संगीत पर सवैया

रस की सृष्टि करने वाली

सुव्यवस्थित ध्वनि को संगीत कहा जाता है। इसमें प्रायः गायन, वादन और नृत्य तीनों शामिल माने जाते हैं। यह सभी मानव समाजों का एक सार्वभौमिक सांस्कृतिक पहलू है। विभिन्न सभ्यताओं में संगीत की लोकप्रियता के प्रमाण प्रागैतिहासिक काल से ही प्राप्त होने लगते हैं। भर्तृहरि ने साहित्य-संगीत-कला से विहीन व्यक्ति को पूँछ-सींग रहित साक्षात् पशु कहा है। इस चयन में संगीत-कला को विषय बनाती कविताओं को शामिल किया गया है।

एमन सोरठ देस हमीर

राय देवीप्रसाद ‘पूर्ण’

रूखन ते रस चूवन लाग

गुरु गोविंद सिंह

गावत बालन राग सखी

बख्शी हंसराज

मन खेंचत तार के खेंचत ही

राय देवीप्रसाद ‘पूर्ण’

करिके सुर तालन को बिसतार

राय देवीप्रसाद ‘पूर्ण’

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere