'संतोष' और बॉलीवुड का दलित सिनेमा
नाज़िश अंसारी
04 जून 2025

सिनेमा एक दर्पण है, जिसके माध्यम से हम अक्सर ख़ुद को देखते हैं।
— एलेजांद्रो गोंज़ालेज़ इनारितु
साहित्य समाज का दर्पण है—बचपन में इस विषय पर निबंध लिखते हुए पता नहीं था कि एक दिन सिनेमा भी समाज का दर्पण होने लगेगा। जब मैं यह कह रही हूँ, तब हिंदी भाषा-भाषी समाज से होने के नाते मेरा संदर्भ—भारत का सबसे बड़ी मुख्यधारा का फ़िल्म उद्योग बॉलीवुड है, जिसमें परदे पर दिखाए जाने वाले ज़्यादातर मुख्य किरदार सवर्ण-वर्ग से आते हैं।
इसमें एक बात और जोड़ते हुए, मेरा दलित दोस्त कहता है—तुम हिंदी फ़िल्मों के नायकों के सिर्फ़ सर-नेम पर ग़ौर करो। मैंने ग़ौर किया। पाया, वह सही था।
फिर सवाल जन्मता है—‘सुजाता’ (बिमल रॉय, 1959) के बाद ‘बैंडिट क्वीन’ (शेखर कपूर, 1994) जैसी बेहद ज़रूरी फिल्मों के बीच आया अंतराल इतना लंबा क्यों है? हालाँकि ‘बवंडर’ (जग मुंद्रा, 2000) और ‘आरक्षण’ (प्रकाश झा, 2011) जैसी कुछ फ़िल्में भी हैं, जो जाति के मुद्दों को संबोधित करती हैं। फिर भी इतनी बड़ी इंडस्ट्री से दलित ऑरिएन्टेड सिनेमा अगर उँगलियों पर गिनने लायक़ भी नहीं बनता है तो व्यावसायिक मजबूरी के अलावा कुछ छिपे तथ्य भी हैं/होंगे, जिससे इनकार करना धूर्तता होगी।
इस लिस्ट में ‘आर्टिकल-15’ (अनुभव सिन्हा, 2019) को रखे बिना बात पूरी नहीं होती। इस फ़िल्म के मुख्य किरदार आईपीएस ऑफ़िसर अयान रंजन का सवर्ण होना, इस बात कि तस्दीक़ है कि बॉलीवुड भी भारतीय समाज की वर्ण-व्यवस्था से उपजी सोच को भुनाता है कि दलितों का उद्धार सवर्णों के ही हाथों होना है। उनमें नायक होने की ख़ूबियाँ नहीं हैं।
इस बीच बहुचर्चित और बहुप्रशंसित ‘जय भीम’ (टीजे ज्ञानवेल, 2021) को हिंदी भाषा का सिनेमा न होने की वजह से जाने देते हैं।
2024 में संध्या सूरी के निर्देशन में एक फ़िल्म बनती है—‘संतोष’, जिसे BAFTA अवॉर्ड, कान फ़िल्म फ़ेस्टिवल, यूरोपियन फ़िल्म अवॉर्ड, नेशनल बोर्ड ऑफ़ रिव्यू के 2024 की शीर्ष पाँच इंटरनेशनल फ़िल्म में सेलेक्शन के साथ, ऑस्कर में बेस्ट इंटरनेशनल फ़ीचर फ़िल्म के तौर पर नामंकन मिलता है, लेकिन लखनऊ में शूट हुई फ़िल्म जिस समाज को केंद्र में रखकर बनाई गई—यानी भारत—वहीं रिलीज नहीं होने दी गई। इसके लिए तर्क दिया गया कि यह फ़िल्म पुलिसिया बर्बरता को एक्सट्रीम में दिखाती है और स्त्री-द्वेषी होने के साथ-साथ इस्लामोफ़ोबिक भी है।
ख़ैर, मैंने यह फ़िल्म कहीं से देख ली!
एक गाँव में दलित लड़की का बलात्कार कर उसे कुएँ में फेंक दिया गया, बलात्कार किसने किया—एक महिला कांस्टेबल द्वारा इस घटना का रहस्योद्घाटन ही फ़िल्म की कहानी है।
‘आर्टिकल-15’ का विषय भी यही था—दलित लड़की का बलात्कार। ‘संतोष’ की ख़ास बात यह है कि यह आपको किसी भी क़िस्म की डिटेलिंग नहीं देती। यह मानती है कि दर्शक के तौर पर आप मेच्योर हैं। आपको पता ही होगा भारत की सामाजिक संरचना में किस जाति का क्या स्थान है? कौन हमेशा से शोषक है, कौन शोषित? पुलिस महकमा कैसे काम करता है? इस महकमे में महिला इंस्पेक्टर को भी मैडम के बजाय सर कहकर संबोधित करना है... यानी यहाँ पुरुषों का वर्चस्व, पितृसत्ता की भागीदारी कितनी और कैसी है?
