछती है—करियर चुने या प्रेम?

प्रेम... जो अभी तक बचपने से लिपटा हुआ है, जो देह की चाहत में उलझा एक भ्रमित एहसास है।

वह लड़की कक्षा से भागती है, किसी एकांत कोने में जाकर बैठने की कोशिश करती है—एक ऐसा कोना जहाँ साथ बैठे उस लड़के की देह से उसकी देह सटे, जहाँ उसे परमानंद मिले और दुनिया की सारी चिंताएँ ख़त्म हो जाएँ। इस मजबूरी की पढ़ाई से कुछ पलों का वह एकांत उसे किताबों से दूर ले जाए।

धीरे-धीरे वह कक्षा से कटने लगती है। उसके चेहरे पर डर का साया रहने लगता है, जैसे किसी चोरी की भनक लगने वाली हो।

फिर एक दिन... एक साथी (प्रेमी) के कहने पर उसने सिगरेट आज़माई।

उसी एकांत कोने में—जहाँ कभी वह प्रेम की ओर भागी थी—अब धुएँ की एक लकीर तैर रही थी।

संयोग से संस्कृत के शिक्षक की नज़र पड़ गई। गंध पूरे कमरे में भर चुकी थी। अब बात प्रिंसिपल तक जा पहुँची। प्रिंसिपल परेशान, अपने काम से घबराए, उस कोने तक भागते हुए पहुँचे।

वह लड़की अब भी वहीं थी—सिगरेट हाथ में लिए, चेहरे पर ज़रा भी डर नहीं। उसकी आँखों में मदहोशी साफ़-साफ़ देखी जा सकती थी। वह बहुत सधे ढंग से सिगरेट के कश ले रही थी। यह सब उसके द्वारा बनाई गई रील में हम साफ़-साफ़ देख पा रहे थे।

[अनायास मुझे याद आता है कि एक बार सिगरेट को उँगली में फँसा कर कश लेने की कोशिश की थी, सिगरेट का एक कश भरते ही खाँस-खाँसकर मेरा बुरा हाल हुआ था।]

चौदह की उम्र में ऐसी बेबाकी विरले ही देखने को मिलती है।

...लेकिन यह प्रेम, यह देह का आकर्षण—उसे कहाँ ले जाकर छोड़ेगा?

वह अपने पिता के नाम से डरती ज़रूर है, पर उसकी आँखें झुकी हुई नहीं थीं। उसने कहा कि ऐसा पहली बार हुआ। उसने बीस रुपए में यह सिगरेट एक पान की दुकान से ख़रीदी।

एक शिक्षक के रूप में मैं सोचती रही—क्या उसे उसके प्रेम और बेबाकी के लिए शाबाशी दूँ? या उसके गाल पर एक तमाचा जड़ दूँ?

इन्हीं दुविधाओं में कार्रवाई आगे बढ़ी। जब मुझसे राय माँगी गई, मैं सिर्फ़ इतना कह सकी कि यह मेरे पाठ्यक्रम का सबसे कठिन अध्याय है।

क्या मैं उसे प्रेम से रोक दूँ? या उसे जीवन का अगला रास्ता दिखाऊँ? या उसे जीवन की सचाई से रूबरू करवाऊँ?

उस लड़की की माँ किसी प्राइवेट स्कूल में बच्चों के लिए खाना पकाती है। उसके पिता बहुत पहले मृत्यु को प्राप्त हो चुके हैं। वह घर की सबसे बड़ी बेटी है। एक छोटी बहन और एक छोटा भाई है। अगर उसकी माँ को यह बताया गया तो उनकी क्या हालत होगी—यह सोचकर मैं लगातार चुप रही। माँ को पता चलते ही शायद उसकी पढ़ाई रुकवा दी जाएगी या उसे ख़ूब पीटा जाएगा या किसी भी बेकार-बेरोज़गार लड़के से उसकी शादी कर दी जाएगी... ये सब सोचते हुए मैंने उनके परिवार को यह जानकारी न देने का निर्णय किया और समझाने की कोशिश करती रही।

अगर मैंने उसे रोका तो क्या वह सच में किताबों की ओर लौटेगी? या मुझसे दूर जाकर मुझे गालियाँ देगी? क्या मुझे उसके माता-पिता से बात करनी चाहिए? या फिर वह और भी बंद दरवाज़ों में घिर जाएगी?

