बीएड वाली लड़कियाँ
अतुल तिवारी
31 मई 2025

ट्रेन की खिड़कियों से आ रही चीनी मिल की बदबू हमें रोमांचित कर रही थी। आधुनिक दुनिया की आधुनिक वनस्पतियों की कृत्रिम सुगंध से हम ऊब चुके थे। हमारी प्रतिभा स्पष्ट नहीं थी—ग़लतफ़हमियों और कामचलाऊ समझदारियों से गतिशील रहने की सुलभता थी हमारे पास। हमारा इलाक़ा! जो कभी बहुत परिचित और आरामदायक था, अचानक लँगड़ी मारने लगा था। यौवन की जटिलताओं से अनभिज्ञ और सांत्वनाओं पर थूकने में अभ्यस्त हम लोग, सबसे पहले एक अनौपचारिक समूह हुए। सामूहिक होकर सामूहिकता का एक संश्लिष्ट स्वप्न देखा... कि कोई तो ऐसा काम होगा जिसमें थोड़ा-बहुत ख़तरा तो हो, लेकिन मरने का डर न हो।
दंत-कथाओं वाले रंगून की जगह बैंकॉक ने ले ली थी। कलकत्ता हमारे बाप-दादाओं का नॉस्टेल्जिया और माँ के लिए लोकगीत हो चुका था। हमारे चिकित्सक―जो मूलतः लैंगिक-विश्लेषण के लिए समर्पित थे―थानेदार बनना चाहते थे। ...और लड़कियाँ! उन्होंने बिछौने से गुपचुप संवाद के बाद तय कर लिया था कि ब्याह को थोड़ा और टाला जा सके, इसलिए बीएड कर लेने में ही भलाई है। बीएड—बैचलर ऑफ़ एजुकेशन। उत्तर भारत की मध्यवर्गीय लड़कियों के लिए ऐसा साधारण और असाधारण पाठ्यक्रम जो उनकी नियति की आख़िरी मंज़िल थी। जीवन की राह बंद-सी लगती तो बीएड ही एकमात्र वह खिड़की थी, जिससे वह दुनिया की ओर झाँक सकती थीं। झाँक सकती हैं। या शायद ख़ुद से बचकर एक सामाजिक सम्मान की ओट में जी सकती थीं। मैं समझ नहीं पाता कि मेरी चार मौसेरी दीदियों ने बीएड ही क्यों किया! किया या करवाया गया! "अब बहुत दिन हो गए, शादी कर लो न।" जैसे प्रेमियों के वाक्य पर दीदियाँ समझती थीं कि अब वक़्त कम है और सहमति ज़्यादा महँगी।
हमें बीएड नहीं करना था, कुछ टालने के लिए। बस शहर छोड़ देना या लौटकर थोड़ा कम शर्मिंदा चेहरा बना लेना था। हमारी असफलताएँ हमारे चरित्र से नहीं जुड़ती थीं। हम अपने कोर्स बदल सकते थे। प्रेम बदल सकते थे। धंधा बदल सकते थे। हमारे लिए सहने की कोई ट्रेनिंग अनिवार्य नहीं थी...
बीएड वह जगह है, जहाँ लड़कियाँ-दीदियाँ छुप जाती हैं। साल-भर। दो साल। तीन साल—ब्याह से, गहनों से और उस अवांछित सुहागरात से बचने के लिए जितनी देर की मोहलत मिल सके उतने साल! बीएड वह परदा था, जिसे ओढ़कर वे अपने प्रेमी से भी कह सकती थीं—“अभी पढ़ाई चल रही है।” ...और माँ से भी कि “सरकारी नौकरी मिल जाएगी।”
दरअस्ल, बीएड एक सामाजिक स्वीकारी गई टाल-मटोल है। हालाँकि वे जानती हैं कि यह न तो उनकी मुक्ति है न ही आत्मनिर्भरता का कोई आख़िरी पायदान। या शायद है भी। शायद यह एक छोटा-सा तट है, जहाँ बैठकर वे सोच सकती हैं कि किनारे से लगे बिना भी जिया जा सकता है। दीदियों को देखकर मैं समझना चाहता था कि बीएड करना जीवन में ब्रेक लेना है या ब्रेक से बचना!