फ़िल्म में बैकग्राउंड म्यूजिक तक का न होना हर क़िस्म के अतिरेक से इनकार करता है।
इसलिए एक दर्शक के तौर पर आपकी ज़िम्मेदारी बढ़ जाती है—एक-एक सीन को ध्यान से देखने की... यहाँ हर सीन का, हर संवाद का कोई अर्थ है। यहाँ अव्यक्त अभिव्यक्ति सबसे ज़्यादा है और यही इसे वीभत्स भी बनाती है।
ज़बरदस्ती एक लड़के को उठाकर उसको बलात्कारी साबित करते हुए पुलिस जिस क्रुएल्टी से लड़के को पीटती है, वह बहुत रॉ और डिस्टर्बिंग है।
अगर सिर्फ़ इस कारण से भारत में इस फ़िल्म रिलीज रोकी गई है तो यह एक बहुत बचकाना कारण है।
पुलिसिया बर्बरता को और भी कई फ़िल्मों में दिखाया जा चुका है। मसलन—‘गंगाजल’ (प्रकाश झा, 2003)। याद कीजिए, लॉक अप में ‘सब पवित्र कर देंगे...’ कहते हुए, पुलिस द्वारा पकड़े गए ग़ुंडे की आँख स्क्रू ड्राइवर से फोड़ने के बाद उस पर इनवर्टर का तेज़ाब डालना।
संदीप वांगा रेड्डी की 2023 में रिलीज़ ‘एनिमल’ भी ख़ून–खच्चर, हत्या और क्रिमिनल माइंड साइकोपैथ को हीरो बनाकर ग्लैमराइज़ करती है। रिलीज के साथ मिली अपार सफलता के बाद फ़िल्म धड़ल्ले से डेली मैटिनी शो बनाकर टीवी पर आए दिन दिखाई जा रही है।
बाक़ी बचा इस्लामोफ़ोबिया, मीडिया जनित यह पर्टिकुलर शब्द कोई बेकिंग पाउडर है क्या कि ज़रा-सा छिड़को और किसी भी विषय की ख़मीर उठाकर उसे सड़ा-घुला बता दो।
इस्लामोफ़ोबिया के नाम पर मेहनत से बनाई गई—‘कश्मीर फ़ाइल्स’, ‘द केरल स्टोरी’ देखिए। इस्लाम और मुसलमान के नाम से ख़ौफ़ न आने लगे तो कहिए। ‘छावा’ देखिए कि मुग़लों के रूप में मुसलमान से नफ़रत हो जाए।
‘संतोष’ में इस्लाम के नाम पर है ही क्या, एक जुलाह लड़का जो पंद्रह साल की लड़की के बलात्कार के शक की बिना पर उठाया गया और पुलिस कस्टडी में पीट-पीटकर मार डाला गया। यह फ़ोबिया नहीं, छिपाई गई, जलाई गई या फाड़ दी गई पुलिस फ़ाइलों का सच है। फ़िल्म में आरोपी लड़के का नाम सलीम है। आप सुमित कह लीजिए, क्या फ़र्क़ पड़ता है!
हाँ, मिसोजिनी ज़रूर है। और फ़िल्म ही क्यों, पूरा का पूरा भारतीय समाज ही कभी स्त्री को बलत्कृत कर, राह चलते कभी योनि, कभी स्तन पर नीचतम कॉमेंट कर स्त्री को स्त्री होने के लिए रोज़-ब-रोज़, बात-बेबात शर्मसार करता रहता है।
मेरी फ़ेसबुक पोस्ट पर एक सज्जन ने टिप्पणी करते हुए पूछा कि सीनियर ऑफ़िसर गीता शर्मा का कांस्टेबल संतोष सैनी को अपने हित के लिए इस्तेमाल करना नारीवाद की किस श्रेणी में आएगा?
गीता शर्मा द्वारा ‘हम औरतें भी तो कितना सहती हैं’—जैसे एक दो मैनिपुलेटिंग डायलॉग को साइड में रख दें तो फ़िल्म एक सीनियर अधिकारी द्वारा अपने अंडर न्यूली ज्वाइंट जूनियर का सीढ़ी की तरह इस्तेमाल करने को रेखांकित करती है।
इस इस्तेमाल का संबंध स्त्री या पुरुष से न होकर इससे है कि किस पद के पास कितनी शक्ति है और उसका उपयोग किस तरह संभव है।
औरत देखकर हर जगह नारीवाद नहीं घुसाना चाहिए।
बिना मेकअप के बहुत सटल डायलॉग बोलते किरदारों को देखना कई बार विदेशी सिनेमा देखने का भी एहसास कराता है।
वैसे अगर ‘फुले’ (अनंत महादेवन, 2025) सत्रह कट के साथ रिलीज़ हो सकती है, तो ‘संतोष’ भी दो-चार कट के साथ दिखाई जा सकती थी/है।
संतोष सैनी बनी शाहाना गोस्वामी की मेंढक जैसी आँख से व्यक्त होते इमोशंस के लिए तो यह फ़िल्म रिलीज होनी ही चाहिए थी। लेकिन हुई नहीं और शायद होगी भी नहीं।
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