उसे सही रास्ते पर लाने के लिए रस्टिकेट करने का डर दिखाया गया। उसने रस्टिकेट न करने की गुहार लगाई, वादा किया कि अब ऐसा नहीं होगा।

अब वह रोज़ कक्षा में आती है। वह चुपचाप सबसे पीछे बैठती है—सिर झुकाए। उसके चेहरे की चमक गुम है। उसकी आँखों का चुलबुलापन कहीं खो गया है। अन्य शिक्षक कहते हैं—“वह सुधर गई है।” पर मैं जानती हूँ—वह भीतर ही भीतर घुट-घट रही है।

ये उम्र और ये नादानियाँ... इन्हें समय से पहले बूढ़ा बना रही हैं। हँसती-खेलती लड़कियाँ ही जीवन की असली सुंदरता हैं। पर मौन और उदासी में डूबी बच्चियाँ देख, मेरा मन भी उदास हो उठता है।

क्या हम कुछ कर सकते हैं, जिससे वे फिर से बचपन में लौट सकें? वे गिलहरी-सी कूदती-फाँदती हमारी कक्षाओं में आएँ? वे मोबाइल से कुछ दूरी बना लें। हमारे कहे पर ग़ुस्सा न हों, स्नेह से भरा प्रत्युत्तर दें?

कभी-कभी ये बच्चियाँ ही बहुत अधिक रोक-टोक से तंग आकर किसी मनचले के साथ भाग जाती हैं। हर साल पाँच-दस ऐसे मामले सामने आते हैं।

नौवीं कक्षा का यह एक प्रेम-प्रसंग मेरे लिए यक्ष प्रश्न बन गया है।

मैं कक्षा में बच्चों को पढ़ाती हूँ कि विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण एक सामान्य मानवीय अनुभव है। फिर कैसे कहूँ कि प्रेम मत करो? प्रेम के मायने समझाने की उम्र अभी नहीं आई। प्रेम कैसे हर उम्र में अलग रंग लेता है—यह सुनने की समझ भी अभी नहीं है। वे बस इतना जानते हैं कि यह सब अच्छा लग रहा है। पर इसी अच्छा लगने में, वे अपनी ज़िंदगी की सबसे बड़ी भूल कर बैठते हैं।

एक दिन एक छात्रा मेरे घर आई—चेहरा सूजा हुआ, आँखें लगातार रोने से लाल। मैंने पढ़ने में तेज़ बच्चों को यह कहा था—“किसी भी परेशानी में मेरे पास आ सकते हो।”
बस! वह लड़की आ गई।

शुरू में लगा, पढ़ाई रुकने के कारण उसकी माँ ने पीटा है। पर धीरे-धीरे अस्ल वजह सामने आई—एक प्रेम-प्रसंग। वह लड़की परीक्षा में अच्छे अंक लाती रही है, पर अब एक लड़के में उलझी हुई है।

माता-पिता की शर्त—लड़के से बात बंद करो तभी पढ़ाई आगे होगी।

लड़की की इच्छा—प्रेम भी और पढ़ाई भी।

मैं असमंजस में थी—न प्रेम को पूरी तरह ग़लत ठहरा पा रही थी, न पढ़ाई रुकवाने को तैयार थी। मैंने बस इतना कहा—“तुम्हारा जीवन तुम्हारा है, तुम सोचो कि आगे क्या करना चाहती हो। तुम स्वयं को कहाँ देखना चाहती हो? आने वाले पाँच से दस साल के अंदर तुमने अगर सही तरीक़े से मेहनत की तो शिखर तक पहुँच सकती हो, वरना औरतों का वही जीवन है, यानी खाना बनाना और बच्चे पालना... इसके अलावा तुम्हारे पल्ले कुछ नहीं पड़ेगा। डिसीजन तुम्हें लेना है, अमल तुम्हें करना है... इसलिए मैं यह तुम पर छोड़ती हूँ... जाओ और आत्म-मंथन करो। कोई तुम्हें खींच नहीं सकता, कोई धकेल नहीं सकता... जब तक तुम न चाहो।”

मैंने उसकी माँ से कहा—“बेटी को पीटना समाधान नहीं है, उसे सोचने और लौटने का अवसर दें।”

एक दिन वह लौट आएगी, इसका मुझे विश्वास है।

समय बीतता गया।

एक दिन वह लड़की मुझे मैसेज करती है—“मैडम, मैंने फिजिक्सवाला की ऑनलाइन क्लास जॉइन कर ली है।”

मैंने मुस्कराकर शुभकामनाएँ दीं—“आगे बढ़ो, रास्ता तुम्हारा है।”

कुछ महीनों बाद वह स्कूल में मिली—चेहरे पर आत्मविश्वास था और आँखों में चमक लौट आई थी। उसने कहा—“मैंने डिसीजन ले लिया है। मैं पहले पढ़ाई करूँगी। करियर बन जाएगा तो प्रेम बाद में भी किया जा सकता है। आज अगर समय खो दिया, तो ज़िंदगी भर बर्तन धोना और खाना ही बनाना होगा। मैं पढ़ना चाहती हूँ और एक दिन आपकी तरह बनकर आपके पास लौटना चाहती हूँ।”

उस दिन मुझे लगा कि मैंने अपने पाठ्यक्रम का सबसे कठिन पाठ भी पढ़ा दिया—प्रेम और निर्णय का पाठ।


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