इसके इतर कुछ लड़कियाँ ऐसी भी थीं, जो प्रेम से भागकर बीएड में आईं। कुछ माता-पिता की नज़रों से बचकर इस तरफ़ आईं। कुछ सिर्फ़ इसलिए कि उन्हें यह झूठ बोलने का अभ्यास था कि मुझे बच्चों को पढ़ाना अच्छा लगता है। ...और उस झूठ को निभाती-पढ़ाती भी थीं। शायद यही इस कहानी का सबसे त्रासद हिस्सा है। उनके हाथ में डस्टर होता है, पर वे अपने भाग्य की धूल नहीं साफ़ कर पाती थीं। ‘मैम’ कहलाते हुए घर में वे अब भी ब्याह-योग्य, वधू-रूपा और सीधी-सादी बिटिया थीं। अभी भी समझ नहीं पाता कि बीएड उनके लिए करियर है या क्रांति! ठीक-ठीक समझा भी कैसे जा सकता है!
क्या वे बीएड से किसी अंतराल और जीवनकाल को स्थगित कर रही होती हैं? क्या इन लड़कियों और मेरी चारों दीदियों ने भी कभी डॉक्टर और प्रशासनिक अफ़सर बनना नहीं चाहा? ग्यारहवीं में बायोलॉजी पढ़ने वाली दीदियों की आँखों में रिसर्च लैब की चमक कैसे बुझ गई?
वे लड़कियाँ जो घर की बंदिशों से टूटीं; प्रतियोगी परीक्षाओं में थक गईं, अंततः बीएड में दाख़िला क्यों ले लेती हैं? क्या बीएड उनका निर्वासन है? या आत्म-समर्पण! शायद यह एक छोटा-सा प्रतिरोध है। यह उन्हें 'मिस जी' बनने का दर्जा देता है—शादी के बाद भी उन्हें उनकी पहचान को जीवित रखने वाला नामकरण। बीएड एक ऐसी डिग्री है, जिसे शादी-योग्य बनाने में समाज ने स्वीकृति दी है। पिता इस डिग्री को लड़की के साथ दूल्हे के घर भेजते हैं। विडंबना यह है कि इस बीएड की भी अपनी राजनीति है। लड़कियाँ कभी-कभी ख़ुद नहीं जानतीं कि उन्होंने इसे क्यों किया। एक जड़ता या एक थकान है बीएड। सबसे सुरक्षित। शैथिल्यग्रस्त स्वप्नों का उबयुक्त अनुशासन। बीएड हमारे समय की सर्वाधिक सामाजिक, स्त्री-सुलभ और स्वीकृत डिग्री है! बीएड-लड़कियाँ उन विमर्शों में नहीं पाई जातीं जहाँ वर्क-लाइफ़ बैलेंस, फ़ेमिनिस्ट रीडिंग्स ऑफ़ टेक्स्ट जैसे शब्द चलते हैं। उनका स्त्रीवाद इतना लोकल है कि वे बतियाते हुए धोती प्रेस करतीं और माँ से कुछ असहमत वाक्य कहतीं और माँ की गूँगी सहमति में सिर हिलाकर आगे बढ़ जाती हैं।
चट्टान और समुद्र हमारे समूह की पहुँच से बहुत दूर नहीं थे। डेढ़ मंज़िला मकान ऊँचाई बहुत मामूली लगती थी। हमें नहीं पता था कि परिणामों का सामना करने के लिए हम कितने मज़बूत हैं। लेकिन हमारे पास बहुत कुछ था। हम कभी मोबाइल में गिरी हुई सूक्तियों तो कभी सुर्ख़ियों के सहारे यात्रा कर रहे थे। कभी उन पंक्तियों से प्रेरित हो रहे थे जो फ़ैक्चुअली ग़लत थी। हमारे ऊपर बीएड करने का दबाव नहीं था। हमें बताया गया कि टीचर बनना नाकाफ़ी है। हमें फ़ौज, बैंक या विदेश जाना चाहिए।
लड़कियों के लिए बीएड वह इको है जो प्रेम, परिवार और पेशे के बीच भटकती स्त्री की थकी साँसों में गूँजता है। यह कोई मंज़िल नहीं—ऐसी प्रतीक्षा है जो बहुत सुरीली नहीं, लेकिन बहुत ज़रूरी है।
दरअस्ल, बीएड स्त्रियों की एक उदास किंतु ईमानदार जगह है; जहाँ वे आत्मनिर्भर नहीं, लेकिन अनुपयोगी भी नहीं कहलाना चाहतीं।
बीएड, सपना टूटने के बाद सबसे कम दुखद विकल्प है। शायद बीएड की क्लासें उन्हें बाप की डाँट और प्रेमी की चुप्पी से ज़्यादा सुरक्षित लगती थीं। बीएड ने उन्हें दुनिया के नक़्शे में एक छोटा-सा, लेकिन स्थायी ठिकाना तो दिया होगा ही।
हमारी कल्पनाओं की नायिका या तो साहित्य की चरित्रशील स्त्री थी या फिर सिनेमा की संघर्षशील मुग्धा। बीएड वाली लड़कियाँ इन दोनों छवियों के बीच पिसती हुई एक तीसरी तरह की नायिका हैं—जो न तो पूरी तरह विद्रोही हैं, न पूरी तरह समर्पित। वे न सती हैं, न सिनेमा की ग्लैमरस स्ट्रॉन्ग फ़ीमेल लीड। वे संस्कृति और स्वतंत्रता के बीच की क्रॉसिंग पर खड़ी हैं। आलोचना की पात्र और आदर्श की मूर्ति के बीच बची हुई जगह में। वे तुरपाई करती माँ की हाँ में हाँ मिलाकर आगे बढ़ रही हैं। उन्होंने बीएड क्यों चुना? यह सवाल आप कभी उनसे पूछिएगा नहीं। क्योंकि वे यही कहेंगी : "बस ऐसे ही, कोई ऑप्शन नहीं था..."
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इस कहने में प्रेमिका को भी होना था, है...
मेरी माँ बारहवीं पास है। ...और तुमने बीएड कर लिया है। तुम्हारी तरह माँ की हैंडराइटिंग बहुत सुंदर थी। सुंदर लिखावट धैर्य से ही संभव होती है। इसलिए स्त्रियों की लिखावट कभी ख़राब नहीं हो सकती। माँ के अक्षरों में सुंदर अनुशासन था। अगर उन्होंने भी बीएड किया होता तो शायद वे कुछ अलग तरह की पत्नी बनतीं। शायद सड़क पार करने में इतना डरती नहीं। जवानी में वह बदन सिकोड़कर, नज़रें झुकाकर नहीं चलतीं। फ़िरोज़ी रंग की कुर्ती पहने तुम्हें स्कूटी चलाते हुए देखता हूँ। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के विशाल गलियारों से निकलते हुए देखता हूँ, तो लगता है कि जैसे तुम माँ की खोई हुई कोई संभावना हो। अगर माँ ने भी बीएड किया होता तो वह भी घाट पर अकेले जा सकती थीं। किसी किताब के साथ बैठ सकती थीं या किसी मौसम को बाँहों में भरकर अपनी डायरी में उतार सकती थीं। शायद पिता के साथ वाली तस्वीरों में वे सिर्फ़ सुंदर नहीं, आत्मविश्वासी भी दिख सकती थीं। तुमसे बात करते हुए मुझे लगता है कि समय में थोड़ा-सा पीछे जाकर माँ से कहूँ कि तुम बीएड कर लो! "तुम्हारे हाथों में डस्टर अच्छा लगेगा और बच्चों की क़तार में बैठी दुनिया तुम्हें ‘मैडम’ कहेगी। ...और तुम्हारी आँखें थोड़ी और चमक उठेंगी।"
बंधनों को या घोंट रहे किसी रिश्ते को तुम जिस बेफ़िक्री से अपना जीवन टाल लेती हो—माँ कभी टाल नहीं सकीं। माँ को सपने देखना सिखाया ही नहीं गया था। उस उम्र में जब लड़कियाँ पहली बार सैंडल की एड़ी बदलती हैं, तब वह भी अपनी चाल में थोड़ा ठाठ जोड़ पातीं। वे कलकत्ता को कोसने वाले गीत गाने के बजाय, कलकत्ता जा सकती थीं। ऐसा होना नहीं चाहिए, लेकिन तुम मुझे कुछ प्रायश्चित और पुनर्वास-सी भी लगती हो। तुम मेरी प्रेमिका हो या माँ की अस्मिता की पुनर्प्राप्ति?
माँ! तुम किसी लाइब्रेरी की स्थायी सदस्य बन—शरतचंद्र के उपन्यास पढ़ते हुए मेरे पिता, अपने पति और मेरे नाना के विचारों को माफ़ कर सकती थीं। सड़क पर सीटी बजाती हुई अपनी प्रेमिका की तरह, मैं तुम्हें मुख्य भूमिका में देखना चाहता हूँ माँ—कोरस में नहीं!
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