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नौकरी पर उद्धरण

कवि के संघर्ष में उसका

आर्थिक संघर्ष एक प्रमुख उपस्थिति है और इसी से जुड़ा है फिर रोज़गारी-बेरोज़गारी का उसका अपना विशिष्ट दुख। प्रस्तुत चयन ऐसी ही कविताओं से किया गया है।

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अभावग्रस्त बचपन, मेहनत और चिंताओं से भरा विद्यार्थी-जीवन, बाद में मँझोली हैसियत की एक सरकारी नौकरी—अपने इन अनुभवों की कहानी सुनाना बेकार है क्योंकि इस तरह की कहानियाँ बहुत बासी हैं और बहुत दोहराई जा चुकी हैं।

श्रीलाल शुक्ल
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सरकारी व्यवस्था में काम करने वाले लोग, ताक़त के ऊँचे पदों तक पहुँचने से बहुत पहले ही मान लेते हैं कि कोई बड़ा परिवर्तन करना संभव नहीं है।

कृष्ण कुमार
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सेवा सबसे कठिन व्रत है।

जयशंकर प्रसाद
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एम.ए. करने से नौकरी मिलने तक जो काम किया जाता है, उसे रिसर्च कहते हैं।

हरिशंकर परसाई
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व्यवस्था मनुष्य को नपुंसक बनाती है।

त्रिलोचन
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भाषा की लड़ाई दरअसल नफ़े-नुकसान की लड़ाई है। सवाल भाषा का नहीं है। सवाल है नौकरी का!

राही मासूम रज़ा
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नौकरी! यह शब्द हमारी आत्मा के माथे पर ख़ून से लिखा हुआ है। यह शब्द ख़ून बनकर हमारी रगों में दौड़ रहा है। यह शब्द ख़्वाब बनकर हमारी नींद की हत्या कर रहा है। हमारी आत्मा नौकरी के खूँटे से बंधी हुई लिपि की नाँद में चारा खा रही है।

राही मासूम रज़ा
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साहित्य का काम अच्छी दूकान का अच्छी नौकरी लगने तक ही होता है।

हरिशंकर परसाई
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सुना जाता है कि पहले के ज़मानों में नौजवान, मुल्क जीतने, लंबी और कठिन यात्राएँ करने, ख़ानदान का नाम ऊँचा करने के ख़्वाब देखा करते थे। अब वे केवल नौकरी का ख़्वाब देखते हैं। नौकरी ही हमारे युग का सबसे बड़ा एडवेंचर है। आज के फ़ाहियान और इन्ने-बतूता, वास्कोडिगामा और स्काट, नौकरी की ख़ोज में लगे रहते हैं। आज के ईसा, मोहम्मद और राम की मंज़िल नौकरी है।

राही मासूम रज़ा

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

हिन्दवी उत्सव, 27 जुलाई 2025, सीरी फ़ोर्ट ऑडिटोरियम, नई दिल्ली

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